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Sunday, December 26, 2010

'हिंदी भाषा' अपनो में ही पराई
  • भारत को मुख्यता हिंदी भाषी माना गया है। हिंदी भाषा का उद्गम केन्द्र संस्कृत भाषा है। लेकिन समय के साथ संस्कृत भाषा का लगभग लोप होता जा रहा है। यही हाल हिंदी भाषा का भी हो सकता है, अगर इसके लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किए गए तो। भारतीय संविधान के तहत सभी सरकारी और गैर सरकारी दफ्तरों में हिंदी में कार्य करना अनिवार्य माना गया है। लेकिन शायद ही कहीं हिंदी भाषा का प्रयोग दफ्तर के कायों में होता हो। हर क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का बोलबाला है। किसी को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं तो उसको नौकरी मिलना मुश्किल होता है। जबकि यह गलत कृत्य है सरासर भारतीय संविधान की अवहेलना है। सच पूछिए तो भारतीय संस्कृति की यह धरोहर संकट में है और इसके विकास के नाम पर अब केवल पाखंड हो रहा है। जिस हिंदी ने भारतीय हिंदी सिनेमा को अपनी भाषा शैली और संवादों से समृद्धशाली बनाया है उसकी ताकत को ऐसे नज़रअंदाज किया जा रहा है जैसे कि वह उपयोगी नही है बल्कि परित्यक्ता है।
    भारत वर्ष में प्रतिवर्ष हिंदी दिवस 14 सितम्बर को मनाया जाता है। चौदह सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने और हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन सिर्फ भारत में ही 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है, जबकि विश्व हिंदी दिवस प्रतिवर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना और हिंदी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिंदी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं।
    जब भारतवर्ष स्वतंत्र हुआ था तब भारतवासियों ने सोचा होगा कि उनके आजाद देश में उनकी अपनी हिंदी भाषा, अपनी संस्कृति होगी, लेकिन यह क्या हुआ? अंग्रेजों से तो भारतवासी आजाद हो गए, पर अंग्रेजी भाषा ने भारतवासियों को जकड़ लिया। हिंदी के मनीषियों लेखकों और साहित्यकारों ने हिंदी आंदोलन से जो सफलताएं हासिल की है उनमें भारत की आजादी भी प्रमुख है। देश में गैर हिंदी भाषा-भाषियों ने भी हिंदी भाषा को राष्ट्रीय एकता का एक सेतु कहा है। भारत के बाहर आज दुनिया में अमेरिका जैसे देश ने अपने यहां हिंदी के विकास के लिए बजट में भारी धन की व्यवस्‍था की गई है।
    भारतीय संविधान के अनुसार हिंदी भाषी राज्यों को अंग्रेजी की जगह हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गांधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भारत नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिंदी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिंदी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था।
    अंग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या में बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ की प्रमुख भाषा है। लेकिन भारतवासियों को अंग्रेजी का प्रयोग खत्म कर देना चाहिये क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है।अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भारतवर्ष में हिंदी भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक किया जाता है, क्यों? भारतवर्ष हिंदी भाषी राष्ट्र है, उसको हिंदी के प्रचार व प्रसार पर ध्यान देना चाहिये। वैसे इस विषय में हमारे कुछ बुद्धिजीवियों ने गहन विचार-विमर्श कर हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार व प्रयोग इंटरनेट के माध्यम से करना शुरू कर दिया है। हिंदी भाषा का प्रयोग वर्तमान में ब्लाग पर खूब किया जा रहा है। कई वेबसाइट भी हैं जो हिंदी भाषा में हैं। यह एक सार्थक प्रयास है।
    वर्तमान में नई पीढ़ी को बचपन से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेज दिया जाता है, वह बचपन से ही अंग्रेजी भाषा को पढ़ता व लिखता है और उसी भाषा को अपनी मुख्य भाषा समझने लगता है। क्योंकि उसको माहौल ही वैसा मिलता है। इस विषय में हमें विचार करना चाहिये। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलान' कभी संभव हो पाएगा। अंग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिंदी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिंदी में हैं, वह भी अंग्रेजी में हो जाएंगी।
    हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति की धरोहर है जिसे बचाना भारतवासियों का परमकर्तव्य है। ध्यान, योग आसन और आयुर्वेद विषयों के साथ-साथ इनसे संबंधित हिंदी शब्द आदि, ऐसी संस्कृति है, जिसे पाने के लिए हिंदी के रास्ते से ही पहुंचा जा सकता है। भारतीय संगीत चाहे वह शास्त्रीय हो या आधुनिक हस्तकला, भोजन और वस्त्रों की विदेशी मांग जैसी आज है पहले कभी नहीं थी। लगभग हर देश में योग, ध्यान और आयुर्वेद के केन्द्र खुल गए हैं, जो दुनिया भर के लोगों को भारतीय संस्कृति की ओर आकर्षित करते हैं, और हम उसी अनमोल संस्कृति को त्याग दूसरो की संस्कृति में ध्यान आकर्षित करते हैं। जो स्वयं हमारी हिंदी भाषा और संस्कृति से प्रभावित हैं। हम अपनी पहचान क्यों खोना चाहते है? जबकि अन्य भाषाओं से अत्यधिक सर्वोपरि हिंदी है। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार व हिंदी भाषा की प्रगति एवं उत्थान के लिए, इसके प्रयोग को बल देने के लिये कई महापुरुषों ने अपने मत इस प्रकार दिए हैं-
    'कोई भी देश सच्चे अर्थो में तब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता। राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।' महात्मा गांधी
    'यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है तो वह जनता की भाषा में ही चलाना होगा।' काका कालेलकर
    'प्रांतीय ईर्ष्या-द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिंदी प्रचार से मिलेगी, दूसरी किसी चीज से नहीं।' नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
    'राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिंदी ही हो सकती है।' लालबहादुर शास्त्री
    'हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। हिंदी राष्ट्रीयता के मूल को सींचकर दृढ़ करती है।' राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन
    'हम हिंदुस्तानियों का एक ही सूत्र रहे- हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी हमारी लिपि देवनागरी हो।' रेहानी तैयबजी
    'हिंदी से सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।' महर्षि दयानंद सरस्वती
    'यदि हिंदी की उन्नति नहीं होती है तो यह देश का दुर्भाग्य है।' बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
    'राष्ट्र को राष्ट्रध्वज की तरह राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है और वह स्थान हिंदी को प्राप्त है।' अनन्त गोपाल सेवड़े
    'राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं। मेरे विचार में हिंदी ही ऐसी भाषा है।
    ' लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
    'यदि भारतीय लोक कला, संस्कृति और राजनीति में एक रहना चाहते हैं तो उसका माध्यम हिंदी ही हो सकती है।' राजगोपालाचारी
    'राष्ट्रीय मेल और राजनीतिक एकता के लिए सारे देश में हिंदी और नागरी का प्रचार आवश्यक है।'लाला लाजपत राय
    'हिंदी साहित्य चतुष्पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन है इसीलिए जनोपयोगी भी है।' डॉ. भगवान दास
    'निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।' भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
    'हिंदी को देश में परस्पर संपर्क भाषा बनाने का कोई विकल्प नहीं। अंग्रेजी कभी जनभाषा नहीं बन सकती।' मोरारजी देसाई
    'हिंदी प्रेम की भाषा है।' महादेवी वर्मा

    'भारत की अखंडता और व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए हिंदी का प्रचार अत्यन्त आवश्यक है।' महाकवि शंकर कुरूप
          कौशलेंद्र मिश्रा
             स्वतंत्र आवाज़ डाट काम से आभार सहित
          www.swatantraawaz.com

Sunday, December 12, 2010

इंटरनेट पर हिन्दी वालों में भाषायी विभ्रम

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
समझ में नहीं आता कहां से बात शुरू करूँ,शर्म भी आती है और गुस्सा भी आ रहा है। वे चाहते हैं संवाद करना लेकिन जानते ही नहीं हैं कि क्या कर रहे हैं,वे मेरे दोस्त हैं। बुद्धिमान और विद्वान दोस्त हैं। वे तकनीक सक्षम हैं । किसी न किसी हुनर में विशेषज्ञ हैं। उनके पास अभिव्यक्ति के लिए अनगिनत विषय हैं।वे हिन्दी जानते हैं । हिन्दी अधिकांश की आजीविका है। वे कम्प्यूटर भी जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि गूगल में अनुवाद की व्यवस्था है। इसके बाबजूद वे इंटरनेट पर हिन्दी फॉण्ट में नहीं लिखते अपनी अभिव्यक्ति को अंग्रेजी में हिन्दी के जरिए व्यक्त करते हैं। मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं ? लेकिन मैं विनम्रता के साथ हिन्दी भाषी इंटरनेट यूजरों से अपील करना चाहता हूँ कि वे नेट पर हिन्दी में लिखें। इससे नेट पर हिन्दी समृद्ध होगी।नेट पर हिन्दीभाषी जितनी बड़ी मात्रा में रमण कर रहे हैं और वर्चुअल घुमक्कड़ी करते हुए फेसबुक और अन्य रूपों में अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं यह आनंद की चीज है। मैं साफतौर पर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी का अंग्रेजी के जरिए उपयोग उनके लिए तो शोभा देता है जो हिन्दी लिखने में असमर्थ हैं। लेकिन जो हिन्दी लिखने में समर्थ हैं उन्हें हिन्दी फॉण्ट का ही इस्तेमाल करना चाहिए।यूनीकोड फॉण्ट की खूबी है वह यूजर को अंधभाषाभाषी नहीं बनाता। आप ज्योंही यूनीकोड में गए आपको भाषायी फंडामेंटलिज्म से मुक्ति मिल जाती है। हिन्दी के बुद्धिजीवी, फिल्म अभिनेता-अभिनेत्री,साहित्यकार और पत्रकार नेट पर हिन्दी में ही लिखें तो इससे हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय ताकत बढ़ेगी।अंग्रेजी में हिन्दी लिखने वाले नेट यूजर यह क्यों सोचते कि उन्हें जो हिन्दी में नहीं पढ़ सकता वह गूगल से अनुवाद कर लेगा। आप ईमेल हिन्दी में लिखें,फेसबुक पर हिन्दी में लिखें,ब्लॉग पर हिन्दी में लिखें।यूनीकोड फॉण्ट लोकतांत्रिक है। यह सहिष्णु बनाता है। मित्र बनाता है। दूरियां कम करता है। संपर्क-संबंध को सहज बनाता है। इस फॉण्ट के इस्तेमाल का अर्थ है कि आप अपनी अभिव्यक्ति को विश्व भाषा संसार के हवाले कर रहे हैं। यूनीकोड फॉण्ट मित्र फॉण्ट है आप कृपया इसका इस्तेमाल करके तो देखें आपकी अभिव्यक्ति की दुनिया बदल जाएगी।दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भाषा को तकनीक के सहारे नहीं बचा सकते। कुछ लोग सोचते हैं कि भाषा को गूगल के अनुवाद के सहारे हम बचा लेंगे तो वे गलत सोचते हैं। भाषा को सीखकर और लिखकर ही बचा सकते हैं। भाषा अनुवाद की चीज नहीं है। अनुवाद से भाषा नहीं बचती।मुझे यह खतरा महसूस हो रहा है कि हिन्दी का नेट यूजर यदि हिन्दी में लिखना नहीं सीखता या उसका व्यवहार नहीं करता तो एक समय के बाद हिन्दी को पढ़ाने वाले भी नहीं मिलेंगे। हिन्दी हमारी भाषा है और यह गर्व की बात है कि हम हिन्दी में लिखते हैं। हमारी अंग्रेजियत हिन्दी के प्रयोग से कम नहीं हो जाती। अंग्रेजियत में जीने वाले लोग अंग्रेजी में लिखें लेकिन कृपा करके हिन्दी को अंग्रेजी में न लिखें। यह भाषा का अपमान है। उसकी अक्षमता की तरफ इशारा है। नेट पर हिन्दी तब तक अक्षम थी जब तक हिन्दी का यूनीकोड फॉण्ट नहीं था लेकिन आज ऐसा नहीं है। यूजर जब अपनी स्वाभाविक भाषा,परिवेश की भाषा का प्रयोग भ्रष्ट ढ़ंग से करता है तो अपने भाषायी विभ्रम को प्रस्तुत करता है। अंग्रेजी में हिन्दी लिखना भाषायी विभ्रम है। भाषायी विभ्रम निजी अस्मिता की मौत है। हम गंभीरता से सोचें कि हम भाषायी विभ्रम के सहारे क्यों मरना चाहते हैं ?
साभार :प्रवक्ता डाट काम

लंदन में प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन

लंदन में प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन
‘यू.के हिंदी समिति’ के 20 वर्ष एवं ‘हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता’ के दस वर्ष के उपलक्ष्य में लंदन के नेहरू केंद्र में में दिनांक 26 सितंबर को प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में यू.के. के विभिन्न शहरों से सैकड़ों हिंदी के विद्यार्थियों ने भाग लिया। सम्मेलन में 4 वर्ष की आयु से लेकर 25 वर्ष की आयु तक के छात्र उपस्थित थें।इस अवसर पर विद्यार्थी कमलेश वालिया और कार्तिक सुब्बुराज ने इंटरनेट के माध्यम से हिंदी सीखने की विधा बताई और पावर प्वाइंट द्वारा अत्यंत रोचकता से अन्य छात्रों को हिंदी के विभिन्न वेबसाइट से परिचित कराया।‘यू.के हिंदी समिति’ के अध्यक्ष डॉ. पदमेंश गुप्त ने कहा, ‘इस सम्मेलन का उद्देश्यहै कि ब्रिटेन के हिंदी छात्रों का एक नेटवर्क तैयार हो और इन विद्यार्थियों को एक ऐसा मंच मिले जिससे वे कम से कम साल में एक बार आपस में मिल सकें।’इस अवसर पर हिंदी बाल भवन- सरे, तथा बर्मिंघम के कुछ विद्यार्थियों ने लघु नाटक एवं नृत्य की प्रस्तुति कर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई। हास्य-व्यंग्य से भरपूर यह नाटक छात्रों तथा उनकी शिक्षिकाओं ने मिल करर स्वयं रचा।हिंदी अध्यापिका सुश्री सुरेखा चोफला ने इस अवसर पर भारत के नक्शे पर आधारित छात्रों को टीम-बिल्डिंग एक्सरसाइज़ करवाई तथा साँप और सीढ़ी के खेल के माध्यम से हिंदी के प्रश्न-उत्तर के सत्र का संयोजन किया जिसमें हिंदी छात्रों ने जम कर भाग लिया।श्रीमती देवीना रिशी ने ‘हिंदी सिनेमा वाह! वाह!, हिंदी सिनेमा छी! छी!’ पर मनोरंजक बहस का संयोजन किया जिसमें अनेक छात्रों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए।‘यू.के.हिंदी समिति’ की उपाध्यक्ष और ‘पुरवाई’ पत्रिका की सह-संपादक श्रीमती उषा राजे ने छोटी उम्र के बच्चों को स्व रचित बाल कथा ‘जादूई बुलबुला’ के माधयम से भारतीय संस्कृति की महत्ता मनोरंजक ढंग से बताई। इस सत्र में बच्चों के साथ उनके माता-पिता भी दत्तचित श्रोता थें।हिंदी सभी छात्रों एवं अभिवावकों ने इस अवसर पर अंताक्षिरी के माध्यम से हिंदी गानों की प्रस्तुति की।यू.के. हिंदी समिति के श्री वेद मोहला, डॉ. ऋषी अग्रवाल, इस्माइल चुनेरा, के.बी.एल. सक्सेना, उषा राजे सक्सेना, सुरेखा चोपला, अंजलि सुब्बुराज, शशि वालिया, देविना रिशि, पियूष गोयल, एवं कृति यू.के. की तितिक्षा शाह, अख्तर गोल्ड, मधु शर्मा, मीना कुमारी, और बाल भवन की शशि वालिया ने अपनी उपस्थिति से आयोजन को गरिमा प्रदान की। 
साभार :प्रवक्ता डाट काम

Saturday, December 11, 2010

हिंदी पत्रकारिता का दनदनाहट काल
  हिंदी न्यूज चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला
अचानक से हिन्दी न्यूज़ चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला हो गया है। कार के एक्सलेटर की आवाज़ लगाकर हूं हां की बजाय ज़ूप ज़ाप करती ख़बरें। टीवी से दूर भागते दर्शकों को पकड़ कर रखने के लिए यह नया फार्मूला मैदान में आया है। वैसे फार्मूला निकालने में हिन्दी न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं। हर हफ्ते कोई न कोई फार्मेट लांच हो जाता है। कोई दो मिनट में बीस ख़बरें दिखा रहा है तो कोई पचीस मिनट में सौ ख़बरें। ये दनादन होते दर्शकों के लिए टनाटन ख़बरों का दौर है या अब दर्शक को ख़बर दिखा कर उसका दिमाग भमोर दिया जा रहा है। हिन्दी न्यूज़ चैनलों की प्रयोगधर्मिता पर अलग से शोध होना चाहिए। अच्छे भी और बुरे भी। प्रस्तिकरण के जितने प्रकार हिन्दी चैनलों के पास हैं उतने इंग्लिश वालों के पास नहीं हैं।अगर ख़बर की कोई कीमत है तो वो ऐसी क्यों है कि आप कुछ समझ ही न पायें और ख़बर निकल जाए। प्लेटफार्म पर खड़े होकर राजधानी निहार रहे हैं या घर में बैठकर टीवी देख रहे हैं। माना कि टाइम कम है। लोगों के पास न्यूज देखने का धीरज कम हो रहा है लेकिन क्या वे इतने बेकरार हैं कि पांच ही मिनट में संसार की सारी ख़बरें सुन लेना चाहते हैं। ऐसे दर्शकों का कोई टेस्ट करना चाहिए कि दो मिनट में सत्तर ख़बरें देखने के बाद कौन सी ख़बर याद रही। पहले कौन चली और बाद में कौन। इसे लेकर हम एक रियालिटी प्रतियोगिता भी कर सकते हैं। समझना मुश्किल है। अगर दर्शक को इतनी जल्दी है दफ्तर जाने और काम करने की तो वो न्यूज़ क्यों देखना चाहता है? आराम से तैयार होकर जाए न दफ्तर। सोचता हूं वॉयस ओवर करने वालों ने अपने आप को इतनी जल्दी कैसे ढाल लिया होगा। स्लो का इलाज स्पीड न्यूज है।अगर दर्शक ज़ूप ज़ाप ख़बरें सुन कर समझ भी रहा है तो कमाल है भाई। तब तो इश्योरेंस कंपनी के विज्ञापन के बाद पढ़ी जाने वाली चेतावनी की लाइनें भी लोग साफ-साफ सुन ही लेते होंगे। पहले मैं समझता था कि स्पेस महंगा होता है इसलिए संवैधानिक चेतावनी को सिर्फ पढ़ने के लिए पढ़ दिया जाता है। इश्योरेंस...इज...मैटर...ब..बबा
..बा। मैं तो हंसा करता था लेकिन समझ न सका कि इसी से एक दिन न्यूज़ चैनल वाले प्रेरित हो जायेंगे। जल्दी ही स्पीड न्यूज़ को लेकर जब होड़ बढ़ेगी तो चेतावनी का वॉयस ओवर करने वाला कलाकार न्यूज़ चैनलों में नौकरी पा जाएगा। जो लोग अपनी नौकरी बचा कर रखना चाहते हैं वो दनदनाहट से वीओ करना सीख ले। एक दिन मैंने भी किया। लगा कि कंठाधीश महाराज आसन छोड़ कर गर्दन से बाहर निकल आएंगे। धीमी गति के समाचार की जगह सुपरफास्ट न्यूज़। यही हाल रहा तो आप थ्री डी टीवी में न्यूज़ देख ही नहीं पायेंगे। दो खबरों के बीच जब वाइप आती है,उसकी रफ्तार इतनी होगी कि लगेगा कि नाक पर किसी ने ढेला मार दिया हो।न्यूज़ संकट में है। कोई नहीं देख रहा है या देखना चाहता है तभी सारे चैनल इस तरह की हड़बड़ी की होड़ मचाए हुए हैं। अजीब है। अभी तक किसी दर्शक ने शिकायत नहीं की है कि एक चैनल के सुपर फास्ट न्यूज़ देखते हुए कुर्सी से गिर पड़ा। दिमाग़ पर ज़ोर पड़ते ही नसें फट गईं और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ गया। स्पीड न्यूज की मात्रा हर चैनल पर बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं पूरे स्क्रीन पर ऊपर-नीचे हर तरफ लिख दिया गया है। ये सब न्यूज़ चैनलों की ख़बरों के लिए बाज़ार खोजती बेचैनियां हैं। ख़बरें कब्र से निकल कर शहर की तरफ भागती नज़र आती हैं। लेकिन आपने देखा होगा। ख़बरों में कोई बदलाव नहीं आया है। ख़बरें नहीं बदलती हैं। सिर्फ फार्मेट बदलता है।इतना ही नहीं इसके लिए सारे कार्यक्रमों के वक्त बदल रहे हैं। अब साढ़े आठ या साढ़े नौ या नौ बजे का कोई मतलब नहीं रहा। वैसे ये छोटा था कहने पुकारने में। नया टाइम है- आठ बज कर सत्ताईस मिनट,नौ बजकर अट्ठाईस मिनट। नौ बजे रात से तीन मिनट पहले ही हेडलाइन चल जाती है। कई चैनल 8:57 पर ही हेडलाइन रोल कर देते हैं तो कुछ एक मिनट बाद। हिन्दी चैनलों की प्रतियोगिता हर पल उसे बदल रही है। समय का बोध भी बदल रहा है। यह समझना मुश्किल है कि जिस दर्शक के पास ख़बरों के लिए टाइम नहीं है वो नौ बजने के तीन मिनट पहले से क्यों बैठा है न्यूज़ देखने के लिए। अगर ऐसा है तो हेडलाइन एक बुलेटिन में दस बार क्यों नहीं चलती। तीन-चार बार तो चलने ही लगी है। देखने की प्रक्रिया में बदलाव तो आया ही होगा जिसके आधार पर फार्मेट को दनदना दनदन कर दिया गया है। यही हाल रहा तो एक दिन आठ बजकर पचास मिनट पर ही नौ बजे का न्यूज़ शुरू हो जाएगा। लेकिन नाम उसका नौ बजे से ही तुकबंदी करता होगा। न्यूज़ नाइन की जगह न्यूज़ आठ पचास या ख़बरें आठ सत्तावन बोलेंगे तो अजीब लगेगा। एकाध दांत बाहर भी आ सकते हैं।ख़बरों के इस विकास क्रम में टिकर की मौत होनी तय है। टॉप टेन या स्क्रोल की उपयोगिता कम हो गई है। कुछ चैनलों ने रेंगती सरकती स्क्रोल को खत्म ही कर दिया है। कुछ ने टॉप टेन लगाकर ख़बरें देने लगे हैं। यह स्पीड न्यूज़ का छोटा भाई लगता है। जैसे चलने की कोशिश कर रहा हो और भइया की डांट पड़ते ही सटक कर टाप थ्री से टाप फोर में आ जाता हो। टाइम्स नाउ ने हर आधे घंटे पर न्यूज़ रैप के मॉडल में बदलाव किया है। इसमें पूरे फ्रेम में विज़ुअल चलता है। ऊपर के बैंड और नीचे के बैंड में न्यूज़ वायर की शैली में ख़बरें होती हैं। अभी तक बाकी चैनल सिर्फ टेक्स्ट दिखाते थे या फिर स्टिल पिक्चर। कुछ हिन्दी चैनल टाइम्स नाउ से मिलता जुलता प्रयोग कर चुके हैं।इतना ही नहीं न्यूज़ चैनल कई तरह की बैशाखियां ढूंढ रहे हैं। फेसबुक पर मैं खुद ही अपने शो की टाइमिंग लिखता रहता हूं। एनडीटीवी का एक सोशल पेज भी है। वहां भी हम समय बताते हैं। स्टोरी की झलक देते हैं। अब तो रिपोर्टर भी अपनी स्टोरी का विज्ञापन करते हैं। मेरी स्टोरी नौ बजे बुलेटिन में देखियेगा। इतना ही नहीं ट्विटर पर नेताओं और अभिनेताओं के बयान को भी ख़बर की तरह लिया जा रहा है। ट्विटर के स्टेटस को अब पैकेज कर दिखाया जा रहा है। ट्विटर पर राजदीप अपने चैनल के किसी खुलासे की जानकारी देते हैं। मैं ख़ुद ट्विटर पर अपने शो की जानकारी देता हूं। एक अघोषित संघर्ष चल रहा है। कंपनियां आपस में होड़ कर रही हैं। उसके भीतर हम लोग अपनी ख़बरों को लेकर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। फेसबुक का इस्तमाल हो रहा है। कई चैनल अपना कार्यक्रम यू ट्यूब में डाल रहे हैं। मैंने भी अपने एक एपिसोड का प्रोमो यू ट्यूब में डाला था। हर समय दिमाग में चलता रहता है कि कैसे अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचू। कोई तो देख ले। कई बार ख्याल आता है कि एक टी-शर्ट ही पहन कर घूमने लगूं,जिसके पीछे शो का नाम और समय लिखा हो। कुछ स्ट्रीकर बनवाकर ट्रक और टैम्पो के पीछे लगा दूं। यह भी तो हमारे समय के स्पेस है। जैसे फेसबुक है,ट्विटर है। स्टेटस अपडेट तो कब से लिखा जा रहा है। ट्रको के पीछे,नीचे और साइड में। सामने भी होता है। दुल्हन ही दहेज है या गंगा तेरा पानी अमृत। नैशनल कैरियर।कुल मिलाकर न्यूज़ चैनल के क्राफ्ट में गिरावट आ रही है। कैमरे का इस्तमाल कम हो गया है। खूब नकल होती है। कोई चैनल एक फार्मेट लाता है तो बाकी भी उसकी नकल कर चलाने लगते हैं। हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने इस आपाधापी में एक समस्या का समाधान कर लिया है। अब उनके लिए नैतिकता समस्या नहीं है। न ही स्पीडब्रेकर। बस यही बाकी है कि न्यूज़ न देखने वाले दर्शकों की पिटाई नहीं हो रही है। नहीं देखा। मार त रे एकरा के। स्पीड न्यूज़ की तरह भाई लोग दर्शक को ऐसे धुन कर चले जायेंगे कि उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि स्पीड न्यूज़ में आकर चले भी गए। दूसरे दर्शक भी नहीं जान पायेंगे कि ये अपने ही किसी भाई के पीट जाने की ख़बर अभी-अभी रफ्तार से निकली है। दर्शक पूछते फिरेंगे कि भाई अभी कौन सी ख़बर आने वाली है और कौन सी गई है। खेल वाली निकल गई क्या। ऐसा भी होने वाला है कि पूरा न्यूज़ फास्ट फारवर्ड में चला दिया जाएगा। किचपिच किचपिच। समझें न समझें मेरी बला से। दर्शक बने हैं तो लीजिए और बनिए। और पांच लाइन क्यों पढ़े। चार शब्दों की एक ख़बर होनी चाहिए। मनमोहन सिंह नाराज़। क्यों और किस पर ये दर्शक का जाने बाप। स्पीड न्यूज़ है भाई। इतना बता दिया कम नहीं है। आप देख रहे हैं हिन्दी पत्रकारिता का दनदनाहट काल।
साभार: कस्बा ब्लाग सपाट डाट काम