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Wednesday, July 27, 2011


प्रेमचंद के अमर पात्र ने मूंद ली आंखें

वाराणसी में  पाण्डेयपुर स्थित नयी बस्ती की कुम्हार पट्टी में सोमवार की सुबह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी मैकू के नायक मैकू ने अंतिम सांस ली। वह करीब 104 साल के थे। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम तो करीब दो साल ही किया किंतु इसी दौरान उनकी एक चर्चित कहानी का नायक बनने का मौका पाने वाले सौभाग्यशाली बन गये। मुंशी जी के निधन के बाद करीब तीन दशक तक मैकू ने इलाहाबाद स्थानांतरित हो चुके सरस्वती प्रेस और हंस प्रकाशन में काम किया। इसके बाद वह पाण्डेयपुर में अपने चार बेटों के संयुक्त परिवार के साथ रह रहे थे। बेटों का परिवार अपने पारंपरिक धंधे में है। सभी मिट्टी के कुल्हड़ और घड़ा आदि बनाने के काम करते हैं। उनके बड़े बेटे का निधन हो चुका है। मैकू के पुत्र कैलाश प्रजापति ने बताया कि वह लंबे समय से देख पाने में असमर्थ थे किंतु हमेशा मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताते रहते थे। उन्हें उनकी अधिकतर कहानियां याद थीं। मैकू की प्रेमचंद से पहली मुलाकात 1934 में लमही गांव में तब हुई थी जब वह बेरोजगार युवक थे और उसी गांव में स्थित अपनी बहन की ससुराल गये थे। प्रेमचंद ने उन्हें अपने छापेखाने में काम दिया था। पाण्डेयपुर से रामकटोरा डयूटी करने आने के क्रम में ही एक बार मैकू का चौकाघाट स्थित ताड़ीखाने के पास एक नशेड़ी से झगड़ा हो गया। लठैत मैकू ने उसे धूल चटा दी। छापेखाने में आकर उन्होंने प्रेमचंद से इसकी चर्चा की। इसके कुछ समय बाद अचानक उन्हें हंस पत्रिका में अपने नाम के ही शीर्षक वाली मैकू कहानी दिख गयी। यह नशा-मुक्ति पर लिखी प्रेमचंद की एक अमर कथा-कृति है।

 मैकू  (मूल कहानी)

कादिर और मैकू ताड़ीखाने के सामने पहूँचे;तो वहॉँ कॉँग्रेस के वालंटियर झंडा लिए खड़े नजर आये। दरवाजे के इधर-उधर हजारों दर्शक खड़े थे। शाम का वक्त था। इस वक्त गली में पियक्कड़ों के सिवा और कोई न आता था। भले आदमी इधर से निकलते झिझकते। पियक्कड़ों की छोटी-छोटी टोलियॉँ आती-जाती रहती थीं। दो-चार वेश्याऍं दूकान के सामने खड़ी नजर आती थीं। आज यह भीड़-भाड़ देख कर मैकू ने कहाबड़ी भीड़ है बे, कोई दो-तीन सौ आदमी होंगे।
कादिर ने मुस्करा कर कहाभीड़ देख कर डर गये क्या? यह सब हुर्र हो जायँगे, एक भी न टिकेगा। यह लोग तमाशा देखने आये हैं, लाठियॉँ खाने नहीं आये हैं।
मैकू ने संदेह के स्वर में कहापुलिस के सिपाही भी बैठे हैं। ठीकेदार ने तो कहा था, पुलिस न बोलेगी।
कादिरहॉँ बे , पुलिस न बोलेगी, तेरी नानी क्यों मरी जा रही है । पुलिस वहॉँ बोलती है, जहॉँ चार पैसे मिलते है या जहॉँ कोई औरत का मामला होता है। ऐसी बेफजूल बातों में पुलिस नहीं पड़ती। पुलिस तो और शह दे रही है। ठीकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं। पुलिस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी?
मैकूचलो, आज दस हमारे भी सीधे हुए। मुफ्त में पियेंगे वह अलग, मगर हम सुनते हैं, कॉँग्रेसवालों में बड़े-बड़े मालदार लोग शरीक है। वह कहीं हम लोगों से कसर निकालें तो बुरा होगा।
कादिरअबे, कोई कसर-वसर नहीं निकालेगा, तेरी जान क्यों निकल रही है? कॉँग्रेसवाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले। नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीट कर रख देते। चार तो वही ठंडे हो गये थे, मगर एक ने हाथ नहीं उठाया। इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फकीर है ! उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो।
यों बातें करते-करते दोनों ताड़ीखाने के द्वार पर पहुँच गये। एक स्वयंसेवक हाथ जोड़कर सामने आ गया और बोला भाई साहब, आपके मजहब में ताड़ी हराम है।
मैकू ने बात का जवाब चॉँटे से दिया । ऐसा तमाचा मारा कि स्वयंसेवक की ऑंखों में  खून आ गया। ऐसा मालूम होता था, गिरा चाहता है। दूसरे स्वयंसेवक ने दौड़कर उसे सँभाला। पॉँचों उँगलियो का रक्तमय प्रतिबिम्ब झलक रहा था।
मगर वालंटियर तमाचा खाकर भी अपने स्थान पर खड़ा रहा। मैकू ने कहाअब हटता है कि और लेगा?
स्वयंसेवक ने नम्रता से कहाअगर आपकी यही इच्छा है, तो सिर सामने किये हुए हूँ। जितना चाहिए, मार लीजिए। मगर अंदर न जाइए।
यह कहता हुआ वह मैकू के सामने बैठ गया ।
मैकू ने स्वयंसेवक के चेहरे पर निगाह डाली। उसकी पॉचों उँगलियों के निशान झलक रहे थे। मैकू ने इसके पहले अपनी लाठी से टूटे हुए कितने ही सिर देखे थे, पर आज की-सी ग्लानी उसे कभी न हुई थी। वह पाँचों उँगलियों के निशान किसी पंचशूल की  भॉति उसके ह्रदय में चुभ रहे थे।
कादिर चौकीदारों के पास खड़ा सिगरेट पीने लगा। वहीं खड़े-खड़े बोलाअब, खड़ा क्या देखता है, लगा कसके एक हाथ।
मैकू ने स्वयंसेवक से कहातुम उठ जाओ, मुझे अन्दर जाने दो।
आप मेरी छाती पर पॉँव रख कर चले जा सकते हैं।
मैं कहता हूँ, उठ जाओ, मै अन्दर ताड़ी न पीउँगा , एक दूसरा ही काम है।
उसने यह बात कुछ इस दृढ़ता से कही कि स्वयंसेवक उठकर रास्ते से हट गया। मैकू ने मुस्करा कर उसकी ओर ताका । स्वयंसेवक ने फिर हाथ जोड़कर कहाअपना वादा भूल न जाना।
एक चौकीदार बोलालात के आगे भूत भागता है, एक ही तमाचे में ठीक हो गया !
कादिर ने कहायह तमाचा बच्चा को जन्म-भर याद रहेगा। मैकू के तमाचे सह लेना मामूली काम नहीं है।
चौकीदारआज ऐसा ठोंको इन सबों को कि फिर इधर आने को नाम न लें ।
कादिरखुदा ने चाहा, तो फिर इधर आयेंगे भी नहीं। मगर हैं सब बड़े हिम्मती। जान को हथेली पर लिए फिरते हैं।
मैकू भीतर पहुँचा, तो ठीकेदार ने स्वागत किया आओ मैकू मियॉँ ! एक ही तमाचा लगा कर क्यो रह गये? एक तमाचे का भला इन पर क्या असर होगा? बड़े लतखोर हैं सब। कितना ही पीटो, असर ही नहीं होता। बस आज सबों के हाथ-पॉँव तोड़ दो; फिर इधर न आयें ।
मैकूतो क्या और न आयेंगें?
ठीकेदारफिर आते सबों की नानी मरेगी।
मैकूऔर जो कहीं इन तमाशा देखनेवालों ने मेरे ऊपर डंडे चलाये तो!
ठीकेदारतो पुलिस उनको मार भगायेगी। एक झड़प में मैदान साफ हो जाएगा। लो, जब तक एकाध बोतल पी लो। मैं तो आज मुफ्त की पिला रहा हूँ।
मैकूक्या इन ग्राहकों को भी मुफ्त ?
ठीकेदार क्या करता , कोई आता ही न था। सुना कि मुफ्त मिलेगी तो सब धँस पड़े।
मैकूमैं तो आज न पीऊँगा।
ठीकेदारक्यों? तुम्हारे लिए तो आज ताजी ताड़ी मँगवायी है।
मैकूयों ही , आज पीने की इच्छा नहीं है। लाओ, कोई लकड़ी निकालो, हाथ से मारते नहीं बनता ।
ठीकेदार ने लपक कर एक मोटा सोंटा मैकू के हाथ में दे दिया, और डंडेबाजी का तमाशा देखने के लिए द्वार पर खड़ा हो गया ।
मैकू ने एक क्षण डंडे को तौला, तब उछलकर ठीकेदार को ऐसा डंडा रसीद किया कि वहीं दोहरा होकर द्वार में गिर पड़ा। इसके बाद मैकू ने पियक्कड़ों की ओर रुख किया और लगा डंडों की वर्षा करने। न आगे देखता था, पीछे, बस डंडे चलाये जाता था।
ताड़ीबाजों के नशे हिरन हुए । घबड़ा-घबड़ा कर भागने लगे, पर किवाड़ों के बीच में ठीकेदार की देह बिंधी पड़ी थी। उधर से फिर भीतर की ओर लपके। मैकू ने फिर डंडों से आवाहन किया । आखिर सब ठीकेदार की देह को रौद-रौद कर भागे। किसी का हाथ टूटा, किसी का सिर फूटा, किसी की कमर टूटी। ऐसी भगदड़ मची कि एक मिनट के  अन्दर ताड़ीखाने में एक चिड़िये का पूत भी न रह गया।
एकाएक मटकों के टूटने की आवाज आयी। स्वयंसेवक ने भीतर झाँक कर देखा, तो मैकू मटकों को विध्वंस करने में जुटा हुआ था। बोलाभाई साहब, अजी भाई साहब, यह आप गजब कर रहे हैं। इससे तो कहीं अच्छा कि आपने हमारे ही ऊपर अपना गुस्सा उतारा होता।
मैंकू ने दो-तीन हाथ चलाकर बाकी बची हुई बोतलों और मटकों का सफाया कर दिया और तब चलते-चलते ठीकेदार को एक लात जमा कर बाहर निकल आया।
कादिर ने उसको रोक कर पूछा तू पागल तो नहीं हो गया है बे?
क्या करने आया था, और क्या कर रहा है।
मैकू ने लाल-लाल ऑंखों से उसकी ओर देख कर कहहॉँ अल्लाह का शुक्र है कि मैं जो करने आया था, वह न करके कुछ और ही कर बैठा। तुममें कूवत हो, तो वालंटरों को मारो, मुझमें कूवत नहीं है। मैंने तो जो एक थप्पड़ लगाया। उसका रंज अभी तक है और हमेशा रहेगा ! तमाचे के निशान मेरे कलेजे पर बन गये हैं। जो लोग दूसरों को गुनाह से बचाने के लिए अपनी जान देने को खड़े हैं, उन पर वही हाथ उठायेगा, जो पाजी है, कमीना है, नामर्द है। मैकू फिसादी है, लठैत ,गुंडा है, पर कमीना और नामर्द नहीं हैं। कह दो पुलिसवालों से , चाहें तो मुझे गिरफ्तार कर लें।
कई ताड़ीबाज खड़े सिर सहलाते हुए, उसकी ओर सहमी हुई ऑंखो से ताक रहै थे। कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ती थी। मैकू ने  उनकी ओर देख कर कहामैं कल फिर आऊँगा। अगर तुममें से किसी को यहॉँ देखा तो खून ही पी जाऊँगा ! जेल और फॉँसी से नहीं डरता। तुम्हारी भलमनसी इसी में है कि अब भूल कर भी इधर न आना । यह कॉँग्रेसवाले तुम्हारे दुश्मन नहीं है। तुम्हारे और तुम्हारे बाल-बच्चों की भलाई के लिए ही तुम्हें पीने से रोकते हैं। इन पैसों से अपने बाल-बच्चो की परवरिश करो, घी-दूध खाओ। घर में तो फाके हो रहै हैं, घरवाली तुम्हारे नाम को रो रही है, और तुम यहॉँ बैठे पी रहै हो? लानत है इस  नशेबाजी पर ।  मैकू ने वहीं डंडा फेंक दिया और कदम बढ़ाता हुआ घर चला। इस वक्त तक हजारों आदमियों का हुजूम हो गया था। सभी श्रद्धा, प्रेम और गर्व की ऑंखो से मैकू को देख रहे थे।
(वाराणसी से रजनीश त्रिपाठी क़ी रपट )

Thursday, July 7, 2011

           जर्मन रेडियो डायचे वेले : खामोश
       हुई हिंदी की एक और आवाज

इस महीने की पहली तारीख से बेहद गुमनाम तरीके से विदेशों में हिंदी की एक और आवाज खामोश हो गई. यह आवाज थी जर्मन रेडियो डायचे वेले की हिंदी सेवा की. 15 अगस्त 1964 को शुरू हुई यह सेवा बरसों से ठिठक-थमक कर चलते हुए आखिर पहली जुलाई को हमेशा के लिए बंद हो गई. लेकिन बीबीसी की तरह इसके बंद होने पर कोई शोर-शराबा तो दूर, अब तक बहुतों को इसके बंद होने तक की जानकारी नहीं है.

वैसे, इसके अंत की शुरुआत तो बीते साल अक्तूबर में उसी समय हो गई थी जब प्रबंधन ने शार्टवेब पर हिंदी रेडियो बंद करने का फैसला किया था. लेकिन तब यह तय हुआ था कि रोजाना समाचार और फीचर को मिला कर पंद्रह मिनट के कार्यक्रम इंटरनेट रेडियो पर उपलब्ध रहेंगे और हिंदी की वेबसाइट को और समृद्ध किया जाएगा. लेकिन प्रबंधन ने व्वायस आफ अमेरिका और फिर बीबीसी हिंदी की तर्ज पर इससे भी पल्ला झाड़ने का फैसला कर लिया. डायचे वेले ने 15 अगस्त, 1964 को हिंदी कार्यक्रम की शुरुआत की थी. भारत के बाहर यह अकेला ऐसा रेडियो स्टेशन था जहां से संस्कृत में भी कार्यक्रम प्रसारित किए गए. महज 15 मिनट के कार्यक्रम से शुरू हुई हिंदी सेवा बाद में दिन में दो बार 30-30 मिनट के दो कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगी.
डायचे वेले का मुख्यालय जर्मनी के कोलोन से बान स्थानांतरित होने के बाद इसकी वेबसाइट भी शुरू की गई. तब इस सेवा की बेहतरी की उम्मीद जगी थी. जाने-माने प्रसारक राम यादव शुरू से ही इस रेडियो का चेहरा बने हुए थे. यह रेडियो सेवा बीबीसी की तरह लोकप्रिय कभी नहीं रही. लेकिन अब जब इसकी लोकप्रियता का ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ने लगा, प्रबंधन इसमें कतरब्योंत करने लगा. बीते साल पहले हिंदी कार्यक्रम के सुबह का प्रसारण बंद किया गया और फिर अक्तूबर में शाम का भी बंद हो गया. तब प्रबंधन की ओर से कहा गया कि बेवसाइट को मजबूत किया जाएगा. लेकिन अब उसका भविष्य भी अधर में है. हालात बिगड़ते देख कर राम यादव को बीते साल समय से पहले ही रिटायर हो गए. एक और पुराने साथी उज्ज्‍वल भट्टाचार्य भी पहली जुलाई से रिटायर हो गए. अब वहां सात स्थाई कर्मचारी बचे हैं. प्रबंधन उनमें से आधे से पल्ला झाड़ने की तैयारी में है. रात की पाली बंद हो चुकी है.
दरअसल, इस मामले में विदेशी प्रसारकों को राह दिखाई अमेरिका ने. उसके बाद बीबीसी भी इसी राह पर चल पड़ा. और अब जर्मनी भी उसी की नकल कर रहा है. विडंबना यह है कि जर्मन चांसलर एंजेसा मर्केल हाल में भारत यात्रा पर आई थी. उन्होंने दोनों देशों के आपसी संबंधों को मजबूत करने पर जोर दिया था. यह साल भारत-जर्मन मैत्री वर्ष के तौर पर मनाया जा रहा है. लेकिन जर्मन सरकार की सहायता से चलने वाली डायचे वेले की हिंदी सेवा इसी महीने असमय ही काल के गाल में समा गई. ऊर्दू और बांग्ला सेवाएं तो जस की तस चल रही हैं. लेकिन हिंदी बंद है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बांग्ला रेडियो के श्रोता हिंदी से ज्यादा हैं? लेकिन प्रबंधन को इस या ऐसे सवालों के जवाब तलाशने में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब अचानक हुए इस फैसले से कई उभरते प्रतिभावान पत्रकारों का करियर मझधार में है. एक युवा पत्रकार को तो अमेरिका से एमबीए करने के लिए स्कालरशिप मिल गई है. लेकिन बाकियों का क्या होगा. करियर के बीच में अचानक जर्मनी से भारत आकर नए सिरे से नौकरी की तलाश बेहद कठिन है.
वैसे भी हिंदी का बाजार भाव ठीक नहीं है. गिने-चुने लोगों को तो संपर्कों व जुगाड़ के बल पर नौकरियां और पैसे ठीक-ठाक मिल जाते हैं. लेकिन बाकी लोग जैसे-तैसे ही काम चलाते रहते हैं. जर्मनी में तो हिंदी पत्रकारिता के लिए डायचे वेले ही पहला और आखिरी मुकाम था. किसी जमाने में आलोक मेहता और मधुसूदन आनंद जैसे कई दिग्गज संपादक-पत्रकार इस सेवा के लिए काम कर चुके हैं. फिलहाल जो लोग अब बान में हिंदी सेवा की वेबसाइट को चला रहे हैं वे भी असमंजस में हैं. प्रबंधन ने उनको यह तक नहीं बताया है कि उनका भविष्य क्या होगा. यह वेबसाइट भी महज एजेंसी की खबरों के अनुवाद से ही चल रही है. ऐसे में पाठक इसे भला क्यों पढ़ेंगे. तो क्या जर्मनी से हिंदी सेवा का नामोनिशान मिट जाएगा. इस सवाल का जवाब तो शायद प्रबंधकों के पास भी नहीं है. तीस भाषाओं में सेवा चला रहे डायचे वेले प्रबंधन की दुनिया की सबसे बड़ी भाषा हिंदी के प्रति यह सौतेलापन रवैया समझ से बाहर है.
साभार : www.bhadas4media.com