Indur Hindi Samman Avm Kavi Sammelan Slideshow: इंदूर’s trip was created by TripAdvisor. Create a free slideshow with music from your travel photos.

Tuesday, February 14, 2012

निज़ामाबाद क़ी एक शाम कवियों के नाम 
गत दिनों निज़ामाबाद (आन्ध्र प्रदेश) के राजीव गाँधी आडिटोरियम में आयोजित एक समारोह में इंदूर हिंदी समिति ,निज़ामाबाद ने हिदी में उल्लेखनीय कार्य के लिये हैदराबाद से प्रकशित हिंदी दैनिक "स्वतंत्र वार्ता "के समूह संपादक डॉ राधेश्याम शुक्ल  एवम निज़ामाबाद के स्थानीय संपादक प्रदीप श्रीवास्तव को क्रमश सन 2011 एवम 2012 के लिये "इंदूर हिंदी सम्मान से नवाजा गया  | यह सम्मान शहर विधायक वाई लक्ष्मी नारायण ने प्रदान किये | सम्मान के रूप मै शाल,श्रीफल,स्मृति चिन्ह एवम सम्मान पत्र प्रदान किये गए | इस अवसर पर बोलते हुए डॉ सुकल ने कहा कि दक्षिण में हिदी क़ी बात चलती है तो यही कहा जाता है कि यह क्षेत्र गैर हिंदी भाषी है, जो कि एक भ्रम है ,हिंदी तो पूरे देश के साथ -साथ विश्व के कई देशों में बोली ,जानी व समझी जाती है | फिर इसे किसी एक क्षेत्र में बांधना कहाँ तक न्यायोचित होगा | वहीँ श्री श्रीवास्तव ने अपने संबोधन में कहा कि सही मायने में देखा जाय तो हिंदी भाषा के साथ -साथ अपनी संस्कृति को बचे रखने में मारवाड़ी समाज का महत्वपूर्ण योगदान है | उत्तर से दक्षिण या पूर्व से पश्चिम में कहीं भी जाएँ तो आप पाएंगे क़ी वहाँ रहने वाले मारवाड़ी समाज के लोग हिंदी भाषा ही बोलते हैं | कितना बड़ा उद्योगपति क्यों न हो वह हिंदी अखबार व पत्रिकाए ही मंगवाते हैं,केवल दिखाने के लिये नहीं पढ़ते भी हैं , क्यों न उन्हें दो-तीन दिन बाद मिले | इस वासर पर हिंदी समिति के मंत्री राज कुमार सूबेदार ने समिति क़ी रूप रेखा पर प्रकाश डाला ,जबकि अध्यक्ष राजीव दुआ ने समिति के  आगामी कार्यक्रमों का विवरण दिया| वहीँ  समिति द्वारा इस मौके पर "निज़ामाबाद क़ी एक शाम - कवियों के नाम " का आयोजन भी किया गया ,जिसमे देश के प्रतिष्ठित हास्य,वीर एवम श्रृंगाररस के कवियों ने भाग लिया | भाग लेने वाले कवियों  में शामिल थे  राजस्थान कोटा से कुंवर जावेद,मध्य प्रदेश के रतलाम से धमचक मुल्तानी एवम इंदौर से अतुल ज्वाला ,लखनऊ उत्तर प्रदेश से नरेश निर्भिक,महाराष्ट्र के मलेगावं से मुजावर मलेगावी एवम हैदराबाद क़ी श्रीमती ज्योति नारायण के साथ-साथ सथानीय कवियों में शामिल थे विजय कुमार मोदानी ,अशफाक असवी,रहीम कमर ,जलाल अकबर,सीताराम पाण्डे ,गंगाधर एवम रियाज तन्हा | कविसम्मेलन क़ी अध्यक्षता क़ी पुरषोत्तम सोमानी ने तथा संचालन किया कुंवर जावेद ने | देर सुबह तक चले इस कवि सम्मेलन का आनंद श्रोताओं ने भर पूर उठाया | 

Wednesday, January 18, 2012

डॉ राधेश्याम शुक्ल

डॉ राधेश्याम शुक्ल 
एवम प्रदीप श्रीवास्तव
को इंदूर हिंदी सम्मान  

निज़ामाबाद |   इंदूर हिंदी समिति,निज़ामाबाद द्वारा दक्षिण भारत में हिंदी के विकास में महत्त्व पूर्ण 
योगदान के लिये दिया जाने वाला सन २०११ एवम २०१२ के पुरस्कारों क़ी घोषणा बुधवार को 
समिति द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में क़ी गई|प्रेस विज्ञप्ति में यह जानकारी देते हुए समिति के अध्यक्ष राजीव दुआ एवम सचिव एड राज कुमार सूबेदार ने बताया हे कि सन २०११ का इंदूर हिंदी सम्मान स्वतंत्र वार्ता के समूह संपादक डॉ राधेश्याम शुक्ल को तथा सन २०१२ का स्वतंत्र वार्ता निज़ामाबाद के स्थानीय संपादक प्रदीप श्रीवास्तव को दिया जायेगा | प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार एवम मानस मर्मग्य डॉ शुक्ल को विगत पंद्रह वर्षों से दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता के विकास  एवम हिंदी क़ी सेव के लिये दिया जा रहा है | डॉ शुक्ल को अब तक कई पुरस्कारों व सम्मानों से नवाज जा चुका हे |

प्रदीप श्रीवास्तव
हाल ही में  उन्हें रामनाथ गोयनका पत्रकार शिरोमणि सम्मान से सम्मानित किया गया था | जबकि प्रदीप श्रीवास्तव को भी इसी क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता के लिए सम्मानित किया जा रहा है |जिन्हें गत वर्ष  आल इण्डिया स्माल  न्यूज पेपर्स एसोसिएसन (आइसना )द्वारा भोपाल में राष्ट्रिय पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया था |श्री श्रीवास्तव को सन २०१० में ओड़िसा के थियेटर मूवमेंट द्वारा कोणार्क पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया था |शनिवार २१ जनवरी क़ी शाम ८ बजे  निज़ामाबाद के राजीव गाँधी आडिटोरियम में आयोजित एक समारोह में यह सम्माननिज़ामाबाद के शहर विधायक वाई लक्ष्मीनारायण प्रदान करेंगे|प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार इस अवसर पर एक कवि सम्मेलन "निज़ामाबाद क़ी एक शाम,कवियों के नाम " का भी आयोजनकिया गया है | जिसमे राजस्थान कोटा के कुवंर जावेद,मध्य प्रदेश के रतलाम से धमचक मुल्तानी,इंदौर के अतुल ज्वाला (इन्दौरी)उत्तर प्रदेश के ,लखनऊ से नरेश निर्भीक एवम फैजाबाद से सुश्री व्याख्या मिश्रा के साथ - साथ सथानीय हिंदी व उर्दू के कवि एवम शायर भी अपनी कविताओं से श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध करेंगे |

Thursday, December 15, 2011

आकांक्षा यादव को भारतीय दलित साहित्य अकादमी
 द्वारा ‘डा. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान-2011
दलित साहित्य अकादमी ने युवा कवयित्री, साहित्यकार एवं चर्चिर ब्लागर आकांक्षा यादव को ‘’डाॅ0 अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान-2011‘‘ से सम्मानित किया है। आकांक्षा यादव को यह सम्मान साहित्य सेवा एवं सामाजिक कार्यों में रचनात्मक योगदान के लिए प्रदान किया गया है। उक्त सम्मान भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 11-12 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित 27 वें राष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मलेन में केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला द्वारा प्रदान किया गया.
गौरतलब है कि आकांक्षा यादव की रचनाएँ देश-विदेश की शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं. नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रूचि रखने वाली आकांक्षा यादव के लेख, कवितायेँ और लघुकथाएं जहाँ तमाम संकलनो / पुस्तकों की शोभा बढ़ा रहे हैं, वहीँ आपकी तमाम रचनाएँ आकाशवाणी से भी तरंगित हुई हैं. पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ अंतर्जाल पर भी सक्रिय आकांक्षा यादव की रचनाएँ इंटरनेट पर तमाम वेब/ई-पत्रिकाओं और ब्लॉगों पर भी पढ़ी-देखी जा सकती हैं. व्यक्तिगत रूप से ‘शब्द-शिखर’ और युगल रूप में ‘बाल-दुनिया’ , ‘सप्तरंगी प्रेम’ ‘उत्सव के रंग’ ब्लॉग का संचालन करने वाली आकांक्षा यादव न सिर्फ एक साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं, बल्कि सक्रिय ब्लागर के रूप में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है. 'क्रांति-यज्ञ: 1857-1947 की गाथा‘ पुस्तक का कृष्ण कुमार यादव के साथ संपादन करने वाली आकांक्षा यादव के व्यक्तित्व-कृतित्व पर वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु जी ने ‘बाल साहित्य समीक्षा‘ पत्रिका का एक अंक भी विशेषांक रुप में प्रकाशित किया है।
मूलत: उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ और गाजीपुर जनपद की निवासी आकांक्षा यादव वर्तमान में अपने पतिदेव श्री कृष्ण कुमार यादव के साथ अंडमान-निकोबार में रह रही हैं और वहां रहकर भी हिंदी को समृद्ध कर रही हैं. श्री यादव भी हिंदी की युवा पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं और सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवाएँ पद पर पदस्थ हैं. एक रचनाकार के रूप में बात करें तो सुश्री आकांक्षा यादव ने बहुत ही खुले नजरिये से संवेदना के मानवीय धरातल पर जाकर अपनी रचनाओं का विस्तार किया है। बिना लाग लपेट के सुलभ भाव भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें यही आपकी लेखनी की शक्ति है। उनकी रचनाओं में जहाँ जीवंतता है, वहीं उसे सामाजिक संस्कार भी दिया है।
इससे पूर्व भी आकांक्षा यादव को विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। जिसमें भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’भारती ज्योति’, ‘‘एस0एम0एस0‘‘ कविता पर प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा पुरस्कार, इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था, बिजनौर द्वारा ‘‘साहित्य गौरव‘‘ व ‘‘काव्य मर्मज्ञ‘‘, श्री मुकुन्द मुरारी स्मृति साहित्यमाला, कानपुर द्वारा ‘‘साहित्य श्री सम्मान‘‘, मथुरा की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘‘आसरा‘‘ द्वारा ‘‘ब्रज-शिरोमणि‘‘ सम्मान, मध्यप्रदेश नवलेखन संघ द्वारा ‘‘साहित्य मनीषी सम्मान‘‘ व ‘‘भाषा भारती रत्न‘‘, छत्तीसगढ़ शिक्षक-साहित्यकार मंच द्वारा ‘‘साहित्य सेवा सम्मान‘‘, देवभूमि साहित्यकार मंच, पिथौरागढ़ द्वारा ‘‘देवभूमि साहित्य रत्न‘‘, राजेश्वरी प्रकाशन, गुना द्वारा ‘‘उजास सम्मान‘‘, ऋचा रचनाकार परिषद, कटनी द्वारा ‘‘भारत गौरव‘‘, अभिव्यंजना संस्था, कानपुर द्वारा ‘‘काव्य-कुमुद‘‘, ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा ‘‘शब्द माधुरी‘‘, महिमा प्रकाशन, दुर्ग-छत्तीसगढ द्वारा ’महिमा साहित्य भूषण सम्मान’ , अन्तर्राष्ट्रीय पराविद्या शोध संस्था, ठाणे, महाराष्ट्र द्वारा ‘‘सरस्वती रत्न‘‘, अन्तज्र्योति सेवा संस्थान गोला-गोकर्णनाथ, खीरी द्वारा श्रेष्ठ कवयित्री की मानद उपाधि. जीवी प्रकाशन, जालंधर द्वारा 'राष्ट्रीय भाषा रत्न' इत्यादि शामिल हैं.

साभार: मीडिया 4 भड़ास डाट काम  

Friday, September 30, 2011

 

 फ़्रांस में मनाया गया हिंदी दिवस 
फ्रांस शासित बेहद खूबसूरत रीयूनियन द्वीप में पहली बार हिंदी की पताका पहुंची है. यहाँ पर भारतीय मूल के लोगों की लगभग 225000 आबादी है. जिनमें तमिल व गुजराती मूल के भारतवंशी प्रमुख रूप से सम्मिलित है. यहां भाषाई विभिन्नता न हो कर सभी लोग फ्रेंच अथवा क्रियोल ही बोलते है. अंग्रेजी नाममात्र की भी प्रयोग नहीं होती है. यहां हिंदी का रास्ता गुजराती मूल के भारतवंशियों में सम्मिलित मुस्लिम व सुनार समुदाय में बची भाषाए उर्दू व गुजराती के बीच से निकलता है.

यहां की राजधानी सेंट डेनिस के आंदी विला में यह बहुत ही रोमांचकारी पल थे जब हिंदी दिवस समारोह में सम्मिलित होने के लिए लगभग 400 ऐसे लोग एकत्रित थे, जिनमें से कुछ तमिल जानते थे, कुछ उर्दू, कुछ गुजराती, कुछ अंग्रेजी और सभी फ्रेंच. कार्यक्रम का शुभारम्भ फ्रांस एवं भारत के राष्ट्रगीत जन-गण-मन... से हुआ. मंच पर मुख्य अतिथि काउन्सल जीनों, विशिष्ट अतिथि राकेश पाण्डेय (संपादक प्रवासी संसार, भारत) भारतीय कौंसलावास के अधिकारी महाबीर रावत, आयोजक रजनीकांत जगजीवन (अध्यक्ष, एनआरआई रीयूनियन) आंदी व उमेश कुमार थे. कुछ श्रोताओं द्वारा हिंदी बिल्कुल ही न समझने के कारण, भाषणों को हिंदी से फ्रेंच में अनुवाद की व्यवस्था की गई और यह कार्य उमेश कुमार ने किया.
भारत से पधारे राकेश पाण्डेय ने कहा कि जैसे अंग्रेजों की प्रतिनिधि भाषा अंग्रेजी है, आपके फ्रांस की प्रतिनिधि भाषा फ्रेंच है, ऐसे ही हमारे भारत में अनेक बोलियां-भाषाएं होते हुए भी हमारी भाषाई पहचान हिंदी ही है. यहां आप सभी भारत की भाषाई पहचान हिंदी के महत्व को रेखांकित करने के लिए एकत्रित हुए हैं. आप सभी को बधाई. साथ ही विदेशों में हिंदी की स्थिति पर प्रकाश डाला. इसके बाद भारतीय कौंसलावास का प्रतिनिधित्व करते हुए महाबीर रावत ने हिंदी के भारत में संवैधानिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्थानीय लोगों को रीयूनियन में हिंदी प्रचार–प्रसार के लिए पुस्तकें व अन्य सहायता का आश्वासन दिया कि भारतीय कौंसलावास उनके साथ है, साथ ही राकेश पाण्डेय एवं रजनीकांत के इस प्रयास को भी सराहा जिसके कारण यहां रीयूनियन में हिंदी दिवस संभव हुआ.
मुख्य अतिथि जीनों ने हिंदी दिवस के आयोजन की शुरुआत को महत्वपूर्ण बताया और आगे प्रतिवर्ष किये जाने का संकल्पना को मूर्तरूप देने की बात कही. कार्यक्रम के दूसरे चरण में वहां भारतीय मूल की युवतियों ने भारतीय परिधानों का फैशन शो आयोजित किया. कार्यक्रम के अंत में सभी अतिथियों के लिए भारतीय मिठाइयां जैसे जलेबी, पेड़ा, गुझिया व अन्य मिठाइयां पारोसी गईं. पेड़े को तो भारतीय ध्वज के अनुरूप सजाया गया था. वहां के लोकप्रिय डॉक्टर दर्शन सिंह ने अगली बार और भव्य तरीके से हिंदी दिवस मनाने की बात कही. निजी मुलाकात में सेंट लुई के मेयर क्लाउदे होराऊ की ओर से उनके सांस्कृतिक प्रबंधक एवं कवि सुली ने अगले वर्ष उनके यहां हिंदी दिवस आयोजन का प्रस्ताव भी दिया.

                                                                                                 भड़ास 4 मिडिया डाट काम से साभार 

Friday, August 12, 2011

इस्तीफा

  इस्तीफा                           
 - मुंशी प्रेमचंद/कहानी
दफ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मजदूरों को आंखें दिखाओ, तो वह त्योरियां बदल कर खड़ा हो जायेगा। कुली को एक डांट बताओ, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगाह से देख कर चला जायेगा। यहां तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दोलत्तियां झाड़ने लगता है, मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे आंखें दिखायें, डांट बतायें, दुत्कारें या ठोकरें मारों, उसके माथे पर बल न आयेगा। उसे अपने विकारों पर जो अधिपत्य होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरजउसमें तमाम मानवी अच्छाइयां मौजूद होती हैं। खंडहर के भी एक दिन भाग्य जागते हैं। दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अंधेरी तकदीर में रोशनी का जलावा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन है, कभी हरा भादो नहीं।
लाला फतहचंद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे। कहते हैं, मनुष्य पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। फतहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिध्द न हो सकी। यदि उन्हें हारचंदकहा जाय तो कदाचित यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, जिंदगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर निराशाएं ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियां तीन। भाई एक भी नहीं, भौजाइयां दो। गांठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में आया और मुरव्वत। सच्चा मित्र एक भी नहीं-जिससे मित्रता हुई, उसने धोखा दिया। इस पर तंदुरूस्ती भी अच्छी नहीं-बत्ताीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गये थे। आंखों में ज्योति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल चिपके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छ: बजे शाम को लौट कर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें बिल्कुल खबर न थी। उनकी दुनिया, लोक-परलोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिंदगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुजर गयी थी।
जाड़ो के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फतहचंद साढ़े पांच बजे दफ्तर से लौटै तो चिराग जल गये थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते, चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते। तब कहीं जाकर उनके मुंह से आवाज निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुंह-हाथ धोने के लिए लोटा-गिलास मांज रही थी। बोली-उससे कह दे, क्या काम है। अभी तो दफ्तर से आये ही हैं, और बुलावा आ गया है? चपरासी ने कहा है, अभी फिर बुला लाओ। कोई बड़ा जरूरी काम है। फतहचंद की खामोशी टूट गयी। उन्होंने सिर उठा कर पूछा-क्या बात है? शारदा-कोई नहीं, दफ्तर का चपरासी है। फतहचंद ने सहम कर कहा-दफ्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है? शारदा-हां, कहता है, साहब बुला रहे हैं। यह कैसा साहब है तुम्हारा, जब देखो बुलाया करता है? सबेरे के गए-गए अभी लौटे हो, फिर भी बुलाया आ गया!
फतहचंद न संभल कर कहा-जरा सुन लूं, किसलिए बुलाया है। मैंने सब काम खत्म कर दिया था, अभी आता हूं। शारदा-जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेगी। यह कह कर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट और सेब लायी। फतहचंद उठ कर खड़े हो गये, किन्तु खाने की चीजें देख कर चारपाई पर बैठ गये और प्याली की ओर चाव से देख कर डरते हुए बोले-लड़कियों को दे दिया है न? शारदा ने आंखें चढ़ाकर कहा-हां, हां, दे दिया है, तुम तो खाओ। इतने में चपरासी ने फिर पुकार-बाबू जी, हमें बड़ी देर हो रही है। शारदा-कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आयेंगे। फतहचंद ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकियां लगायी, एक गिलास पानी पिया और बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गयी।
चपरासी ने कहा-बाबू जी! आपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपके चलिए, नहीं तो जाते ही डांट बतायेगा। फतहचंद ने दो कदम दौड़ कर कहा-चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह, चाहे डांट लगायें या दांत दिखायें। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बंगले ही पर हैं न? चपरासी-भला वह दफ्तर क्यों आने लगा। बादशाह है कि दिल्लगी? चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फतहचंद धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चल कर हांफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके कदम उठाते जाते थे। यहां तक कि जांघों में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खत्म होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया। सारा शरीर पसीने से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आंखों के सामने तितलियां उड़ने लगीं। चपरासी ने ललकारा-जरा कदम बढ़ाये चलो, बाबू! फतहचंद बड़ी मुश्किल से बोले-तुम जाओ, मैं आता हूं। वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये और सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगे। चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फतहचंद डरे कि यह शैतान जाकर न जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जायेगा। जमीन पर हाथ टेक कर उठे और फिर चले, मगर कमजोरी से शरीर हांफ रहा था। इस समय कोई बच्चा भी उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब के बंगले पर पहुंचे। साहब बंगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को आता न देख कर मन में झल्लाते थे। चपरासी को देखते ही आंखें निकाल कर बोले-इतनी देर कहां था? चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा-हुजूर! जब वह आयें तब तो मै दौड़ा चला आ रहा हूं। साहब ने पैर पटक कर कहा-बाबू क्या बोला? चपरासी-आ रहे है हुजूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले। इतने में फतहचंद अहाते के तार के अंदर से निकल कर वहां आ पहुंचे और साहब को सिर झुका कर सलाम किया। साहब ने कड़कर कहा-अब तक कहां था? फतहचंद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका खून सूख गया। बोले-हुजूर, अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूं, ज्यों ही चपरासी ने आवाज दी, हाजिर हुआ। साहब-झूठ बोलता है, झूठ बोलता है। हम घंटे-भर से खड़ा है। फतहचंद-हुजूर, मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गयी हो, मगर घर से चलने में मुझे बिल्कुल देर नहीं हुई। साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा-चुप रह सूअर, हम घण्टा-भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो! फतहचंद ने खून की घूंट पीकर कहा-हुजूर, मुझे दस साल काम करते हो गए, कभी…! साहब-चुप रह सूअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो। फतहचंद-जब मैंने कोई कुसूर किया हो? साहब-चपरासी, इस सूअर का कान पकड़ो। चपरासी ने दबी जबान से कहा-हुजूर, यह भी मेरे अफसर हैं। मैं इनका कान कैसे पकडूं? साहब-हम कहता है, इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा। चपरासी-हुजूर, मैं यहां नौकरी करने आया हूं, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूं। हुजूर, अपनी नौकरी ले लें! आप जो हुक्म दें, वह बजा लाने को हाजिर हूं, लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें। साहब अब क्रोध को न बर्दाश्त कर सके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा, यहां खड़े रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फतहचंद अभी तक चुपचाप खड़े थे। चपरासी को न पाकर साहब उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़कर हिला दिये। बोला-तुम सूअर गुस्ताखी करता है? जाकर आफिस से फाइल लाओ। फतहचंद ने कान हिलाते हुए कहा-कौन-सा फाइल? तुम बहरा है, सुनता नहीं। हम फाइल मांगता है। फतहचंद ने किसी तरह दिलेर होकर कहा-आप कौन-सा फाइल मांगते हैं? साहब-वही फाइल जो हम मांगता है। वही फाइल लाओ। अभी लाओ। बेचारे फतहचंद को अब और कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। साहब बहादुर एक तो यों ही तेज-मिजाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड और सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचारे क्या कर लेते? चुपके से दफ्तर की तरफ चल पड़े। साहब ने कहा-दौड़ कर जाओ-दौड़ो। फतहचंद ने कहा-हुजूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता। साहब-ओ, तुम बहुत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर), तुम अब भी नहीं दौड़ेगा? यह कह कर साहब हंटर लेने चले। फतहचंद दफ्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान होते, तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते, लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाशा भागे और फाटक से बाहर निकल कर सड़क पर आ गये।
फतहचंद दफ्तर न गये। जाकर करते ही क्या? साहब ने फाइल का नाम तक न बताया। शायद नशे में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले, मगर इस बेइज्जती ने पैरों में बेड़ियां-सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज भी न थी, लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरो में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे? फिर क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की? मगर इलाज ही क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जाता। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते? यदि उनके पास इतने रुपये होते, जिससे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का उन्हें डर न था। जिन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था, सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का। आज फतहचंद को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दुख हुआ, उतना और कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तन्दुरूस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता। उसकी आंखें निकला लेते। कम से कम इन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था। और न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही-पीछे देखा जाता, जेल जाना ही तो होता या और कुछ? वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर और भी झल्लाती थी। अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता-यही न कि साहब के खानसामे, बैरे सब उन पर पिल पड़ते और मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती-पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि गरीब को बेगुनाह जलील करना आसान नहीं। आखिर आज मैं मर जाऊं, तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेगा? तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था। इस अन्तिम विचार ने फतहचंद के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट पड़े और साहब से जिल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार कदम चले, मगर फिर ख्याल आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी, वह तो हो ही ली। कौन जाने, बंगले पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी और बच्चों का बिना बाप के जाने का ख्याल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले।
घर में जाते ही शारदा ने पूछा-किसलिए बुलाया था, बड़ी देर हो गयी? फतहचंद ने चारपाई पर लेटते हुए कहा-नशे की सनक थी, और क्या? शैतान ने मुझे गालियां दी, जलील किया। बस, यही रट लगाए हुए था कि देर क्यों की? निर्दयी ने चपरासी से मेरा कान पकड़ने को कहा। शारदा ने गुस्से में आकर कहा-तुमने एक जूता उतार कर दिया नहीं सूआर को? फतहचंद-चपरासी बहुत शरीफ है। उसने साफ कह दिया-हुजूर, मुझसे यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्जत उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। वह उसी वक्त सलाम करके चला गया। शारदा-यही बहादुरी है। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा? फतहचंद-फटकारा क्यों नहीं, मैंने भी खूब सुनायी। वह छड़ी लेकर दौड़ा, मैंने भी जूता संभाला। उसने मुझे छड़ियां जमायीं, मैंने भी कई जूते लगाये! शारदा ने खुश होकर कहा-सच? इतना-सा मुंह हो गया होगा उसका! फतहचंद-चेहरे पर झाडू-सी फिरी हुई थी। शारदा-बड़ा अच्छा किया तुमने, और मारना चाहिए था। मैं होती तो बिना जान लिए न छोड़ती। फतहचंद-मार तो आया हूं, लेकिन अब खैरियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है? नौकरी तो जायगी ही, शायद सजा भी काटनी पड़े। शारदा-सजा क्यों काटनी पड़ेगी? क्या कोई इंसाफ करने वाला नहीं है? उसने क्यों गालियां दीं? क्यों छड़ी जमायी? फतहचंद-उसके सामने मेरी कौन सुनेगा? अदालत भी उसी की तरफ हो जायगी। शारदा-हो जायगी हो जाय, मगर देख लेना, अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियां दे बैठे। तुम्हें चाहिए था कि ज्यों ही उसके मुंह से गालियां निकली, लपक कर एक जूता रसीद कर देते। फतहचंद-तो फिर इस वक्त जिंदा लौट भी न सकता। जरूर मुझे गोली मार देता। शारदा-देखी जाती। फतहचंद ने मुस्करा कर कहा-फिर तुम लोग कहां जाते? शारदा-जहां ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज इज्जत है। इज्जत गंवा कर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मार का आये होते तो मैं गरूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर उठते, तो शायद मैं तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्जत जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आयेगी, खुशी से झेल लूंगी। कहां जाते हो, सुनो-सुनो, कहां जाते हो? फतहचंद दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गयी।
वह फिर साहब के बंगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं, बल्कि गरूर से गर्दन उठाये हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमजोरी, आंखों में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट सी हो गयी थी। वह कमजोर बदन, पीला मुखड़ा, दुर्बल बदन वाला, दफ्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत भरा हुआ, मजबूत गठा और जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसके डंडा लिया और अकड़ते हुए साहब के बंगले पर जा पहुंचे। इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे। मगर फतहचंद ने आज उनके मेज पर से उठ जाने का इंतजार न किया, खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठा कर अंदर गए। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा था। जमीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी, जैसी फतहचंद की शादी में भी नहीं बिछी होगी। साहब बहादुर ने उनकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देख कर कहा-तुम क्यों आया? बाहर जाओ, क्यों अन्दर चला आया? फतहचंद ने खड़े-खड़े डंडा संभाल कर कहा-तुमने मुझसे अभी फाइल मांगा था, वही फाइल लेकर आया हूं। खाना खा लो, तो दिखाऊं। तब तक मैं बैठा हूं। इत्मीनान से खाओ, शायद यह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो। साहब सन्नाटे में आ गये। फतहचंद की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से देख कर कांप उठे। फतहचंद के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गये, यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आया है। ताकत में फतहचंद उनसे पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईंट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि वह फतहचंद को बुरा-भला कहते हैं, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बैठाये डंडे खाना भी तो कोई बुध्दिमानी नहीं है। कुत्तो को आप डंडे से मारिये, ठुकराइये, जो चाहे कीजिए, मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्रा कर दौड़ पड़े, तो फिर देखें, आप की हिम्मत कहां जाती है? यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का था। जब तक यकीन था कि फतहचंद घुड़की, गाली, हंटर, ठोकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा, तब तक आप शेर थे, अब वह त्योरियां बदले, डंडा संभाले, बिल्ली की तरह घात लगाये खड़ा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने डंडा चलाया। वह अधिक से अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर है। उस पर फौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का अंदेशा-माना कि वह अपने प्रभाव और ताकत से जेल में डलवा देंगे, परन्तु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुध्दिमान और दूरंदेश आदमी की तरह उन्होंने यह कहा-ओहो, हम समझ गया, आप हमसे नाराज हैं। हमने क्या आपको कुछ कहा है? आप क्यों हमसे नाराज हैं? फतहचंद ने तन कर कहा-तुमने अभी आधा घंटा पहले मेरे कान पकड़े थे, और मुझसे सैकड़ों ऊल-जलूल बातें कही थीं। क्या इतनी जल्दी भूल गये? साहब-मैंने आपका कान पकड़ा, आ-हा-हा-हा-हा! क्या मजाक है? क्या मैं पागल हूं या दीवाना? फतहचंद-तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं? चपरासी गवाह है। आपके नौकर-चाकर भी देख रहे थे। साहब-कब की बात है?
फतहचंद-अभी-अभी, कोई आधा घंटा हुआ, आपने मुझे बुलवाया था और बिना कारण मेरे कान पकड़े और धक्के दिये थे। साहब-ओ बाबू जी, उस वक्त हम नशा में था। बेहरा ने हमको बहुत दे दिया था। हमको कुछ खबर नहीं, क्या हुआ। माई गाड़! हमको कुछ खबर नहीं। फतहचंद-नशा में अगर तुमने गोली मार दी होती, तो क्या मैं मर न जाता? अगर तुम्हें नशा था और नशा में सब कुछ मुआफ है, तो मैं भी नशे में हूं। सुनो मेरा फैसला, या तो अपने कान पकड़ो कि फिर कभी किसी भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे, या मैं आकर तुम्हारे कान पकडूंगा। समझ गये कि नहीं! इधर-उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाय, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूं, वह करते चलो, पकड़ो कान! साहब ने बनावटी हंसी हंसकर कहा-वेल बाबू जी, आप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहता है, तो हम आपसे माफी मांगता है। फतहचंद-(डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो! साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि फतहचंद के हाथ से लकड़ी छीन लें, लेकिन फतहचंद गाफिल न थे। साहब मेज पर से उठने न पाये थे कि उन्होंने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही, चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गयी। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले-हम तुमको बरखास्त कर देगा। फतहचंद-इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊंगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसी बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ना ही चाहता है! यह कहकर फतहचंद ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाय। कान पर हाथ रखकर बोले-अब आप खुश हुआ? फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे? कभी नहीं। अगर फिर कभी ऐसा किया, तो समझ लेना, मैं कहीं बहुत दूर नहीं हूं। अब किसी को गाली न देगा। अच्छी बात है, अब मैं जाता हूं, आज से मेरा इस्तीफा है। मैं कल इस्तीफा में यह लिखकर भेजूंगा कि तुमने मुझे गालियां दीं, इसलिए मैं नौकरी नहीं करना चाहता, समझ गये? साहब-आप इस्तीफा क्यों देता है? हम तोहम तो बरखास्त नहीं करता। फतहचंद-अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूंगा। यह कहते हुए फतहचंद कमरे से बाहर निकले और बड़े इत्मीनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीवन की पहली जीत थी।
साभार :भारतीय पक्ष से 

Wednesday, July 27, 2011


प्रेमचंद के अमर पात्र ने मूंद ली आंखें

वाराणसी में  पाण्डेयपुर स्थित नयी बस्ती की कुम्हार पट्टी में सोमवार की सुबह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी मैकू के नायक मैकू ने अंतिम सांस ली। वह करीब 104 साल के थे। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम तो करीब दो साल ही किया किंतु इसी दौरान उनकी एक चर्चित कहानी का नायक बनने का मौका पाने वाले सौभाग्यशाली बन गये। मुंशी जी के निधन के बाद करीब तीन दशक तक मैकू ने इलाहाबाद स्थानांतरित हो चुके सरस्वती प्रेस और हंस प्रकाशन में काम किया। इसके बाद वह पाण्डेयपुर में अपने चार बेटों के संयुक्त परिवार के साथ रह रहे थे। बेटों का परिवार अपने पारंपरिक धंधे में है। सभी मिट्टी के कुल्हड़ और घड़ा आदि बनाने के काम करते हैं। उनके बड़े बेटे का निधन हो चुका है। मैकू के पुत्र कैलाश प्रजापति ने बताया कि वह लंबे समय से देख पाने में असमर्थ थे किंतु हमेशा मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताते रहते थे। उन्हें उनकी अधिकतर कहानियां याद थीं। मैकू की प्रेमचंद से पहली मुलाकात 1934 में लमही गांव में तब हुई थी जब वह बेरोजगार युवक थे और उसी गांव में स्थित अपनी बहन की ससुराल गये थे। प्रेमचंद ने उन्हें अपने छापेखाने में काम दिया था। पाण्डेयपुर से रामकटोरा डयूटी करने आने के क्रम में ही एक बार मैकू का चौकाघाट स्थित ताड़ीखाने के पास एक नशेड़ी से झगड़ा हो गया। लठैत मैकू ने उसे धूल चटा दी। छापेखाने में आकर उन्होंने प्रेमचंद से इसकी चर्चा की। इसके कुछ समय बाद अचानक उन्हें हंस पत्रिका में अपने नाम के ही शीर्षक वाली मैकू कहानी दिख गयी। यह नशा-मुक्ति पर लिखी प्रेमचंद की एक अमर कथा-कृति है।

 मैकू  (मूल कहानी)

कादिर और मैकू ताड़ीखाने के सामने पहूँचे;तो वहॉँ कॉँग्रेस के वालंटियर झंडा लिए खड़े नजर आये। दरवाजे के इधर-उधर हजारों दर्शक खड़े थे। शाम का वक्त था। इस वक्त गली में पियक्कड़ों के सिवा और कोई न आता था। भले आदमी इधर से निकलते झिझकते। पियक्कड़ों की छोटी-छोटी टोलियॉँ आती-जाती रहती थीं। दो-चार वेश्याऍं दूकान के सामने खड़ी नजर आती थीं। आज यह भीड़-भाड़ देख कर मैकू ने कहाबड़ी भीड़ है बे, कोई दो-तीन सौ आदमी होंगे।
कादिर ने मुस्करा कर कहाभीड़ देख कर डर गये क्या? यह सब हुर्र हो जायँगे, एक भी न टिकेगा। यह लोग तमाशा देखने आये हैं, लाठियॉँ खाने नहीं आये हैं।
मैकू ने संदेह के स्वर में कहापुलिस के सिपाही भी बैठे हैं। ठीकेदार ने तो कहा था, पुलिस न बोलेगी।
कादिरहॉँ बे , पुलिस न बोलेगी, तेरी नानी क्यों मरी जा रही है । पुलिस वहॉँ बोलती है, जहॉँ चार पैसे मिलते है या जहॉँ कोई औरत का मामला होता है। ऐसी बेफजूल बातों में पुलिस नहीं पड़ती। पुलिस तो और शह दे रही है। ठीकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं। पुलिस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी?
मैकूचलो, आज दस हमारे भी सीधे हुए। मुफ्त में पियेंगे वह अलग, मगर हम सुनते हैं, कॉँग्रेसवालों में बड़े-बड़े मालदार लोग शरीक है। वह कहीं हम लोगों से कसर निकालें तो बुरा होगा।
कादिरअबे, कोई कसर-वसर नहीं निकालेगा, तेरी जान क्यों निकल रही है? कॉँग्रेसवाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले। नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीट कर रख देते। चार तो वही ठंडे हो गये थे, मगर एक ने हाथ नहीं उठाया। इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फकीर है ! उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो।
यों बातें करते-करते दोनों ताड़ीखाने के द्वार पर पहुँच गये। एक स्वयंसेवक हाथ जोड़कर सामने आ गया और बोला भाई साहब, आपके मजहब में ताड़ी हराम है।
मैकू ने बात का जवाब चॉँटे से दिया । ऐसा तमाचा मारा कि स्वयंसेवक की ऑंखों में  खून आ गया। ऐसा मालूम होता था, गिरा चाहता है। दूसरे स्वयंसेवक ने दौड़कर उसे सँभाला। पॉँचों उँगलियो का रक्तमय प्रतिबिम्ब झलक रहा था।
मगर वालंटियर तमाचा खाकर भी अपने स्थान पर खड़ा रहा। मैकू ने कहाअब हटता है कि और लेगा?
स्वयंसेवक ने नम्रता से कहाअगर आपकी यही इच्छा है, तो सिर सामने किये हुए हूँ। जितना चाहिए, मार लीजिए। मगर अंदर न जाइए।
यह कहता हुआ वह मैकू के सामने बैठ गया ।
मैकू ने स्वयंसेवक के चेहरे पर निगाह डाली। उसकी पॉचों उँगलियों के निशान झलक रहे थे। मैकू ने इसके पहले अपनी लाठी से टूटे हुए कितने ही सिर देखे थे, पर आज की-सी ग्लानी उसे कभी न हुई थी। वह पाँचों उँगलियों के निशान किसी पंचशूल की  भॉति उसके ह्रदय में चुभ रहे थे।
कादिर चौकीदारों के पास खड़ा सिगरेट पीने लगा। वहीं खड़े-खड़े बोलाअब, खड़ा क्या देखता है, लगा कसके एक हाथ।
मैकू ने स्वयंसेवक से कहातुम उठ जाओ, मुझे अन्दर जाने दो।
आप मेरी छाती पर पॉँव रख कर चले जा सकते हैं।
मैं कहता हूँ, उठ जाओ, मै अन्दर ताड़ी न पीउँगा , एक दूसरा ही काम है।
उसने यह बात कुछ इस दृढ़ता से कही कि स्वयंसेवक उठकर रास्ते से हट गया। मैकू ने मुस्करा कर उसकी ओर ताका । स्वयंसेवक ने फिर हाथ जोड़कर कहाअपना वादा भूल न जाना।
एक चौकीदार बोलालात के आगे भूत भागता है, एक ही तमाचे में ठीक हो गया !
कादिर ने कहायह तमाचा बच्चा को जन्म-भर याद रहेगा। मैकू के तमाचे सह लेना मामूली काम नहीं है।
चौकीदारआज ऐसा ठोंको इन सबों को कि फिर इधर आने को नाम न लें ।
कादिरखुदा ने चाहा, तो फिर इधर आयेंगे भी नहीं। मगर हैं सब बड़े हिम्मती। जान को हथेली पर लिए फिरते हैं।
मैकू भीतर पहुँचा, तो ठीकेदार ने स्वागत किया आओ मैकू मियॉँ ! एक ही तमाचा लगा कर क्यो रह गये? एक तमाचे का भला इन पर क्या असर होगा? बड़े लतखोर हैं सब। कितना ही पीटो, असर ही नहीं होता। बस आज सबों के हाथ-पॉँव तोड़ दो; फिर इधर न आयें ।
मैकूतो क्या और न आयेंगें?
ठीकेदारफिर आते सबों की नानी मरेगी।
मैकूऔर जो कहीं इन तमाशा देखनेवालों ने मेरे ऊपर डंडे चलाये तो!
ठीकेदारतो पुलिस उनको मार भगायेगी। एक झड़प में मैदान साफ हो जाएगा। लो, जब तक एकाध बोतल पी लो। मैं तो आज मुफ्त की पिला रहा हूँ।
मैकूक्या इन ग्राहकों को भी मुफ्त ?
ठीकेदार क्या करता , कोई आता ही न था। सुना कि मुफ्त मिलेगी तो सब धँस पड़े।
मैकूमैं तो आज न पीऊँगा।
ठीकेदारक्यों? तुम्हारे लिए तो आज ताजी ताड़ी मँगवायी है।
मैकूयों ही , आज पीने की इच्छा नहीं है। लाओ, कोई लकड़ी निकालो, हाथ से मारते नहीं बनता ।
ठीकेदार ने लपक कर एक मोटा सोंटा मैकू के हाथ में दे दिया, और डंडेबाजी का तमाशा देखने के लिए द्वार पर खड़ा हो गया ।
मैकू ने एक क्षण डंडे को तौला, तब उछलकर ठीकेदार को ऐसा डंडा रसीद किया कि वहीं दोहरा होकर द्वार में गिर पड़ा। इसके बाद मैकू ने पियक्कड़ों की ओर रुख किया और लगा डंडों की वर्षा करने। न आगे देखता था, पीछे, बस डंडे चलाये जाता था।
ताड़ीबाजों के नशे हिरन हुए । घबड़ा-घबड़ा कर भागने लगे, पर किवाड़ों के बीच में ठीकेदार की देह बिंधी पड़ी थी। उधर से फिर भीतर की ओर लपके। मैकू ने फिर डंडों से आवाहन किया । आखिर सब ठीकेदार की देह को रौद-रौद कर भागे। किसी का हाथ टूटा, किसी का सिर फूटा, किसी की कमर टूटी। ऐसी भगदड़ मची कि एक मिनट के  अन्दर ताड़ीखाने में एक चिड़िये का पूत भी न रह गया।
एकाएक मटकों के टूटने की आवाज आयी। स्वयंसेवक ने भीतर झाँक कर देखा, तो मैकू मटकों को विध्वंस करने में जुटा हुआ था। बोलाभाई साहब, अजी भाई साहब, यह आप गजब कर रहे हैं। इससे तो कहीं अच्छा कि आपने हमारे ही ऊपर अपना गुस्सा उतारा होता।
मैंकू ने दो-तीन हाथ चलाकर बाकी बची हुई बोतलों और मटकों का सफाया कर दिया और तब चलते-चलते ठीकेदार को एक लात जमा कर बाहर निकल आया।
कादिर ने उसको रोक कर पूछा तू पागल तो नहीं हो गया है बे?
क्या करने आया था, और क्या कर रहा है।
मैकू ने लाल-लाल ऑंखों से उसकी ओर देख कर कहहॉँ अल्लाह का शुक्र है कि मैं जो करने आया था, वह न करके कुछ और ही कर बैठा। तुममें कूवत हो, तो वालंटरों को मारो, मुझमें कूवत नहीं है। मैंने तो जो एक थप्पड़ लगाया। उसका रंज अभी तक है और हमेशा रहेगा ! तमाचे के निशान मेरे कलेजे पर बन गये हैं। जो लोग दूसरों को गुनाह से बचाने के लिए अपनी जान देने को खड़े हैं, उन पर वही हाथ उठायेगा, जो पाजी है, कमीना है, नामर्द है। मैकू फिसादी है, लठैत ,गुंडा है, पर कमीना और नामर्द नहीं हैं। कह दो पुलिसवालों से , चाहें तो मुझे गिरफ्तार कर लें।
कई ताड़ीबाज खड़े सिर सहलाते हुए, उसकी ओर सहमी हुई ऑंखो से ताक रहै थे। कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ती थी। मैकू ने  उनकी ओर देख कर कहामैं कल फिर आऊँगा। अगर तुममें से किसी को यहॉँ देखा तो खून ही पी जाऊँगा ! जेल और फॉँसी से नहीं डरता। तुम्हारी भलमनसी इसी में है कि अब भूल कर भी इधर न आना । यह कॉँग्रेसवाले तुम्हारे दुश्मन नहीं है। तुम्हारे और तुम्हारे बाल-बच्चों की भलाई के लिए ही तुम्हें पीने से रोकते हैं। इन पैसों से अपने बाल-बच्चो की परवरिश करो, घी-दूध खाओ। घर में तो फाके हो रहै हैं, घरवाली तुम्हारे नाम को रो रही है, और तुम यहॉँ बैठे पी रहै हो? लानत है इस  नशेबाजी पर ।  मैकू ने वहीं डंडा फेंक दिया और कदम बढ़ाता हुआ घर चला। इस वक्त तक हजारों आदमियों का हुजूम हो गया था। सभी श्रद्धा, प्रेम और गर्व की ऑंखो से मैकू को देख रहे थे।
(वाराणसी से रजनीश त्रिपाठी क़ी रपट )