जर्मन रेडियो डायचे वेले : खामोश
हुई हिंदी की एक और आवाज
इस महीने की पहली तारीख से बेहद गुमनाम तरीके से विदेशों में हिंदी की एक और आवाज खामोश हो गई. यह आवाज थी जर्मन रेडियो डायचे वेले की हिंदी सेवा की. 15 अगस्त 1964 को शुरू हुई यह सेवा बरसों से ठिठक-थमक कर चलते हुए आखिर पहली जुलाई को हमेशा के लिए बंद हो गई. लेकिन बीबीसी की तरह इसके बंद होने पर कोई शोर-शराबा तो दूर, अब तक बहुतों को इसके बंद होने तक की जानकारी नहीं है.
वैसे, इसके अंत की शुरुआत तो बीते साल अक्तूबर में उसी समय हो गई थी जब प्रबंधन ने शार्टवेब पर हिंदी रेडियो बंद करने का फैसला किया था. लेकिन तब यह तय हुआ था कि रोजाना समाचार और फीचर को मिला कर पंद्रह मिनट के कार्यक्रम इंटरनेट रेडियो पर उपलब्ध रहेंगे और हिंदी की वेबसाइट को और समृद्ध किया जाएगा. लेकिन प्रबंधन ने व्वायस आफ अमेरिका और फिर बीबीसी हिंदी की तर्ज पर इससे भी पल्ला झाड़ने का फैसला कर लिया. डायचे वेले ने 15 अगस्त, 1964 को हिंदी कार्यक्रम की शुरुआत की थी. भारत के बाहर यह अकेला ऐसा रेडियो स्टेशन था जहां से संस्कृत में भी कार्यक्रम प्रसारित किए गए. महज 15 मिनट के कार्यक्रम से शुरू हुई हिंदी सेवा बाद में दिन में दो बार 30-30 मिनट के दो कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगी.
डायचे वेले का मुख्यालय जर्मनी के कोलोन से बान स्थानांतरित होने के बाद इसकी वेबसाइट भी शुरू की गई. तब इस सेवा की बेहतरी की उम्मीद जगी थी. जाने-माने प्रसारक राम यादव शुरू से ही इस रेडियो का चेहरा बने हुए थे. यह रेडियो सेवा बीबीसी की तरह लोकप्रिय कभी नहीं रही. लेकिन अब जब इसकी लोकप्रियता का ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ने लगा, प्रबंधन इसमें कतरब्योंत करने लगा. बीते साल पहले हिंदी कार्यक्रम के सुबह का प्रसारण बंद किया गया और फिर अक्तूबर में शाम का भी बंद हो गया. तब प्रबंधन की ओर से कहा गया कि बेवसाइट को मजबूत किया जाएगा. लेकिन अब उसका भविष्य भी अधर में है. हालात बिगड़ते देख कर राम यादव को बीते साल समय से पहले ही रिटायर हो गए. एक और पुराने साथी उज्ज्वल भट्टाचार्य भी पहली जुलाई से रिटायर हो गए. अब वहां सात स्थाई कर्मचारी बचे हैं. प्रबंधन उनमें से आधे से पल्ला झाड़ने की तैयारी में है. रात की पाली बंद हो चुकी है.
दरअसल, इस मामले में विदेशी प्रसारकों को राह दिखाई अमेरिका ने. उसके बाद बीबीसी भी इसी राह पर चल पड़ा. और अब जर्मनी भी उसी की नकल कर रहा है. विडंबना यह है कि जर्मन चांसलर एंजेसा मर्केल हाल में भारत यात्रा पर आई थी. उन्होंने दोनों देशों के आपसी संबंधों को मजबूत करने पर जोर दिया था. यह साल भारत-जर्मन मैत्री वर्ष के तौर पर मनाया जा रहा है. लेकिन जर्मन सरकार की सहायता से चलने वाली डायचे वेले की हिंदी सेवा इसी महीने असमय ही काल के गाल में समा गई. ऊर्दू और बांग्ला सेवाएं तो जस की तस चल रही हैं. लेकिन हिंदी बंद है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बांग्ला रेडियो के श्रोता हिंदी से ज्यादा हैं? लेकिन प्रबंधन को इस या ऐसे सवालों के जवाब तलाशने में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब अचानक हुए इस फैसले से कई उभरते प्रतिभावान पत्रकारों का करियर मझधार में है. एक युवा पत्रकार को तो अमेरिका से एमबीए करने के लिए स्कालरशिप मिल गई है. लेकिन बाकियों का क्या होगा. करियर के बीच में अचानक जर्मनी से भारत आकर नए सिरे से नौकरी की तलाश बेहद कठिन है.
वैसे भी हिंदी का बाजार भाव ठीक नहीं है. गिने-चुने लोगों को तो संपर्कों व जुगाड़ के बल पर नौकरियां और पैसे ठीक-ठाक मिल जाते हैं. लेकिन बाकी लोग जैसे-तैसे ही काम चलाते रहते हैं. जर्मनी में तो हिंदी पत्रकारिता के लिए डायचे वेले ही पहला और आखिरी मुकाम था. किसी जमाने में आलोक मेहता और मधुसूदन आनंद जैसे कई दिग्गज संपादक-पत्रकार इस सेवा के लिए काम कर चुके हैं. फिलहाल जो लोग अब बान में हिंदी सेवा की वेबसाइट को चला रहे हैं वे भी असमंजस में हैं. प्रबंधन ने उनको यह तक नहीं बताया है कि उनका भविष्य क्या होगा. यह वेबसाइट भी महज एजेंसी की खबरों के अनुवाद से ही चल रही है. ऐसे में पाठक इसे भला क्यों पढ़ेंगे. तो क्या जर्मनी से हिंदी सेवा का नामोनिशान मिट जाएगा. इस सवाल का जवाब तो शायद प्रबंधकों के पास भी नहीं है. तीस भाषाओं में सेवा चला रहे डायचे वेले प्रबंधन की दुनिया की सबसे बड़ी भाषा हिंदी के प्रति यह सौतेलापन रवैया समझ से बाहर है.
साभार : www.bhadas4media.com
हुई हिंदी की एक और आवाज
इस महीने की पहली तारीख से बेहद गुमनाम तरीके से विदेशों में हिंदी की एक और आवाज खामोश हो गई. यह आवाज थी जर्मन रेडियो डायचे वेले की हिंदी सेवा की. 15 अगस्त 1964 को शुरू हुई यह सेवा बरसों से ठिठक-थमक कर चलते हुए आखिर पहली जुलाई को हमेशा के लिए बंद हो गई. लेकिन बीबीसी की तरह इसके बंद होने पर कोई शोर-शराबा तो दूर, अब तक बहुतों को इसके बंद होने तक की जानकारी नहीं है.
वैसे, इसके अंत की शुरुआत तो बीते साल अक्तूबर में उसी समय हो गई थी जब प्रबंधन ने शार्टवेब पर हिंदी रेडियो बंद करने का फैसला किया था. लेकिन तब यह तय हुआ था कि रोजाना समाचार और फीचर को मिला कर पंद्रह मिनट के कार्यक्रम इंटरनेट रेडियो पर उपलब्ध रहेंगे और हिंदी की वेबसाइट को और समृद्ध किया जाएगा. लेकिन प्रबंधन ने व्वायस आफ अमेरिका और फिर बीबीसी हिंदी की तर्ज पर इससे भी पल्ला झाड़ने का फैसला कर लिया. डायचे वेले ने 15 अगस्त, 1964 को हिंदी कार्यक्रम की शुरुआत की थी. भारत के बाहर यह अकेला ऐसा रेडियो स्टेशन था जहां से संस्कृत में भी कार्यक्रम प्रसारित किए गए. महज 15 मिनट के कार्यक्रम से शुरू हुई हिंदी सेवा बाद में दिन में दो बार 30-30 मिनट के दो कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगी.
डायचे वेले का मुख्यालय जर्मनी के कोलोन से बान स्थानांतरित होने के बाद इसकी वेबसाइट भी शुरू की गई. तब इस सेवा की बेहतरी की उम्मीद जगी थी. जाने-माने प्रसारक राम यादव शुरू से ही इस रेडियो का चेहरा बने हुए थे. यह रेडियो सेवा बीबीसी की तरह लोकप्रिय कभी नहीं रही. लेकिन अब जब इसकी लोकप्रियता का ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ने लगा, प्रबंधन इसमें कतरब्योंत करने लगा. बीते साल पहले हिंदी कार्यक्रम के सुबह का प्रसारण बंद किया गया और फिर अक्तूबर में शाम का भी बंद हो गया. तब प्रबंधन की ओर से कहा गया कि बेवसाइट को मजबूत किया जाएगा. लेकिन अब उसका भविष्य भी अधर में है. हालात बिगड़ते देख कर राम यादव को बीते साल समय से पहले ही रिटायर हो गए. एक और पुराने साथी उज्ज्वल भट्टाचार्य भी पहली जुलाई से रिटायर हो गए. अब वहां सात स्थाई कर्मचारी बचे हैं. प्रबंधन उनमें से आधे से पल्ला झाड़ने की तैयारी में है. रात की पाली बंद हो चुकी है.
दरअसल, इस मामले में विदेशी प्रसारकों को राह दिखाई अमेरिका ने. उसके बाद बीबीसी भी इसी राह पर चल पड़ा. और अब जर्मनी भी उसी की नकल कर रहा है. विडंबना यह है कि जर्मन चांसलर एंजेसा मर्केल हाल में भारत यात्रा पर आई थी. उन्होंने दोनों देशों के आपसी संबंधों को मजबूत करने पर जोर दिया था. यह साल भारत-जर्मन मैत्री वर्ष के तौर पर मनाया जा रहा है. लेकिन जर्मन सरकार की सहायता से चलने वाली डायचे वेले की हिंदी सेवा इसी महीने असमय ही काल के गाल में समा गई. ऊर्दू और बांग्ला सेवाएं तो जस की तस चल रही हैं. लेकिन हिंदी बंद है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बांग्ला रेडियो के श्रोता हिंदी से ज्यादा हैं? लेकिन प्रबंधन को इस या ऐसे सवालों के जवाब तलाशने में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब अचानक हुए इस फैसले से कई उभरते प्रतिभावान पत्रकारों का करियर मझधार में है. एक युवा पत्रकार को तो अमेरिका से एमबीए करने के लिए स्कालरशिप मिल गई है. लेकिन बाकियों का क्या होगा. करियर के बीच में अचानक जर्मनी से भारत आकर नए सिरे से नौकरी की तलाश बेहद कठिन है.
वैसे भी हिंदी का बाजार भाव ठीक नहीं है. गिने-चुने लोगों को तो संपर्कों व जुगाड़ के बल पर नौकरियां और पैसे ठीक-ठाक मिल जाते हैं. लेकिन बाकी लोग जैसे-तैसे ही काम चलाते रहते हैं. जर्मनी में तो हिंदी पत्रकारिता के लिए डायचे वेले ही पहला और आखिरी मुकाम था. किसी जमाने में आलोक मेहता और मधुसूदन आनंद जैसे कई दिग्गज संपादक-पत्रकार इस सेवा के लिए काम कर चुके हैं. फिलहाल जो लोग अब बान में हिंदी सेवा की वेबसाइट को चला रहे हैं वे भी असमंजस में हैं. प्रबंधन ने उनको यह तक नहीं बताया है कि उनका भविष्य क्या होगा. यह वेबसाइट भी महज एजेंसी की खबरों के अनुवाद से ही चल रही है. ऐसे में पाठक इसे भला क्यों पढ़ेंगे. तो क्या जर्मनी से हिंदी सेवा का नामोनिशान मिट जाएगा. इस सवाल का जवाब तो शायद प्रबंधकों के पास भी नहीं है. तीस भाषाओं में सेवा चला रहे डायचे वेले प्रबंधन की दुनिया की सबसे बड़ी भाषा हिंदी के प्रति यह सौतेलापन रवैया समझ से बाहर है.
साभार : www.bhadas4media.com
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