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Sunday, February 13, 2011

पुस्तक समीक्षा


    अशोक जमनानी की पुस्तक

  छपाक-छपाक


होशंगाबाद के अशोक जमनानी जिन्हें उनकी कविताओं के साथ ही संस्कृतिकर्म के ज़रिए तो जाना जाता भी है,मगर साथ ही पिछले कुछ सालों में उनके तीन उपन्यास भी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए हैं.उनकी सबसे प्रखर कृति व्यास गादी में उन्होंने आज कल के बाबा-तुम्बाओं की आश्रम बनाओ प्रतियोगिता के सच को अपनी गूंथी हुई शैली में पूरी बेबाकी से लिखा था.मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी के दुष्यंत कुमार सम्मान से पिछले साल ही नवाजे गए जमनानी के अन्य उपन्यासों में बूढी डायरी और को अहम् भी खासे चर्चित रहे.इस बार भाषा के स्तर पर नया प्रयोग का असर देने वाला उपन्यास छपाक-छपाक पाठक के हाथों में आया जनवरी के अंत तक आया.पांच भागों में बंटा हुआ अशोक जमनानी का नया उपन्यास एक सौ साठ पेज है,जिसे एक बार फिर दिल्ली के तेज़ प्रकाशन ने छापा है. मैंने एक ही बैठक में साठ पेज पढ़ते हुए पार कर गया. एक भाग पढ़ा. इसी बीच पांच बार रोया. अशोक भाई को अपनी टिप्पणी देते हुए भी रो पढ़ा.बातों में पता लगा कि अशोक खुद भी लिखते वक्त इस कहानी में घंटों रोए हैं.समाज के जीवंत चित्रण को शब्दों में ढालता ये उपन्यास बहुत शुरुआत में तो इमोशनल किस्म का जान पड़ता है,मगर अंत तक जाते जाते बहुत हद तक पिछड़े परिवारों की मानसिकता की परतें पाठक के सामने खोलता है.इसके केन्द्रीय भाव में समाज के मुख्य हिस्से कहे जाने वाले मगर गुरूजीब्रांड  लोगों के बैनर तले शिष्यों से ली जाने वाली बेगार प्रथा जमी हुई नज़र आई.
भारतीय लोकतंत्र में साक्षरता के आंकड़े भले ही ऊँचे उठ गए हो मगर आज भी संवाद पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि ऐसी कई परम्पराए मौजूद हैं जो पैरों की नीचे की ज़मीन ढहाती लगती है.रचना का मुख्य पात्र नंदी बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से पाठक के मानसपटल पर अपनी तस्वीर बनाता है.शुरुआत से लेकर अंत तक भले आदमी के माफिक अपने दायित्व के इर्दगिर्द चलता है.न बहुत दूर,न ही बहुत सटा हुआ .

अशोक जमना
सामाजिक और धार्मिक जीवन में ऊँचे स्थान पर मानी जाने वाली नर्मदा नदी के साथ ही वहाँ के आलम को इस उपन्यास में प्रयाप्त रूप से मान मिला है.हर थोड़ी देर में नदी के बहाव को देखता हुआ लेखक अपने पात्रों के बहाने असल जीवन दर्शन को कागज़ में छापता है.शाम-सवेरे और सूरज जैसी उपमाओं के ज़रिए भी बहुत गहरी बातें संवादों में रूक रूक कर समाहित की गई है.संवादों में बहुत से ऐसे शब्दों का समावेश मिलेगा जो उस इलाके के देशज लगते हैं.समय के साथ अपने में बदलाव करता नंदी उम्र के साथ जिम्मेदारियां ओढ़ता है.मगर आसपास की समस्याएँ उसे हमेशा सालती रहती है.गलत संगत से बिगड़ते स्कूली बच्चों पर केन्द्रित ये उपन्यास बस्ती जैसे हलको की सच बयानी करता है.कथ्य भी मध्य प्रदेश में बहती नर्मदा मैंया के किनारे वाले प्रवाह-सा रूप धरता है.पढ़ते हुए कभी मुझे ये उपन्यास पाठक को सपाट गति  से समझ में आने वाली फिल्म के माफिक भी लगता है.
ये छपाक-छपाक वो आवाजें है जिसमें नंदी ने अपने पिता भोरम,अपनी माँ सोन बाई को खो दिया, ये ही वो छपाक की धम्म है जिसके चलते नंदी को स्कूल छोड़ना पड़ा ,ये ही वो आवाज़ है जहां अपने कुसंस्कारों की औलादें बीयरपार्टी सनी पिकनिक मनाती है,और बहते पानी में अपने मित्र खो देते लोगों की कहानी बनाती  है.ऊँची जात के युवक जब बहते हुए मरने वाले होते हैं तो नीची जात के कुशल तैराक उन्हें बचा लेते हैं.मगर खून तब खोलता है जब उपन्यास में वो ऊँची जात के मरते मरते बचे बेटे वीरेंद्र की माँ तैरने में उस्ताद नंदी की जात पूछकर खीर खिलाने का बरतन डिसाइड करती है.दकियानूसी परिवारों में फंसी सादे घरों की बेटियों की पीड़ा झलकाता देवांगी का चरित्र भी बहुत कम समय उपस्थित रह कर भी प्रमुखता से उभरा है.उपन्यास के बहुत बड़े हिस्से को घेर बैठे दो नबर के धन्धेबाज़ भैया जी और उनके बेटे वीरेंद्र जैसे घाघ किस्म के लोग भी इस दुनिया में बहुतेरे भरे पड़े हैं.ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज भी नंदी जैसे आदिवासी उनके बड़े दरवाजों वाले मकानों के भाव में डूब कर उनके पैर दबा रहे हैं.उपन्यास के अंत में खुद के अंत के साथ ही बाज़ आने वाला तंतर-मंतर का पोटला वो पड़िहार भी घाघ ही था.इस रचना में जहां पापी लोग भरे हैं वहीं ठीक दिल के पत्र भी हिस्सा रहे हैं.
मानवीय मूल्यों की बात करें तो सभी बातों और विचारों के बीच सोन बाई,बघनखा और भोरम के मरने पर नंदी के मन का दु:ख समझने वाले पंचा काका और बचपने की मित्र महुआ जैसे लोग कम ही सही मगर आज भी हमारे इस परिदृश्य में बचे हैं.माँ नहीं होकर भी सुखो काकी ने नंदी पर अपना वात्सल्य ऊंडेल दिया.ये भाव अब भी देहात में सरस है.वीरेंद्र ने नंदी को पुलिस से बचाने के हित अपने पिता तक से दुश्मनी कर ली.नंदी को जेल से छुडाने में गिरवी रखे खेतों पर सेठजी की खराब नज़र भी अंत तक जाते जाते भली बन पड़ी. सच ही है कि मानव-मूल्यों की याद आदमी को धीरे ही आए मगर अन्तोगत्वा उन्ही की शरण से मुक्ति संभव लगती है.वैसे भी अच्छे दिल के लोग भगवान् जल्दी ही ऊपर बुला ले रहा है,वहीं बाकी की कसर तेजी से बदलते ज़माने की इस रफ़्तार में मानव मूल्यों की चटनी बनाकर पूरी कर दी है.यहाँ भी कई भले लोग जल्दी मर गए.कुछ दह तक व्यवसाई अशोक स्पिक मैके नामक सांस्कृतिक आन्दोलन से भी जुड़े होने से अपने बहुत से गुणों के साथ उपन्यास में धुंधले से ही सही मगर दिखते हैं. उपन्यास में उनके कला और धर्म प्रेम की झलक बखूबी दिखती है.अशोक निचले तबके के लोगों के कठोर श्रम प्रधान जीवन से भलीभांती परिचित है.थोड़े-थोड़े दिनों में नर्मदा नदी के किनारे अकले में की गई उनकी लम्बी यात्राएं भी इस रचना से झांकती नज़र आई है.एक नदी के प्रति माँ का सा भाव उनकी अपनी मिट्टी के प्रति समर्पण भाव और स्वयं को उन्ही प्राकृतिक और विरासती पहचानों के हित घुला देने की उनकी प्रवृति को सलाम करता हूँ.उनकी पिछली रचनाओं की अपेक्षा ये उपन्यास आम पाठकों तक ज्य़ादा अच्छे से पहुँच बनाने में सफल हो पाएगी,ऐसा मेरा मानना है.
उपन्यास में आए पात्रों के नाम भी पूरे रूप में आदिवासी पहचान लिए हुए है.नदी,जंगल,बस्ती के इर्दगिर्द जंगली पेड़ों के नाम और वहां का अछूता जीवन आज भी शहरों की आधुनिकता के आगे थूंकता है.आज भी ऐसे गाँव हैं जहां अपने रोजी के रूप में लोग नदी में धर्म के नाम पर डाले सिक्के खंगालते हैं.आज भी अपने किसी काम के बाकी रहते लोग मर जाने पर मुक्ति के लिए भटकते रहते हैं.इसके उलट समाज की बहुत सी बीमारियाँ आज भी दबे कुचले गांवों में जड़ें पकड़ी हुई है.ये एक रूप है तो दूजा नंदी के प्यार में उसकी हर पीड़ा को समझने वाली महुआ नायिका के रूप में अपने थोड़े मगर सुगठित संवादों के साथ उभरी है.परेशानियों के हालात में नन्दी को गांवों में मिलने वाली सहज स्नेह दृष्टी के साथ कई सारे कड़ुए घुट भी पीने पड़े,जो यथासमय बदलते गांवों की कहानी कहते प्रतीत होते हैं.समग्र रूप से छपाक-छपाक जैसा उपन्यास एक बार फिर पाठकों को सोचने के हित कई सारे मुद्दे छोड़े जा रहा है जो आज फिर से हमारी आर्थिक और वैचारिक गुलामी का द्योतक साबित हुआ है.ये रचना पढ़ने के बाद एक बार फिर लगा कि पुलिस तंत्र सहित सेठ-साहूकारों,वकीलों,डॉक्टरों,और गुरुजनों तक के सहयोग से भ्रटाचार की दीमक खुल्लेआम फ़ैली है.आज भी देहाती इलाकों में हॉस्पिटल जैसी चिड़ियाँ मिलना मुश्किल है और मज़बूरन आदमी जादू-टोने के भरोसे ही सांस लेते हैं.एक बार फिर सच तो यही लगने लगा है कि जुग्गियों और बस्तियों की ज़िंदगी में पास बहते नदी-नाले  के पानी में थप-थप करने और कूदने पर छपाक-छपाक आवाजें आने मात्र ही उनके मनोरंजन के साधन बनकर उन्हें खुशियाँ देते हैं,और ये ही वो जगह है जहां वे अपना दु:ख साझा कर सकते हैं.वाकई ये उपन्यास वर्तमान को उकेरता है,तो बहुत दूर तक पढ़ा जाएगा.
समीक्षा :मणिकान्त