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Wednesday, November 24, 2010

तेलुगु साहित्य पर बंगला का प्रभाव
नवजागरण की शुरुआत सबसे पहले बंगाल से हुई। इसके फलस्वरूप बंगला भाषा में गद्य साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। बंकिमचंद चटर्जी के उपन्यासों के प्रकाश में आने से पहले ही बंगला कविता में आधुनिक विचारधारा स्थापित हुई और ‘ब्लैंक वर्स’ में कविताएं आने लगीं। तब तक बंगला छंद में प्रचलित अंत्य तुक नियमों को छ़ोडकर सर्व प्रथम मइखेल मधुसूदन दत्त मेघनाथ वध महाकाव्य का प्रणयन कर अग्र श्रेणी के कवि के नाम से ख्याति अर्जित कर चुके थे।बंग भंग के वर्ष में ही प्रमुख ब्रह्म समाजी ब्रह्मर्षि सर रघुपति वेंकटरत्नम नायुडु के प्रयासों से आंध्र में ब्रह्म समाज की स्थापना हुई और उसका केंद्र काकिऩाडा बना। तबसे (१९०५) आंध्र अभ्युदय लेखक संघ की स्थापना (१९३३) तक के समय को तेलुगु साहित्य पर बंगला का प्रभाव का काल माना जाता है। इस अवधि में प्रकाशित तेलुगु कविता में बगंला साहित्य की प्रवृत्तियों का प्रचुर मात्रा में प्रकट होना और अधिक संख्यक रचनाआें का बंगला से तेलुगु में अनूदित होना इस प्रभाव के मूल आधार बताये जाते हैं। अलावा इसके आधुनिक तेलुगु साहित्य के युग पुरुष माने जाने वाले कंदुकूरि वीरेशलिंगम पंतुलु ने ब्रह्म समाज के प्रचारक केशव चंद्र सेन की पुस्तकों से प्रभावित होकर अपने समाज सुधार के सारे कार्यक्रम ब्रह्म समाज के पदचिह्नों का अनुकरण करते हुए संचालित किये। साहित्य में भी आपने समाज सुधार की प्रवृत्तियों को प्रवेश कराया। आपके अनुगमन में उस समय के तेलुगु के अधिकतर साहित्यकार साहित्य को समाज सुधार के एक साधन मानकर अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते रहे।बंगाल प्रेसीडेंसी में घट रहे नव जागरण से संबद्ध राजनीतिक एवं साहित्यिक परिवर्तनों की ओर प़डोसी मद्रास प्रेसीडेंसी के आंध्र के बुद्धिजीवी अधिक आकर्षित हुए। स्मरण रहे १९३५ में उ़डीसा राज्य बनने से पहले तक मद्रास प्रेसीडेंसी एवं बंगाल प्रेसीडेंसी प़डोसी थे। बंगला भाषियों के जैसे पोशाक धारण करना, उनके आचारविचार, उनके पूजा विधान ही नहीं वे जिस तौर तरीके से सभा संगोष्ठियों का आयोजन करते हैं, उन सबका अनुकरण करना उन दिनों आंध्र में भद्रता व आधुनिकता का चिह्न माना जाता रहा है। बंगला साहित्यकारों के प्रति वहां की जनता का आदर, साहित्य निर्माण में उनका पुरोगमन आदि विषयों का उल्लेख करते हुए तेलुगु साहित्य में उनकी प्रशंसा की गयी। पत्र व्यवहार के माध्यम से बंगला साहित्यकारों से तेलुगु साहित्यकार साहित्य रचना के संबंध में सलाहमशविरा प्राप्त करते थे। बंगला के प्रसिद्ध विद्वान एवं पत्रिका के संपादक शंभुचंद्र चटर्जी ने आधुनिक तेलुगु साहित्य के युग प्रवर्तक गुरजाडा अप्पा राव के पत्र का जवाब देते हुए यों लिखा कि आपमें प्रतिभा है, साधना से आप उज्जवल साहित्यकार बन सकते हैं।
तब के बंगला साहित्य की उन्नत स्थिति से अपने साहित्य की दयनीय स्थिति की तुलना करते हुए तेलुगु साहित्यकारों ने जो लिखा है, वह इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। बंगला देश के पंडित व पामरों का यही विश्वास है ‘बंकिमचंद्र बंग भाषा साहित्य में ब्रह्म जैसे हैं।’ ऐसे व्यक्ति आंध्र देश में कौन हैं?
गुरजाडा अप्पा राव ने उस दौरान तेलुगु साहित्यकारों को यों सलाह दी। ‘व्यावहारिक बंगला भाषा से एक सरल, सहज व सुबोध चलत बंगला भाषा का निर्माण कर बंगला साहित्यकारों ने कई लोकप्रसिद्ध ग्रंथों का निर्माण किया। मेरी आशा है कि हममें से कुछ रचनाकार बंगला सीखकर उसमें से उत्तम रचनाआें का तेलुगु अनुवाद कर हमारी जनता को उपकृत करें।’बंगला के चलित भाषा का उदाहरण लिये आंध्र में गिडुगु राममूर्ति पंतुलु ने भाषा सुधार के लिए व्यावहारिक भाषा आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का समर्थन करते हुए गुरजाडा तथा उनके समकालीन साहित्कार तब तक प्रचलित ‘ग्रांथिक’ भाषा, जो पंडितों तक ही बोधगम्य थी, के स्थान पर ‘व्यावहारिक’ भाषा में रचनाएँ करने लगे। परिणामस्वरूप तेलुगु में विविध विधाआें में गद्य साहित्य का आविर्भाव हुआ। इससे पाठक संख्या भी ब़ढने लगी। साहित्य किसी एक वर्ग तक सीमित न रहकर सभी के लिए सुलभसा हो गया।उन्हीं दिनों अनेक बंगला उपन्यास तेलुगु में अनूदित होकर प्रकाशित हुए, जैसे सुगुणवती परिणय (१९०८), प्रफुल्ल (१९०९), राजधानी (१९१०) और आनंद मठ (१९०७)। पिलका गणपति शास्त्री बोंदलापाटि शिवराम कृष्ण जैसे प्रसिद्ध अनुवादक के परिश्रम से ये उपन्यास प्रकाशित हुए। बंकिमचंद्र के लगभग सारे उपन्यास तेलुगु में आये हैं। विज्ञान चंद्रिता, वेगु चुक्का, हितकारिणी, सरस्वती ग्रंथमाला जैसी प्रमुख प्रकाशन संस्थाआें ने अनुवाद साहित्य का प्रोत्साहन किया। दूसरी भाषाआें से अनूदित उपन्यास की अपेक्षा बंगला भाषा के ही उपन्यास अधिक संख्या में और अधिक बार प्रकाशित हुए। इन्हीं प्रकाशन संस्थाआें ने तेलुगु के प्रसिद्ध साहित्कारों के उपन्यासों को प्रकाशित किया। इन दिनों कुछ ऐतिहासिक उपन्यास भी प्रकाशित हुए। इनमें से अधिक ऐसे उपन्यास हैं, जिन्होंने बंगला उपन्यासों से प्रभाव ग्रहण किया। चिलकमर्ति लक्ष्मी नरसिम्हम्‌ का उपन्यास ‘हेमलता’ में चित्रित सन्यासी वेषधारी देशभक्त राजपूत और दुग्गिराल राघव चंद्रय्य शास्त्री का उपन्यास विजयनगर साम्राज्य का योगी, बंकिम के उपन्यास प्रफुल्ल के भवानी ठाकुर की याद दिलाते हैं। तेलुगु साहित्यकार मानते हैं कि बंकिम चंद्र ने टाइलर के उपन्यासों से प्रभावित होकर संन्यासी के रूप में राजनेता का प्रवेश अपने उपन्यासों में कराया, तो तेलुगु साहित्यकार बंकिम चंद्र के अनुकरण पर सन्यासी रूप में रह रहे राजनेता जैसे पात्रों को प्रवेश कराया। यह भी कहा गया है कि उस समय प्रकाश में आये एक भी ऐसा ऐतिहासिक तेलुगु उपन्यास नहीं है जहां वेषधारी राजनेता का पात्र चित्रित न किया गया हो। ऐसे कृत्रिम पात्र को लेकर कुछ साहित्यकारों ने यहां तक कहा कि तेलुगु साहित्यकारों को बंकिम का हूबहू अनुकरण एक संक्रामक रोगसा लग गया है।उन्हीं दिनों कुछ संस्थाआें ने उत्तम मौलिक एवं अनुदित ऐतिहासिक उपन्यासों पर पुरस्कार प्रदान करने की परंपरा शुरू करके उपन्यास साहित्य की श्रीवृद्धि में योगदान किया। इसलिए तेलुगु साहित्य के इतिहास में १९०० से १९२० तक की अवधि को उपन्यास साहित्य के इतिहास का अनुवाद युग की संज्ञा दी गयी।
बंगला साहित्य में रवींद्रनाथ ठाकुर का आविर्भाव उनकी गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार की प्राप्ति, उनके द्वारा शांतिनिकेतन की स्थापना संपूर्ण भारतीय साहित्य में एक अभूतपूर्व घटना थी। आपके प्रभाव से समस्त भारतीय भाषाआें के साहित्य में नया म़ोड आया। नोबेल पुरस्कार प्राप्ति के पहले से ही १९०९१० के बीच आपके गीतों का अनुवाद प्रमुख तेलुगु पत्रपत्रिकाआें में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी गीतांजलि का अनेक साहित्यकारों ने तेलुगु में अनुवाद किया। गीतांजलि का तेलुगु अनुवाद का सिलसिला आज तक बरकरार है। उन दिनों अनेक तेलुगु युवा कवि शांतिनिकेतन जाकर रवींद्रनाथ की सन्निधि में बैठकर साहित्य रचना में दीक्षित होकर आते रहे। छायावाद जो भाव कविता के नाम से तेलुगु में उदित हुआ है, उसका अधिकांश भाग रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाआें से प्रभावित है, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव से जिस तरह तेलुगु साहित्य में गुरजाडा अप्पा राव ने नयी कविता की धारा को प्रवाहित किया था, उसी तरह रायप्रोलु सुब्बा राव और अब्बूरि रामकृष्णराव आदि ने वंग साहित्य से एक उपधारा को लेकर उसमें मिला दिया। रायप्रोल के काव्य संकलन जैसे ललिता, स्वप्न कुमारम्‌, जडकुच्चुलु, तृणकंकणम्‌, कष्ट कमला में तथा अब्बूरि के ऊहागानम और मल्लिकांबा आदि काव्यों में रवीन्द्रनाथ का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। परवर्ती काल के अग्र श्रेणी कवि कृष्ण शास्त्री के ऊर्वशी, प्रवासम्‌ कृष्णपक्षम्‌ में तथा मल्लवरपु विश्वेश्वर राव के ‘मधुकीला’ में रवीन्द्रनाथ की कविताआें का बहुत ब़डा प्रभाव दिखायी देता है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय तेलुगु में राष्ट्रीय कविताआेंं के प्रकाश में आने से रवींद्रनाथ के गीतों ने ब़डा योगदान दिया। राष्ट्रीय कविताआें के अतिरिक्त तेलुगु में स्मृति काव्य रचना परंपरा के पीछे ‘स्मरण’ नाम से प्रकाशित रवि बाबू के दो स्मृति गीत प्रेरक रहे हैं। बंगला साहित्य से प्रेरणा पाकर तेलुगु में साहित्य सृजन होता ही रहा। इस सृजन में बंग देश से संबंधित काव्य वस्तु को भी कवियों ने स्वीकार किया। नदी को काव्य नायिका बनाना काव्य जगत में एक नया प्रयोग है। तेलुगु में विश्वनाथ सत्यनारायण के ‘किन्नेरसानी पाटा’ में नदी ‘किन्नेरसानी’ विद्वान विश्वम के पेन्नेटिपाटा काव्यों में ‘पेन्ना नदी’ नायिका के रूप में चित्रित हैं। बंगला कवि जीवनानंद दास के काव्य नायिका धान सिरी नदी से तेलुगु कवियों ने प्रेरणा ली है।
भाव कविता के बाद हिंदी के प्रगतिवाद के समानांतर अभ्युदय कविता के नाम से जो काव्य धारा तेलुगु में आयी है, उसमें भी हम बंगला के प्रभाव को पाते हैं। हरेंद्रनाथ छटोपाध्याय के गीतों का प्रभाव तेलुगु अभ्युदय कविता में देखी जाती है। नजरुल इस्लाम झूरु हा आहे जंग के गीत अमी अल्का अमी शनि, धूमकेतु ज्वाला की पंक्तियों के तर्ज पर श्री श्री की भूतान्नि, यज्ञोपवीतान्नि, वैष्णव गीतान्नि नेनु पंक्तियाँ तथा उनके बहुश्रुत गीत महाप्रस्थानम की पंक्तियां जैसे मरो प्रपंचम्‌ /मरो प्रपंचम/मरो प्रपंचम/पिलसिंदि/पदंडि मुंदुकु/ पदंडि मुंदुक/ पदंडि त्रोसुकु/ पोदाम, पोदाम, पै पै कि नजरुल इस्लाम की इन पंक्तियों की याद दिलाती हैचल, चल, चल, उद्य गगने, बाजे मादल, निम्ने/उतल धरती तल अरुण सातरे तरुण धतीत/चल रेह चल रे चल।’
विजयराघव रेड्‌डी
साभार :स्वतंत्र वार्ता ,निज़ामाबाद