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Sunday, December 26, 2010

'हिंदी भाषा' अपनो में ही पराई
  • भारत को मुख्यता हिंदी भाषी माना गया है। हिंदी भाषा का उद्गम केन्द्र संस्कृत भाषा है। लेकिन समय के साथ संस्कृत भाषा का लगभग लोप होता जा रहा है। यही हाल हिंदी भाषा का भी हो सकता है, अगर इसके लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किए गए तो। भारतीय संविधान के तहत सभी सरकारी और गैर सरकारी दफ्तरों में हिंदी में कार्य करना अनिवार्य माना गया है। लेकिन शायद ही कहीं हिंदी भाषा का प्रयोग दफ्तर के कायों में होता हो। हर क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का बोलबाला है। किसी को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं तो उसको नौकरी मिलना मुश्किल होता है। जबकि यह गलत कृत्य है सरासर भारतीय संविधान की अवहेलना है। सच पूछिए तो भारतीय संस्कृति की यह धरोहर संकट में है और इसके विकास के नाम पर अब केवल पाखंड हो रहा है। जिस हिंदी ने भारतीय हिंदी सिनेमा को अपनी भाषा शैली और संवादों से समृद्धशाली बनाया है उसकी ताकत को ऐसे नज़रअंदाज किया जा रहा है जैसे कि वह उपयोगी नही है बल्कि परित्यक्ता है।
    भारत वर्ष में प्रतिवर्ष हिंदी दिवस 14 सितम्बर को मनाया जाता है। चौदह सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने और हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन सिर्फ भारत में ही 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है, जबकि विश्व हिंदी दिवस प्रतिवर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना और हिंदी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिंदी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं।
    जब भारतवर्ष स्वतंत्र हुआ था तब भारतवासियों ने सोचा होगा कि उनके आजाद देश में उनकी अपनी हिंदी भाषा, अपनी संस्कृति होगी, लेकिन यह क्या हुआ? अंग्रेजों से तो भारतवासी आजाद हो गए, पर अंग्रेजी भाषा ने भारतवासियों को जकड़ लिया। हिंदी के मनीषियों लेखकों और साहित्यकारों ने हिंदी आंदोलन से जो सफलताएं हासिल की है उनमें भारत की आजादी भी प्रमुख है। देश में गैर हिंदी भाषा-भाषियों ने भी हिंदी भाषा को राष्ट्रीय एकता का एक सेतु कहा है। भारत के बाहर आज दुनिया में अमेरिका जैसे देश ने अपने यहां हिंदी के विकास के लिए बजट में भारी धन की व्यवस्‍था की गई है।
    भारतीय संविधान के अनुसार हिंदी भाषी राज्यों को अंग्रेजी की जगह हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गांधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भारत नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिंदी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिंदी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था।
    अंग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या में बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ की प्रमुख भाषा है। लेकिन भारतवासियों को अंग्रेजी का प्रयोग खत्म कर देना चाहिये क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है।अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भारतवर्ष में हिंदी भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक किया जाता है, क्यों? भारतवर्ष हिंदी भाषी राष्ट्र है, उसको हिंदी के प्रचार व प्रसार पर ध्यान देना चाहिये। वैसे इस विषय में हमारे कुछ बुद्धिजीवियों ने गहन विचार-विमर्श कर हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार व प्रयोग इंटरनेट के माध्यम से करना शुरू कर दिया है। हिंदी भाषा का प्रयोग वर्तमान में ब्लाग पर खूब किया जा रहा है। कई वेबसाइट भी हैं जो हिंदी भाषा में हैं। यह एक सार्थक प्रयास है।
    वर्तमान में नई पीढ़ी को बचपन से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेज दिया जाता है, वह बचपन से ही अंग्रेजी भाषा को पढ़ता व लिखता है और उसी भाषा को अपनी मुख्य भाषा समझने लगता है। क्योंकि उसको माहौल ही वैसा मिलता है। इस विषय में हमें विचार करना चाहिये। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलान' कभी संभव हो पाएगा। अंग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिंदी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिंदी में हैं, वह भी अंग्रेजी में हो जाएंगी।
    हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति की धरोहर है जिसे बचाना भारतवासियों का परमकर्तव्य है। ध्यान, योग आसन और आयुर्वेद विषयों के साथ-साथ इनसे संबंधित हिंदी शब्द आदि, ऐसी संस्कृति है, जिसे पाने के लिए हिंदी के रास्ते से ही पहुंचा जा सकता है। भारतीय संगीत चाहे वह शास्त्रीय हो या आधुनिक हस्तकला, भोजन और वस्त्रों की विदेशी मांग जैसी आज है पहले कभी नहीं थी। लगभग हर देश में योग, ध्यान और आयुर्वेद के केन्द्र खुल गए हैं, जो दुनिया भर के लोगों को भारतीय संस्कृति की ओर आकर्षित करते हैं, और हम उसी अनमोल संस्कृति को त्याग दूसरो की संस्कृति में ध्यान आकर्षित करते हैं। जो स्वयं हमारी हिंदी भाषा और संस्कृति से प्रभावित हैं। हम अपनी पहचान क्यों खोना चाहते है? जबकि अन्य भाषाओं से अत्यधिक सर्वोपरि हिंदी है। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार व हिंदी भाषा की प्रगति एवं उत्थान के लिए, इसके प्रयोग को बल देने के लिये कई महापुरुषों ने अपने मत इस प्रकार दिए हैं-
    'कोई भी देश सच्चे अर्थो में तब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता। राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।' महात्मा गांधी
    'यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है तो वह जनता की भाषा में ही चलाना होगा।' काका कालेलकर
    'प्रांतीय ईर्ष्या-द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिंदी प्रचार से मिलेगी, दूसरी किसी चीज से नहीं।' नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
    'राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिंदी ही हो सकती है।' लालबहादुर शास्त्री
    'हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। हिंदी राष्ट्रीयता के मूल को सींचकर दृढ़ करती है।' राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन
    'हम हिंदुस्तानियों का एक ही सूत्र रहे- हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी हमारी लिपि देवनागरी हो।' रेहानी तैयबजी
    'हिंदी से सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।' महर्षि दयानंद सरस्वती
    'यदि हिंदी की उन्नति नहीं होती है तो यह देश का दुर्भाग्य है।' बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
    'राष्ट्र को राष्ट्रध्वज की तरह राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है और वह स्थान हिंदी को प्राप्त है।' अनन्त गोपाल सेवड़े
    'राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं। मेरे विचार में हिंदी ही ऐसी भाषा है।
    ' लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
    'यदि भारतीय लोक कला, संस्कृति और राजनीति में एक रहना चाहते हैं तो उसका माध्यम हिंदी ही हो सकती है।' राजगोपालाचारी
    'राष्ट्रीय मेल और राजनीतिक एकता के लिए सारे देश में हिंदी और नागरी का प्रचार आवश्यक है।'लाला लाजपत राय
    'हिंदी साहित्य चतुष्पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन है इसीलिए जनोपयोगी भी है।' डॉ. भगवान दास
    'निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।' भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
    'हिंदी को देश में परस्पर संपर्क भाषा बनाने का कोई विकल्प नहीं। अंग्रेजी कभी जनभाषा नहीं बन सकती।' मोरारजी देसाई
    'हिंदी प्रेम की भाषा है।' महादेवी वर्मा

    'भारत की अखंडता और व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए हिंदी का प्रचार अत्यन्त आवश्यक है।' महाकवि शंकर कुरूप
          कौशलेंद्र मिश्रा
             स्वतंत्र आवाज़ डाट काम से आभार सहित
          www.swatantraawaz.com

Sunday, December 12, 2010

इंटरनेट पर हिन्दी वालों में भाषायी विभ्रम

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
समझ में नहीं आता कहां से बात शुरू करूँ,शर्म भी आती है और गुस्सा भी आ रहा है। वे चाहते हैं संवाद करना लेकिन जानते ही नहीं हैं कि क्या कर रहे हैं,वे मेरे दोस्त हैं। बुद्धिमान और विद्वान दोस्त हैं। वे तकनीक सक्षम हैं । किसी न किसी हुनर में विशेषज्ञ हैं। उनके पास अभिव्यक्ति के लिए अनगिनत विषय हैं।वे हिन्दी जानते हैं । हिन्दी अधिकांश की आजीविका है। वे कम्प्यूटर भी जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि गूगल में अनुवाद की व्यवस्था है। इसके बाबजूद वे इंटरनेट पर हिन्दी फॉण्ट में नहीं लिखते अपनी अभिव्यक्ति को अंग्रेजी में हिन्दी के जरिए व्यक्त करते हैं। मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं ? लेकिन मैं विनम्रता के साथ हिन्दी भाषी इंटरनेट यूजरों से अपील करना चाहता हूँ कि वे नेट पर हिन्दी में लिखें। इससे नेट पर हिन्दी समृद्ध होगी।नेट पर हिन्दीभाषी जितनी बड़ी मात्रा में रमण कर रहे हैं और वर्चुअल घुमक्कड़ी करते हुए फेसबुक और अन्य रूपों में अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं यह आनंद की चीज है। मैं साफतौर पर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी का अंग्रेजी के जरिए उपयोग उनके लिए तो शोभा देता है जो हिन्दी लिखने में असमर्थ हैं। लेकिन जो हिन्दी लिखने में समर्थ हैं उन्हें हिन्दी फॉण्ट का ही इस्तेमाल करना चाहिए।यूनीकोड फॉण्ट की खूबी है वह यूजर को अंधभाषाभाषी नहीं बनाता। आप ज्योंही यूनीकोड में गए आपको भाषायी फंडामेंटलिज्म से मुक्ति मिल जाती है। हिन्दी के बुद्धिजीवी, फिल्म अभिनेता-अभिनेत्री,साहित्यकार और पत्रकार नेट पर हिन्दी में ही लिखें तो इससे हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय ताकत बढ़ेगी।अंग्रेजी में हिन्दी लिखने वाले नेट यूजर यह क्यों सोचते कि उन्हें जो हिन्दी में नहीं पढ़ सकता वह गूगल से अनुवाद कर लेगा। आप ईमेल हिन्दी में लिखें,फेसबुक पर हिन्दी में लिखें,ब्लॉग पर हिन्दी में लिखें।यूनीकोड फॉण्ट लोकतांत्रिक है। यह सहिष्णु बनाता है। मित्र बनाता है। दूरियां कम करता है। संपर्क-संबंध को सहज बनाता है। इस फॉण्ट के इस्तेमाल का अर्थ है कि आप अपनी अभिव्यक्ति को विश्व भाषा संसार के हवाले कर रहे हैं। यूनीकोड फॉण्ट मित्र फॉण्ट है आप कृपया इसका इस्तेमाल करके तो देखें आपकी अभिव्यक्ति की दुनिया बदल जाएगी।दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भाषा को तकनीक के सहारे नहीं बचा सकते। कुछ लोग सोचते हैं कि भाषा को गूगल के अनुवाद के सहारे हम बचा लेंगे तो वे गलत सोचते हैं। भाषा को सीखकर और लिखकर ही बचा सकते हैं। भाषा अनुवाद की चीज नहीं है। अनुवाद से भाषा नहीं बचती।मुझे यह खतरा महसूस हो रहा है कि हिन्दी का नेट यूजर यदि हिन्दी में लिखना नहीं सीखता या उसका व्यवहार नहीं करता तो एक समय के बाद हिन्दी को पढ़ाने वाले भी नहीं मिलेंगे। हिन्दी हमारी भाषा है और यह गर्व की बात है कि हम हिन्दी में लिखते हैं। हमारी अंग्रेजियत हिन्दी के प्रयोग से कम नहीं हो जाती। अंग्रेजियत में जीने वाले लोग अंग्रेजी में लिखें लेकिन कृपा करके हिन्दी को अंग्रेजी में न लिखें। यह भाषा का अपमान है। उसकी अक्षमता की तरफ इशारा है। नेट पर हिन्दी तब तक अक्षम थी जब तक हिन्दी का यूनीकोड फॉण्ट नहीं था लेकिन आज ऐसा नहीं है। यूजर जब अपनी स्वाभाविक भाषा,परिवेश की भाषा का प्रयोग भ्रष्ट ढ़ंग से करता है तो अपने भाषायी विभ्रम को प्रस्तुत करता है। अंग्रेजी में हिन्दी लिखना भाषायी विभ्रम है। भाषायी विभ्रम निजी अस्मिता की मौत है। हम गंभीरता से सोचें कि हम भाषायी विभ्रम के सहारे क्यों मरना चाहते हैं ?
साभार :प्रवक्ता डाट काम

लंदन में प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन

लंदन में प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन
‘यू.के हिंदी समिति’ के 20 वर्ष एवं ‘हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता’ के दस वर्ष के उपलक्ष्य में लंदन के नेहरू केंद्र में में दिनांक 26 सितंबर को प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में यू.के. के विभिन्न शहरों से सैकड़ों हिंदी के विद्यार्थियों ने भाग लिया। सम्मेलन में 4 वर्ष की आयु से लेकर 25 वर्ष की आयु तक के छात्र उपस्थित थें।इस अवसर पर विद्यार्थी कमलेश वालिया और कार्तिक सुब्बुराज ने इंटरनेट के माध्यम से हिंदी सीखने की विधा बताई और पावर प्वाइंट द्वारा अत्यंत रोचकता से अन्य छात्रों को हिंदी के विभिन्न वेबसाइट से परिचित कराया।‘यू.के हिंदी समिति’ के अध्यक्ष डॉ. पदमेंश गुप्त ने कहा, ‘इस सम्मेलन का उद्देश्यहै कि ब्रिटेन के हिंदी छात्रों का एक नेटवर्क तैयार हो और इन विद्यार्थियों को एक ऐसा मंच मिले जिससे वे कम से कम साल में एक बार आपस में मिल सकें।’इस अवसर पर हिंदी बाल भवन- सरे, तथा बर्मिंघम के कुछ विद्यार्थियों ने लघु नाटक एवं नृत्य की प्रस्तुति कर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई। हास्य-व्यंग्य से भरपूर यह नाटक छात्रों तथा उनकी शिक्षिकाओं ने मिल करर स्वयं रचा।हिंदी अध्यापिका सुश्री सुरेखा चोफला ने इस अवसर पर भारत के नक्शे पर आधारित छात्रों को टीम-बिल्डिंग एक्सरसाइज़ करवाई तथा साँप और सीढ़ी के खेल के माध्यम से हिंदी के प्रश्न-उत्तर के सत्र का संयोजन किया जिसमें हिंदी छात्रों ने जम कर भाग लिया।श्रीमती देवीना रिशी ने ‘हिंदी सिनेमा वाह! वाह!, हिंदी सिनेमा छी! छी!’ पर मनोरंजक बहस का संयोजन किया जिसमें अनेक छात्रों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए।‘यू.के.हिंदी समिति’ की उपाध्यक्ष और ‘पुरवाई’ पत्रिका की सह-संपादक श्रीमती उषा राजे ने छोटी उम्र के बच्चों को स्व रचित बाल कथा ‘जादूई बुलबुला’ के माधयम से भारतीय संस्कृति की महत्ता मनोरंजक ढंग से बताई। इस सत्र में बच्चों के साथ उनके माता-पिता भी दत्तचित श्रोता थें।हिंदी सभी छात्रों एवं अभिवावकों ने इस अवसर पर अंताक्षिरी के माध्यम से हिंदी गानों की प्रस्तुति की।यू.के. हिंदी समिति के श्री वेद मोहला, डॉ. ऋषी अग्रवाल, इस्माइल चुनेरा, के.बी.एल. सक्सेना, उषा राजे सक्सेना, सुरेखा चोपला, अंजलि सुब्बुराज, शशि वालिया, देविना रिशि, पियूष गोयल, एवं कृति यू.के. की तितिक्षा शाह, अख्तर गोल्ड, मधु शर्मा, मीना कुमारी, और बाल भवन की शशि वालिया ने अपनी उपस्थिति से आयोजन को गरिमा प्रदान की। 
साभार :प्रवक्ता डाट काम

Saturday, December 11, 2010

हिंदी पत्रकारिता का दनदनाहट काल
  हिंदी न्यूज चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला
अचानक से हिन्दी न्यूज़ चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला हो गया है। कार के एक्सलेटर की आवाज़ लगाकर हूं हां की बजाय ज़ूप ज़ाप करती ख़बरें। टीवी से दूर भागते दर्शकों को पकड़ कर रखने के लिए यह नया फार्मूला मैदान में आया है। वैसे फार्मूला निकालने में हिन्दी न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं। हर हफ्ते कोई न कोई फार्मेट लांच हो जाता है। कोई दो मिनट में बीस ख़बरें दिखा रहा है तो कोई पचीस मिनट में सौ ख़बरें। ये दनादन होते दर्शकों के लिए टनाटन ख़बरों का दौर है या अब दर्शक को ख़बर दिखा कर उसका दिमाग भमोर दिया जा रहा है। हिन्दी न्यूज़ चैनलों की प्रयोगधर्मिता पर अलग से शोध होना चाहिए। अच्छे भी और बुरे भी। प्रस्तिकरण के जितने प्रकार हिन्दी चैनलों के पास हैं उतने इंग्लिश वालों के पास नहीं हैं।अगर ख़बर की कोई कीमत है तो वो ऐसी क्यों है कि आप कुछ समझ ही न पायें और ख़बर निकल जाए। प्लेटफार्म पर खड़े होकर राजधानी निहार रहे हैं या घर में बैठकर टीवी देख रहे हैं। माना कि टाइम कम है। लोगों के पास न्यूज देखने का धीरज कम हो रहा है लेकिन क्या वे इतने बेकरार हैं कि पांच ही मिनट में संसार की सारी ख़बरें सुन लेना चाहते हैं। ऐसे दर्शकों का कोई टेस्ट करना चाहिए कि दो मिनट में सत्तर ख़बरें देखने के बाद कौन सी ख़बर याद रही। पहले कौन चली और बाद में कौन। इसे लेकर हम एक रियालिटी प्रतियोगिता भी कर सकते हैं। समझना मुश्किल है। अगर दर्शक को इतनी जल्दी है दफ्तर जाने और काम करने की तो वो न्यूज़ क्यों देखना चाहता है? आराम से तैयार होकर जाए न दफ्तर। सोचता हूं वॉयस ओवर करने वालों ने अपने आप को इतनी जल्दी कैसे ढाल लिया होगा। स्लो का इलाज स्पीड न्यूज है।अगर दर्शक ज़ूप ज़ाप ख़बरें सुन कर समझ भी रहा है तो कमाल है भाई। तब तो इश्योरेंस कंपनी के विज्ञापन के बाद पढ़ी जाने वाली चेतावनी की लाइनें भी लोग साफ-साफ सुन ही लेते होंगे। पहले मैं समझता था कि स्पेस महंगा होता है इसलिए संवैधानिक चेतावनी को सिर्फ पढ़ने के लिए पढ़ दिया जाता है। इश्योरेंस...इज...मैटर...ब..बबा
..बा। मैं तो हंसा करता था लेकिन समझ न सका कि इसी से एक दिन न्यूज़ चैनल वाले प्रेरित हो जायेंगे। जल्दी ही स्पीड न्यूज़ को लेकर जब होड़ बढ़ेगी तो चेतावनी का वॉयस ओवर करने वाला कलाकार न्यूज़ चैनलों में नौकरी पा जाएगा। जो लोग अपनी नौकरी बचा कर रखना चाहते हैं वो दनदनाहट से वीओ करना सीख ले। एक दिन मैंने भी किया। लगा कि कंठाधीश महाराज आसन छोड़ कर गर्दन से बाहर निकल आएंगे। धीमी गति के समाचार की जगह सुपरफास्ट न्यूज़। यही हाल रहा तो आप थ्री डी टीवी में न्यूज़ देख ही नहीं पायेंगे। दो खबरों के बीच जब वाइप आती है,उसकी रफ्तार इतनी होगी कि लगेगा कि नाक पर किसी ने ढेला मार दिया हो।न्यूज़ संकट में है। कोई नहीं देख रहा है या देखना चाहता है तभी सारे चैनल इस तरह की हड़बड़ी की होड़ मचाए हुए हैं। अजीब है। अभी तक किसी दर्शक ने शिकायत नहीं की है कि एक चैनल के सुपर फास्ट न्यूज़ देखते हुए कुर्सी से गिर पड़ा। दिमाग़ पर ज़ोर पड़ते ही नसें फट गईं और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ गया। स्पीड न्यूज की मात्रा हर चैनल पर बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं पूरे स्क्रीन पर ऊपर-नीचे हर तरफ लिख दिया गया है। ये सब न्यूज़ चैनलों की ख़बरों के लिए बाज़ार खोजती बेचैनियां हैं। ख़बरें कब्र से निकल कर शहर की तरफ भागती नज़र आती हैं। लेकिन आपने देखा होगा। ख़बरों में कोई बदलाव नहीं आया है। ख़बरें नहीं बदलती हैं। सिर्फ फार्मेट बदलता है।इतना ही नहीं इसके लिए सारे कार्यक्रमों के वक्त बदल रहे हैं। अब साढ़े आठ या साढ़े नौ या नौ बजे का कोई मतलब नहीं रहा। वैसे ये छोटा था कहने पुकारने में। नया टाइम है- आठ बज कर सत्ताईस मिनट,नौ बजकर अट्ठाईस मिनट। नौ बजे रात से तीन मिनट पहले ही हेडलाइन चल जाती है। कई चैनल 8:57 पर ही हेडलाइन रोल कर देते हैं तो कुछ एक मिनट बाद। हिन्दी चैनलों की प्रतियोगिता हर पल उसे बदल रही है। समय का बोध भी बदल रहा है। यह समझना मुश्किल है कि जिस दर्शक के पास ख़बरों के लिए टाइम नहीं है वो नौ बजने के तीन मिनट पहले से क्यों बैठा है न्यूज़ देखने के लिए। अगर ऐसा है तो हेडलाइन एक बुलेटिन में दस बार क्यों नहीं चलती। तीन-चार बार तो चलने ही लगी है। देखने की प्रक्रिया में बदलाव तो आया ही होगा जिसके आधार पर फार्मेट को दनदना दनदन कर दिया गया है। यही हाल रहा तो एक दिन आठ बजकर पचास मिनट पर ही नौ बजे का न्यूज़ शुरू हो जाएगा। लेकिन नाम उसका नौ बजे से ही तुकबंदी करता होगा। न्यूज़ नाइन की जगह न्यूज़ आठ पचास या ख़बरें आठ सत्तावन बोलेंगे तो अजीब लगेगा। एकाध दांत बाहर भी आ सकते हैं।ख़बरों के इस विकास क्रम में टिकर की मौत होनी तय है। टॉप टेन या स्क्रोल की उपयोगिता कम हो गई है। कुछ चैनलों ने रेंगती सरकती स्क्रोल को खत्म ही कर दिया है। कुछ ने टॉप टेन लगाकर ख़बरें देने लगे हैं। यह स्पीड न्यूज़ का छोटा भाई लगता है। जैसे चलने की कोशिश कर रहा हो और भइया की डांट पड़ते ही सटक कर टाप थ्री से टाप फोर में आ जाता हो। टाइम्स नाउ ने हर आधे घंटे पर न्यूज़ रैप के मॉडल में बदलाव किया है। इसमें पूरे फ्रेम में विज़ुअल चलता है। ऊपर के बैंड और नीचे के बैंड में न्यूज़ वायर की शैली में ख़बरें होती हैं। अभी तक बाकी चैनल सिर्फ टेक्स्ट दिखाते थे या फिर स्टिल पिक्चर। कुछ हिन्दी चैनल टाइम्स नाउ से मिलता जुलता प्रयोग कर चुके हैं।इतना ही नहीं न्यूज़ चैनल कई तरह की बैशाखियां ढूंढ रहे हैं। फेसबुक पर मैं खुद ही अपने शो की टाइमिंग लिखता रहता हूं। एनडीटीवी का एक सोशल पेज भी है। वहां भी हम समय बताते हैं। स्टोरी की झलक देते हैं। अब तो रिपोर्टर भी अपनी स्टोरी का विज्ञापन करते हैं। मेरी स्टोरी नौ बजे बुलेटिन में देखियेगा। इतना ही नहीं ट्विटर पर नेताओं और अभिनेताओं के बयान को भी ख़बर की तरह लिया जा रहा है। ट्विटर के स्टेटस को अब पैकेज कर दिखाया जा रहा है। ट्विटर पर राजदीप अपने चैनल के किसी खुलासे की जानकारी देते हैं। मैं ख़ुद ट्विटर पर अपने शो की जानकारी देता हूं। एक अघोषित संघर्ष चल रहा है। कंपनियां आपस में होड़ कर रही हैं। उसके भीतर हम लोग अपनी ख़बरों को लेकर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। फेसबुक का इस्तमाल हो रहा है। कई चैनल अपना कार्यक्रम यू ट्यूब में डाल रहे हैं। मैंने भी अपने एक एपिसोड का प्रोमो यू ट्यूब में डाला था। हर समय दिमाग में चलता रहता है कि कैसे अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचू। कोई तो देख ले। कई बार ख्याल आता है कि एक टी-शर्ट ही पहन कर घूमने लगूं,जिसके पीछे शो का नाम और समय लिखा हो। कुछ स्ट्रीकर बनवाकर ट्रक और टैम्पो के पीछे लगा दूं। यह भी तो हमारे समय के स्पेस है। जैसे फेसबुक है,ट्विटर है। स्टेटस अपडेट तो कब से लिखा जा रहा है। ट्रको के पीछे,नीचे और साइड में। सामने भी होता है। दुल्हन ही दहेज है या गंगा तेरा पानी अमृत। नैशनल कैरियर।कुल मिलाकर न्यूज़ चैनल के क्राफ्ट में गिरावट आ रही है। कैमरे का इस्तमाल कम हो गया है। खूब नकल होती है। कोई चैनल एक फार्मेट लाता है तो बाकी भी उसकी नकल कर चलाने लगते हैं। हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने इस आपाधापी में एक समस्या का समाधान कर लिया है। अब उनके लिए नैतिकता समस्या नहीं है। न ही स्पीडब्रेकर। बस यही बाकी है कि न्यूज़ न देखने वाले दर्शकों की पिटाई नहीं हो रही है। नहीं देखा। मार त रे एकरा के। स्पीड न्यूज़ की तरह भाई लोग दर्शक को ऐसे धुन कर चले जायेंगे कि उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि स्पीड न्यूज़ में आकर चले भी गए। दूसरे दर्शक भी नहीं जान पायेंगे कि ये अपने ही किसी भाई के पीट जाने की ख़बर अभी-अभी रफ्तार से निकली है। दर्शक पूछते फिरेंगे कि भाई अभी कौन सी ख़बर आने वाली है और कौन सी गई है। खेल वाली निकल गई क्या। ऐसा भी होने वाला है कि पूरा न्यूज़ फास्ट फारवर्ड में चला दिया जाएगा। किचपिच किचपिच। समझें न समझें मेरी बला से। दर्शक बने हैं तो लीजिए और बनिए। और पांच लाइन क्यों पढ़े। चार शब्दों की एक ख़बर होनी चाहिए। मनमोहन सिंह नाराज़। क्यों और किस पर ये दर्शक का जाने बाप। स्पीड न्यूज़ है भाई। इतना बता दिया कम नहीं है। आप देख रहे हैं हिन्दी पत्रकारिता का दनदनाहट काल।
साभार: कस्बा ब्लाग सपाट डाट काम 

Wednesday, November 24, 2010

तेलुगु साहित्य पर बंगला का प्रभाव
नवजागरण की शुरुआत सबसे पहले बंगाल से हुई। इसके फलस्वरूप बंगला भाषा में गद्य साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। बंकिमचंद चटर्जी के उपन्यासों के प्रकाश में आने से पहले ही बंगला कविता में आधुनिक विचारधारा स्थापित हुई और ‘ब्लैंक वर्स’ में कविताएं आने लगीं। तब तक बंगला छंद में प्रचलित अंत्य तुक नियमों को छ़ोडकर सर्व प्रथम मइखेल मधुसूदन दत्त मेघनाथ वध महाकाव्य का प्रणयन कर अग्र श्रेणी के कवि के नाम से ख्याति अर्जित कर चुके थे।बंग भंग के वर्ष में ही प्रमुख ब्रह्म समाजी ब्रह्मर्षि सर रघुपति वेंकटरत्नम नायुडु के प्रयासों से आंध्र में ब्रह्म समाज की स्थापना हुई और उसका केंद्र काकिऩाडा बना। तबसे (१९०५) आंध्र अभ्युदय लेखक संघ की स्थापना (१९३३) तक के समय को तेलुगु साहित्य पर बंगला का प्रभाव का काल माना जाता है। इस अवधि में प्रकाशित तेलुगु कविता में बगंला साहित्य की प्रवृत्तियों का प्रचुर मात्रा में प्रकट होना और अधिक संख्यक रचनाआें का बंगला से तेलुगु में अनूदित होना इस प्रभाव के मूल आधार बताये जाते हैं। अलावा इसके आधुनिक तेलुगु साहित्य के युग पुरुष माने जाने वाले कंदुकूरि वीरेशलिंगम पंतुलु ने ब्रह्म समाज के प्रचारक केशव चंद्र सेन की पुस्तकों से प्रभावित होकर अपने समाज सुधार के सारे कार्यक्रम ब्रह्म समाज के पदचिह्नों का अनुकरण करते हुए संचालित किये। साहित्य में भी आपने समाज सुधार की प्रवृत्तियों को प्रवेश कराया। आपके अनुगमन में उस समय के तेलुगु के अधिकतर साहित्यकार साहित्य को समाज सुधार के एक साधन मानकर अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते रहे।बंगाल प्रेसीडेंसी में घट रहे नव जागरण से संबद्ध राजनीतिक एवं साहित्यिक परिवर्तनों की ओर प़डोसी मद्रास प्रेसीडेंसी के आंध्र के बुद्धिजीवी अधिक आकर्षित हुए। स्मरण रहे १९३५ में उ़डीसा राज्य बनने से पहले तक मद्रास प्रेसीडेंसी एवं बंगाल प्रेसीडेंसी प़डोसी थे। बंगला भाषियों के जैसे पोशाक धारण करना, उनके आचारविचार, उनके पूजा विधान ही नहीं वे जिस तौर तरीके से सभा संगोष्ठियों का आयोजन करते हैं, उन सबका अनुकरण करना उन दिनों आंध्र में भद्रता व आधुनिकता का चिह्न माना जाता रहा है। बंगला साहित्यकारों के प्रति वहां की जनता का आदर, साहित्य निर्माण में उनका पुरोगमन आदि विषयों का उल्लेख करते हुए तेलुगु साहित्य में उनकी प्रशंसा की गयी। पत्र व्यवहार के माध्यम से बंगला साहित्यकारों से तेलुगु साहित्यकार साहित्य रचना के संबंध में सलाहमशविरा प्राप्त करते थे। बंगला के प्रसिद्ध विद्वान एवं पत्रिका के संपादक शंभुचंद्र चटर्जी ने आधुनिक तेलुगु साहित्य के युग प्रवर्तक गुरजाडा अप्पा राव के पत्र का जवाब देते हुए यों लिखा कि आपमें प्रतिभा है, साधना से आप उज्जवल साहित्यकार बन सकते हैं।
तब के बंगला साहित्य की उन्नत स्थिति से अपने साहित्य की दयनीय स्थिति की तुलना करते हुए तेलुगु साहित्यकारों ने जो लिखा है, वह इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। बंगला देश के पंडित व पामरों का यही विश्वास है ‘बंकिमचंद्र बंग भाषा साहित्य में ब्रह्म जैसे हैं।’ ऐसे व्यक्ति आंध्र देश में कौन हैं?
गुरजाडा अप्पा राव ने उस दौरान तेलुगु साहित्यकारों को यों सलाह दी। ‘व्यावहारिक बंगला भाषा से एक सरल, सहज व सुबोध चलत बंगला भाषा का निर्माण कर बंगला साहित्यकारों ने कई लोकप्रसिद्ध ग्रंथों का निर्माण किया। मेरी आशा है कि हममें से कुछ रचनाकार बंगला सीखकर उसमें से उत्तम रचनाआें का तेलुगु अनुवाद कर हमारी जनता को उपकृत करें।’बंगला के चलित भाषा का उदाहरण लिये आंध्र में गिडुगु राममूर्ति पंतुलु ने भाषा सुधार के लिए व्यावहारिक भाषा आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का समर्थन करते हुए गुरजाडा तथा उनके समकालीन साहित्कार तब तक प्रचलित ‘ग्रांथिक’ भाषा, जो पंडितों तक ही बोधगम्य थी, के स्थान पर ‘व्यावहारिक’ भाषा में रचनाएँ करने लगे। परिणामस्वरूप तेलुगु में विविध विधाआें में गद्य साहित्य का आविर्भाव हुआ। इससे पाठक संख्या भी ब़ढने लगी। साहित्य किसी एक वर्ग तक सीमित न रहकर सभी के लिए सुलभसा हो गया।उन्हीं दिनों अनेक बंगला उपन्यास तेलुगु में अनूदित होकर प्रकाशित हुए, जैसे सुगुणवती परिणय (१९०८), प्रफुल्ल (१९०९), राजधानी (१९१०) और आनंद मठ (१९०७)। पिलका गणपति शास्त्री बोंदलापाटि शिवराम कृष्ण जैसे प्रसिद्ध अनुवादक के परिश्रम से ये उपन्यास प्रकाशित हुए। बंकिमचंद्र के लगभग सारे उपन्यास तेलुगु में आये हैं। विज्ञान चंद्रिता, वेगु चुक्का, हितकारिणी, सरस्वती ग्रंथमाला जैसी प्रमुख प्रकाशन संस्थाआें ने अनुवाद साहित्य का प्रोत्साहन किया। दूसरी भाषाआें से अनूदित उपन्यास की अपेक्षा बंगला भाषा के ही उपन्यास अधिक संख्या में और अधिक बार प्रकाशित हुए। इन्हीं प्रकाशन संस्थाआें ने तेलुगु के प्रसिद्ध साहित्कारों के उपन्यासों को प्रकाशित किया। इन दिनों कुछ ऐतिहासिक उपन्यास भी प्रकाशित हुए। इनमें से अधिक ऐसे उपन्यास हैं, जिन्होंने बंगला उपन्यासों से प्रभाव ग्रहण किया। चिलकमर्ति लक्ष्मी नरसिम्हम्‌ का उपन्यास ‘हेमलता’ में चित्रित सन्यासी वेषधारी देशभक्त राजपूत और दुग्गिराल राघव चंद्रय्य शास्त्री का उपन्यास विजयनगर साम्राज्य का योगी, बंकिम के उपन्यास प्रफुल्ल के भवानी ठाकुर की याद दिलाते हैं। तेलुगु साहित्यकार मानते हैं कि बंकिम चंद्र ने टाइलर के उपन्यासों से प्रभावित होकर संन्यासी के रूप में राजनेता का प्रवेश अपने उपन्यासों में कराया, तो तेलुगु साहित्यकार बंकिम चंद्र के अनुकरण पर सन्यासी रूप में रह रहे राजनेता जैसे पात्रों को प्रवेश कराया। यह भी कहा गया है कि उस समय प्रकाश में आये एक भी ऐसा ऐतिहासिक तेलुगु उपन्यास नहीं है जहां वेषधारी राजनेता का पात्र चित्रित न किया गया हो। ऐसे कृत्रिम पात्र को लेकर कुछ साहित्यकारों ने यहां तक कहा कि तेलुगु साहित्यकारों को बंकिम का हूबहू अनुकरण एक संक्रामक रोगसा लग गया है।उन्हीं दिनों कुछ संस्थाआें ने उत्तम मौलिक एवं अनुदित ऐतिहासिक उपन्यासों पर पुरस्कार प्रदान करने की परंपरा शुरू करके उपन्यास साहित्य की श्रीवृद्धि में योगदान किया। इसलिए तेलुगु साहित्य के इतिहास में १९०० से १९२० तक की अवधि को उपन्यास साहित्य के इतिहास का अनुवाद युग की संज्ञा दी गयी।
बंगला साहित्य में रवींद्रनाथ ठाकुर का आविर्भाव उनकी गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार की प्राप्ति, उनके द्वारा शांतिनिकेतन की स्थापना संपूर्ण भारतीय साहित्य में एक अभूतपूर्व घटना थी। आपके प्रभाव से समस्त भारतीय भाषाआें के साहित्य में नया म़ोड आया। नोबेल पुरस्कार प्राप्ति के पहले से ही १९०९१० के बीच आपके गीतों का अनुवाद प्रमुख तेलुगु पत्रपत्रिकाआें में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी गीतांजलि का अनेक साहित्यकारों ने तेलुगु में अनुवाद किया। गीतांजलि का तेलुगु अनुवाद का सिलसिला आज तक बरकरार है। उन दिनों अनेक तेलुगु युवा कवि शांतिनिकेतन जाकर रवींद्रनाथ की सन्निधि में बैठकर साहित्य रचना में दीक्षित होकर आते रहे। छायावाद जो भाव कविता के नाम से तेलुगु में उदित हुआ है, उसका अधिकांश भाग रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाआें से प्रभावित है, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव से जिस तरह तेलुगु साहित्य में गुरजाडा अप्पा राव ने नयी कविता की धारा को प्रवाहित किया था, उसी तरह रायप्रोलु सुब्बा राव और अब्बूरि रामकृष्णराव आदि ने वंग साहित्य से एक उपधारा को लेकर उसमें मिला दिया। रायप्रोल के काव्य संकलन जैसे ललिता, स्वप्न कुमारम्‌, जडकुच्चुलु, तृणकंकणम्‌, कष्ट कमला में तथा अब्बूरि के ऊहागानम और मल्लिकांबा आदि काव्यों में रवीन्द्रनाथ का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। परवर्ती काल के अग्र श्रेणी कवि कृष्ण शास्त्री के ऊर्वशी, प्रवासम्‌ कृष्णपक्षम्‌ में तथा मल्लवरपु विश्वेश्वर राव के ‘मधुकीला’ में रवीन्द्रनाथ की कविताआें का बहुत ब़डा प्रभाव दिखायी देता है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय तेलुगु में राष्ट्रीय कविताआेंं के प्रकाश में आने से रवींद्रनाथ के गीतों ने ब़डा योगदान दिया। राष्ट्रीय कविताआें के अतिरिक्त तेलुगु में स्मृति काव्य रचना परंपरा के पीछे ‘स्मरण’ नाम से प्रकाशित रवि बाबू के दो स्मृति गीत प्रेरक रहे हैं। बंगला साहित्य से प्रेरणा पाकर तेलुगु में साहित्य सृजन होता ही रहा। इस सृजन में बंग देश से संबंधित काव्य वस्तु को भी कवियों ने स्वीकार किया। नदी को काव्य नायिका बनाना काव्य जगत में एक नया प्रयोग है। तेलुगु में विश्वनाथ सत्यनारायण के ‘किन्नेरसानी पाटा’ में नदी ‘किन्नेरसानी’ विद्वान विश्वम के पेन्नेटिपाटा काव्यों में ‘पेन्ना नदी’ नायिका के रूप में चित्रित हैं। बंगला कवि जीवनानंद दास के काव्य नायिका धान सिरी नदी से तेलुगु कवियों ने प्रेरणा ली है।
भाव कविता के बाद हिंदी के प्रगतिवाद के समानांतर अभ्युदय कविता के नाम से जो काव्य धारा तेलुगु में आयी है, उसमें भी हम बंगला के प्रभाव को पाते हैं। हरेंद्रनाथ छटोपाध्याय के गीतों का प्रभाव तेलुगु अभ्युदय कविता में देखी जाती है। नजरुल इस्लाम झूरु हा आहे जंग के गीत अमी अल्का अमी शनि, धूमकेतु ज्वाला की पंक्तियों के तर्ज पर श्री श्री की भूतान्नि, यज्ञोपवीतान्नि, वैष्णव गीतान्नि नेनु पंक्तियाँ तथा उनके बहुश्रुत गीत महाप्रस्थानम की पंक्तियां जैसे मरो प्रपंचम्‌ /मरो प्रपंचम/मरो प्रपंचम/पिलसिंदि/पदंडि मुंदुकु/ पदंडि मुंदुक/ पदंडि त्रोसुकु/ पोदाम, पोदाम, पै पै कि नजरुल इस्लाम की इन पंक्तियों की याद दिलाती हैचल, चल, चल, उद्य गगने, बाजे मादल, निम्ने/उतल धरती तल अरुण सातरे तरुण धतीत/चल रेह चल रे चल।’
विजयराघव रेड्‌डी
साभार :स्वतंत्र वार्ता ,निज़ामाबाद 

Wednesday, October 27, 2010

रचना प्रस्तुत करते हुए शायर राजीव दुआ
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निज़ामाबाद की एक रात कविताओं के नाम

निज़ामाबाद,रविवार 24 अक्टूबर की रात निज़ामाबाद  के राजस्थान भवन के प्रांगण मे गीत पूर्णिमा एवम निज़ामाबाद जिला माहेश्वरी सभा के सयुंक्त तत्वधान में शरद पूर्णिमा के अवसर कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया .जिसका शुभारंम्भ  शहर के व्यवसायी गिरिवर लाल अग्रवाल एवम हिंदी दैनिक स्वतंत्र वार्ता के स्थानीय संपादक प्रदीप श्रीवास्तव द्वारा दीप प्रज्वल्लन के साथ हुआ .इस अवसर पार बोलते हुए श्री श्रीवास्तव ने कहा कि कविता हर भाषाओं को अपने आगोश में बांधती है.आप इसे अलग कर के नहीं देख सकते हैं.यही कारण है कि आज पुरे विश्व में हिंदी अपने यहाँ कि अपेक्षा कहीं अधिक फल-फूल रही है.
आज से पच्चीस साल पहले इसी शहर में हिंदी प्रेमियों ने
"इंदूर हिंदी समिति "की स्थापना की थी.जिसका उद्देश्य था की आहिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी भाषा के प्रोत्साहन के लिए कार्यक्रमों का आयोजन करना .कई कार्यक्रम हुए भी .लेकिन  कुछ समय बाद यह संस्था शिथिल पढ़ गई थी,जिसे पुनः सक्रीय किया गया है.जिसके पोर्टल www.indurhindisamitinzb.blogspot.comपार जा कर देखा जा सकता है कि केवल भारत में ही नहीं विदेशो में किस तरह लोग हिंदी के दीवाने हैं.वहीँ श्री अग्रवाल ने कवि सम्मलेन के आयोजन के लिए आयोजकों का आभार व्यक्त किया.कवि सम्मलेन कि शुरुआत श्रीमती हरबंस कौर के गीत "आज"से हुई ,जिसमे उनहोने इंसानों के बिच इन्सान खोजने का प्रयास किया.शहर के कवि घनश्याम पाण्डे ने "चांदनी रात .."में प्रेयसी को खोजने कि बात कही.श्रीमती सुषमा बोधनकर ने लोक प्रिय देश भक्ति गीत "ए-मेरे वतन के लोंगों " की तर्ज पर एक पैरोडी सुनाकर लोगों की वाहवाही लूटी.रियाज तनहा एवम रहीम कमर ने अपनी गजलों से समां बांध दिया.नांदेड(महाराष्ट्र) से आये हास्य कवि बजरंग पारीक ने अपनी हास्य रचनाओं से काव्य रसिकों को लोट-पोट कर दिया.गीत पूर्णिमा के एक संयोजक एवम कवि विजय कुमार मोदानी ने हास्य व श्रंगार रस की रचनाओं से सभी को प्रभावित कर दिया.उन्हों ने कहा कि "भावनाओं की कलम जब प्रेम रस में डूब जाती है तो वह कविता बन जाती है.देश के प्रसिद्ध शायर एवम इंदूर हिंदी समिति के अध्यक्ष राजीव दुआ ने श्रृगार रस से ओत-प्रोत एक गजल "गरीबों के एक आँगन में था ईद का चाँद ,कभी मुस्कराता तो क्या बात होती..." पर तालियों की गडगडाहट से परिसर गुन्ज्मय हो उठा.बल कवि कर्मवीर सिंह की कविताओं को श्रोताओं  ने काफी पसंद किया.नांदेड से आये कवि खटपट भेंसवी की रचना "हर बहु बेटी घर की शान होती है ,बहु भी तो बेटी के समान होती है"को लोंगों ने काफी पसंद किया.
 युवा कवि पवन पाण्डे ने माँ को अर्पित अपनी कविता से लोगों का मनमोह लिया .गीत पूर्णिमा के मुखिया एवम कवि समेलन के संयोजक सीताराम पाण्डे ने जहाँ कवि सम्मलेन का सुन्दर संचालन किया वहीँ उनकी कवित "में हूँ हिंदुस्तान" ने लोगों को मंत्र मुग्ध कर दिया.इस अवसर पर हैदराबाद से आये कवि एवम मुख्य अतिथि वेणु गोपाल भट्टल ने अपनी रचना "चिराग ऐसे जले किबेमिसाल रहे ,किसी का घर न जले यह ख्याल रहे"ने सभी को आकर्षित कर दिया.उनके द्वारा राजस्थानी शेली में प्रस्तुत रचनाओं को भी सराहा गया.इस मौके पर संस्था की ओर से उनका शाल श्रीफल दे कर सम्मानित किया गया .इस अवसर पर कवियों के  साथ मंच पर सर्वश्री गिरिवर लाल अग्रवाल.बालकिशन इन्नानी .जसवंत लाल के.शाह के साथ साथ चन्द्र प्रकाश मोदानी,नरेश मोदानी,दामोदर लाल जोशी भी उपस्थित थे.


Sunday, October 24, 2010

लंदन में हिन्दी

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लंदन के नेहरू केन्द्र में गोष्ठी के बाद बैठे हुए बाएं से दाएं – डा. अचला शर्मा (उपाध्यक्ष कथा यू.के.), कैलाश बुधवार, डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, पद्मश्री आलोक मेहता, मोनका मोहता, तेजेन्द्र शर्मा (महासचिव कथा यू.के.)। खड़े हुए बाएं से दाएं – डा. हिलाल फ़रीद, दिव्या माथुर, परवेज़ आलम, डा. मधुप मोहता, शिखा वार्षणेय़।
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जब तक हिन्दी तरक्की और बेहतरी से नहीं जुड़ेगी उसे 
   उसका सही दर्जा नहीं मिल पाएगा :डा. अचला शर्मा

लन्दन. “समाचार पत्रों की इन्फ़लेटिड बिक्री संख्या की जांच होनी चाहिये। सरकारी विज्ञापन पाने के लिये समाच्रार पत्र बिक्री संख्या कहीं बढ़ा चढ़ा कर दिखाते हैं। जबकि सच यह है कि दिल्ली जैसे शहर में टेम्पो प्रिटिंग प्रेस से अख़बार ले कर चलता है और शाहदरा के किसी गोदाम में डम्प कर देता है।” यह कहना था वरिष्ठ पत्रकार एवं नई दुनियां के सम्पादक पद्मश्री आलोक मेहता का। आलोक मेहता इन दिनों लंदन यात्रा पर हैं और कल शाम वे लंदन के नेहरू केन्द्र में पत्रकारों और साहित्यकारों को सम्बोधित कर रहे थे। इस गोष्ठी का आयोजन कथा यूके एवं एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स ने मिल कर किया था।
कथा यूके के महासचिव एवं कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने आलोक मेहता का परिचय करवाते हुए उनकी महत्वपूर्ण कृति पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा के हवाले से भारत में हाल ही में हुई घटनाओं पर भारतीय मीडिया की भूमिका पर आलोक मेहता से टिप्पणी करने को कहा – जिनमें रामजन्म बाबरी मस्जिद विवाद पर उच्च न्यायालय का फ़ैसला; कॉमनवेल्थ खेल; आतंकवाद आदि शामिल हैं।
आलोक मेहता का मानना है कि यदि हम बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के समय की पत्रकारिता की आज की पत्रकारिता से तुलना करें तो हम पाएंगे कि मीडिया ने ख़ासे सयंम का परिचय दिया है। अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों को भी हमने अपने साथ जोड़ा है और तय किया गया है कि सेसेनलिज़म से बचा जाए। सरकार को खासा डर था कि इस निर्णय के बाद दंगों की आग से फैल सकती है। मीडिया ने पुराने मस्जिद टूटने के चित्रों का इस्तेमाल नहीं किया। और कुल मिला कर समाचार कवरेज परिपक्व रहा।
आलोक मेहता ने स्वीकार किया कि कॉमनवेल्थ खेलों के कवरेज में कुछ अति अवश्य हुई, मगर यह ज़रूरी भी थी। यह ठीक है कि खेलों और भारत की छवि विश्व में कुछ हद तक धूमिल हुई, मगर इसी वजह से सरकारी मशीनरी हरक़त में आई और अंततः खेल सही ढंग से संपन्न हो पाए। उन्होंने बताया कि जब वे नई दुनियां में खेलों की तैयारी के बारे में समाचार प्रकाशित करते थे तो राजनीतिज्ञ सवाल भी करते थे कि उनके विरुद्ध क्यों समाचार प्रकाशित किए जा रहे हैं। दरअसल सरकार की हालत ऐसी है जैसे इन्सान एंटिबॉयटिक से इम्यून हो जाता है ठीक वैसे ही सरकार भी आलोचना से इम्यून हो चुकी है।
वरिष्ठ पत्रकार विजय राणा का मत था कि डी.ए.वी.पी. के माध्यम से सरकार सरकार समाचार पत्रों को विज्ञापन दे कर अपने विरुद्ध लिखने से रोकने में सफल हो जाती है। हिन्दुस्तान टाइम्स एवं टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे दैत्यों को तो करोड़ों के विज्ञापन मिलते हैं। क्या ये विज्ञापन भी भ्रष्टाचार नहीं फैलाते।
मधुप मोहता का सवाल था कि सत्तर हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च कर कॉमनवेल्थ खेल करवाए जा सकते हैं तो केवल सौ करोड़ का ख़र्चा कर के हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा क्यों नहीं बनवाया जा रहा। इस पर आलोक मेहता का कहना था कि इसमे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। यदि सरकार 10 बड़े व्यापारी घरानों से पैसा इकट्ठा करने को कहे तो सौ करोड़ रुपये महीने भर में इकट्ठे हो सकते हैं। शिवकांत को समस्या इस बात में दिखाई देती है कि प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को कैसे मनाया जाए कि वे व्यापारी घरानों को इस विषय में संपर्क करें।
कथा यूके की उपाध्यक्ष डा. अचला शर्मा की चिन्ता थी कि मह्तवाकांक्षा की भाषा अंग्रेज़ी बन गई है। जब तक हिन्दी तरक्की और बेहतरी से नहीं जुड़ेगी उसे उसका सही दर्जा नहीं मिल पाएगा।
डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव का कहना था कि भाषा में दिनमान के ज़माने से आजतक ख़ासा परिवर्तन आ गया है। अब प्रिन्ट मीडिया की भाषा आम इन्सान की भाषा हो गई है। आलोक मेहता ने कहा कि हमें सतर्कता बरतनी होगी। हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्द आने से हिन्दी अधिक समृद्ध होगी मगर यह हमें सावधानी से करना होगा। जो नये शब्द हैं उन्हें हिन्दी में ज़रूर शामिल किया जाए, जैसे कि मेट्रो के लिये नया शब्द गढ़ने की ज़रूरत नहीं। मगर हिन्दी के प्रचलित शब्दों को हटा कर उनके स्थान पर अंग्रेज़ी के शब्द न थोपे जाएं।
नेहरू सेन्टर की निदेशक मोनिका मोहता ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।
साभार:हिंद युग्म

Friday, October 22, 2010

दुनियां में हिंदी तीसरे नंबर पर

दुनियां में सर्वाधिक बोली
जाने वाली भाषाओं में
हिंदी तीसरे नंबर
 
दुनियां में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर पर है मगर भारत में ही उसकी दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। राजभाषा होने के कारण इसके नाम पर सरकारी अनुदानों और बजट की लूटखसोट तो खूब होती मगर विकास का ग्राफ निरंतर नीचे ही गिरता जा रहा है। हिंदी दिवस मनाकर हिंदी में काम करने के लच्छेदार भाषण दिए जाते हैं। हिंदी अधिकारी, जिन्हें अधिकार के साथ हिंदी के साथ नाइंसाफी करने का लाइसेंस मिला है, ही इतने सचेत नहीं हैं कि हिंदी का कल्याण हो सके। कुछ अड़चनों का रोना रोकर अपनी जिम्मेदारी निभाने की बात समझा दी जाती है। 
अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को पढ़ाना शौक और शान है। अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी ही क्या किसी अन्य भारतीय भाषा में पढ़ने वाले बच्चे दोयम समझे जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले बनारस के पास अपने गांव मैं गया था। पता चला कि वहां तमाम कानवेंट स्कूल खुल गए हैं। गांव का सरकारी प्राइमरी स्कूल, जिसमें खांटी हिंदी में पढ़ाई होती, अब वीरान सा दिखता है। लोगों का तर्क है कि आगे जाकर नौकरी तो अंग्रेजी पढ़नेवालों को मिलती है तो फि हम हिंदी में ही पढ़कर क्या करेंगे। यह चिंताजनक है और देश की शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामी भी है।जब गोजगार हासिल करने की बुनियादी जरूरतों में परिवर्तन हो रहा है तो बेसिक शिक्षा प्रणाली में भी वही परिवर्तन कब लाए जाएंगे। सही यह है कि वोट के चक्रव्यूह में फंसी भारतीय राजनीति हिंदी को न तो छोड़ पा रही है नही पूरी तरह से आत्मसात ही कर पा रही है।
इसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण तो हिंदी पूरी तरह से अभी भी पूरे देश की संपर्क भाषा नहीं बन पाई है। अब वैश्वीकरण की आंधी में अंग्रेजी ही शिक्षा व बोलचाल का भाषा बन गई है। हिदी जैसा संकट दूसरी हिंदी भाषाओं के सामने भी मुंह बाए खड़ा है मगर अहिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषा के प्रति क्षेत्रीय राजनीति के कारण थोड़ी जागरूकता है। तभी तो पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा में तरजीह दी जाने लगी है। दक्षिण के राज्य तो इसमें सबसे आगे हैं। कुल मिलाकर हिंदी हासिए पर जा रही है।
अब तो हिंदी की और भी शामत आने वाली है। नामवर सिंह जैसे हिंदी के नामचीन साहित्यकार तक स्थानीय बोलियों में शिक्षा की वकालत करने लगे हैं।  अगर सचमुच ऐसा हो जाता है तो सोचिये कि जिन राज्यों में अब तक हिंदी ही प्रमुख भाषा थी वहीं से भी उसे बेदखल होना पड़ेगा। यह हिंदी का उज्ज्वल भविष्य देखने वालों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अगर यही हाल रहा तो आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूलरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा रह जाएगी। क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी ? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी ? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बनपाएगी हिंदी। आ रहा है हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए।
विश्व की दस प्रमुख भाषाएं
१- चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। मंदरीन में हलो को नि हाओ कहा जाता है। यह शब्द आसानी से लिख दिया मगर उच्चारण तो सीखना पड़ेगा।
२-अंग्रेजी बोलने वाले पूरी दुनिया में ५०८ मिलियन हैं और यह विश्व की दूसरे नंबर की भाषा है। दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषा भी अंग्रेजी ही है। मूलतः यह अमेरिका आस्ट्रेलिया, इग्लैंड, जिम्बाब्वे, कैरेबियन, हांगकांग, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में बोली जाती है। हलो अंग्रेजी का ही शब्द है।
३- भारत की राजभाषा हिंदी को बोलने वाले पूरी दुनियां में ४९७ मिलियन हैं। इनमें कई बोलियां भी हैं जो हिंदी ही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बढ़ती आबादी के हिसाब से भारत कभी चीन को पछाड़ सकता है। इस हालत में नंबर एक पर काबिज चीनी भाषा मंदरीन को हिंदी पीछे छोड़ देगी। फिलहाल हिंदी अभी विश्व की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी में हलो को नमस्ते कहते है।
४- स्पेनी भाषा बोलने वालों की तादाद ३९२ मिलियन है। यह दक्षिणी अमेरिकी और मध्य अमेरिकी देशों के अलावा स्पेन और क्यूबा वगैरह में बोली जाती है। अंग्रेजी के तमाम शब्द मसलन टारनाडो, बोनान्जा वगैरह स्पेनी भाषा ले लिए गए हैं। स्पेनी में हलो को होला कहते हैं।
५- रूसी बोलने वाले दुनियाभर में २७७ मिलियन हैं। और यह दुनियां की पांचवें नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। संयुक्तराष्ट्र की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। यह रूस के अलावा बेलारूस, कजाकस्तान वगैरह में बोली जाती है। रूसी में हलो को जेद्रावस्तूवूइते कहा जाता है।
६-दुनिया की पुरानी भाषाओं में से एक अरबी भाषा बोलने वाले २४६ मिलियन लोग हैं। सऊदू अरब, कुवैत, इराक, सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र में इसके बोलने वाले हैं। इसके अलावा मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ कुरान की भाणा होने के कारण दूसरे देशों में भी अरबी बोली और समझी जाती है। १९७४ में संयुक्त राष्ट्र ने भी अरबी को मान्यता प्रदान कर दी। अरबी में हलो को अलसलामवालेकुम कहा जाता है।
७- पूरी दुनिया में २११ मिलियन लोग बांग्ला भाषा बोलते हैं। यह दुनिया की सातवें नंबर की भाषा है। इनमें से १२० मिलियन लोग तो बांग्लादेश में ही रहते है। चारो तरफ से भारत से घिरा हुआ है बांग्लादेश । बांग्ला बोलने वालों की बाकी जमात भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व पूर्वी भारत के असम वगैरह में भी है। बांग्ला में हलो को एईजे कहा जाता है।
८- १२वीं शताब्दी बहुत कम लोगों के बीच बोली जानेवाली भाषा पुर्तगीज आज १९१ मिलियन लोगों की दुनिया का आठवें नंबर की भाषा है। स्पेन से आजाद होने के बाद पुर्तगाल ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेशों का विस्तार किया। वास्कोडिगामा से आप भी परिचित होंगे जिसने भारत की खोज की। फिलहाल ब्राजील, मकाउ, अंगोला, वेनेजुएला और मोजांबिक में इस भाषा के बोलने वाले ज्यादा है। पुर्तगीज में हलो को बोमदिया कहते हैं।
९- मलय-इंडोनेशियन दुनिया की नौंवें नंबर की भाषा है। दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी के लिहाज से मलेशिया का छठां नंबर है। मलय-इंडोनेशियिन मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों में बोली जाती है। १३००० द्वीपों में अवस्थित मलेशिया और इन्डोनेशिया की भाषा एक ही मूल भाषा से विकसित हुई है। इंडोनेशियन में हलो को सेलामतपागी कहा जाता है।
१०- फ्रेंच यानी फ्रांसीसी १२९ मिलियन लोग बोलते हैं। इस लिहाज से यह दुनियां में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में दसवें नंबर पर है। यह फ्रांस के अलावा बेल्जियम, कनाडा, रवांडा, कैमरून और हैती में बोली जाती है। फ्रेंच में हलो को बोनजूर कहते हैं।  
वादा आज तक पूरा नहीं हो पाया
"संविधान के अनुसार २६ जनवरी १९६५ से भारतीय संघ की राजभाषा देव नागरी लिपि में हिन्दी हो गई है और सरकारी कामकाज के लिए हिन्दी अंतरराष्टीय अंकों का प्रयोग होगा |" इस देश के संविधान ने इस देश की आत्मा अर्थात "हिन्दी" से एक वादा किया था और वह आज तक पूरा नहीं हो पाया और हिन्दी अपने इस अधिकार के लिए आज तक संविधान के सामने अपने हाथ फैला ये आंसू बहा रही है | क्या वास्तव में हिन्दी इतनी बुरी है कि हम उसे अपनाना नहीं चाहते ? ( विजयराज चौहान (गजब) chauhan.vijayraj@gmail.com के प्रकाशित उपन्यास "भारत/INDIA" के पेज १५६-१५८ ( http://hindibharat.wordpress.com/2008/08/10/11/ )
पर उपन्यास के पात्र इसी तरह से चिंता जाहिर करते हैं। मुख्य पात्र भारत द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्कूल समारोह में हिंदी के संदर्भ में ये बातें कही जातीं है।
आगे इस उपन्यास के पात्र यह भी कहते हैं कि---
नहीं वह इतनी बुरी चीज नहीं है | वह इस दुनिया कि सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरे नम्बर कि भाषा है। इसकी महत्ता को भारत के अनेक महापुरुषों ने भी स्वीकार किया है।
इसकी इस महत्ता को देखकर ही एक ऐसे व्यक्ति "अमीर खुसरो" जिसकी मूल भाषा अरबी ,फारसी और उर्दू थी उसने कहा था
"मैं हिन्दुस्तान कि तूती हूँ ,यदि तुम वास्तव में मुझे जानना चाहते हो हिन्दवी(हिन्दी) में पूछो में तुम्हें अनुपम बातें बता सकता हूँ "
हिन्दी का महत्व समझते हुए ही उर्दू के एक शायर मुहम्मद इकबाल ने बड़े गर्व से कहा था कि -- 
"हिन्दी है हम वतन है हिन्दोंस्ता हमारा |"
हिन्दी के इसी महत्व को जान कर भारत के एक युगपुरूष महर्षि दया-नंद सरस्वती जिनकी मूल भाषा गुजराती थी, ने कहा था  "हिन्दी के द्वारा ही भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। "
लौह पुरुष सरदार वल्बभाई पटेल ने और आजादी के बाद कहा था --- 
"हिन्दी अब सारे राष्ट्र की भाषा बन गई है इसके अध्ययन एवं इसे सर्वोतम बनाने में हमें गर्व होना चाहिए |"
गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने जिनकी मूल भाषा बांग्ला थी | उन्होंने कहा था कि ---
"यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते है तो हमें राष्ट्र भाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश में सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और वों भाषा हिन्दी है |"
नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने और कहा था कि --
"हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है |"
तस्वीर का दूसरा पहलू
आज हिंदी देश को जोड़ने की बजाए विरोध की भाषा बन गई है। राजनीति ने इसे उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी विरोध पर ही पूरी राजनीति टिक रई है। पूरे भारत को एक भाषा से जोड़ने की आजाद भारत की कोशिश अब राजनीतिक विरोध के कारण कहने को त्रिभाषा फार्मूले में तब्दील हो गई है मगर अप्रत्क्ष तौर पर सभी जगह हिंदी का विरोध ही दिखता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि हिंदी राज्य स्तर पर हिंदी को सर्वमान्य का सम्मान नहीं मिल पाया है। जिस देश में प्राथमिक शिक्षा तक का भी राछ्ट्रीयकरण सिर्फ हिंदी को अपनाने के विरोध के कारण नहीं हो पाया तो उस देश की एकता का सूत्र कैसे बन सकती है हिंदी। अब वैश्वीकरण के दौर में कम से कम शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी ज्यादा कामयाब होती दिख रही है। कानून हिंदी को सब दर्जा हासिल है मगर व्यवहारिक स्तर पर सिर्फ उपेक्षा ही हिंदी के हाथ लगी है। क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला होने के बाद से तो बोलचाल व शिक्षा सभी के स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं को मिली तरजीह ने एक राष्ट्र-एक भाषा की योजना को धूल में मिला दिया है। अगर हिंदी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनाया नहीं गया तो निश्चित तौर पर इसकी जगह अंग्रेजी ले लेगी और तब क्षेत्रीय भाषाओँ के भी वजूद का संकट खड़ा हो जाएगा। अगर हिंदी बचती है तो क्षेत्रीय भाषाओं का भी वजूद बच पाएगा अन्यथा अंग्रेजी इन सभी को निगल जाएगी। और अंग्रेजी ने तो अब शिक्षा और रोजगार के जरिए यह करना शुरू भी कर दिया है।
लेखक: डॉ मान्धाता सिंह
http://apnamat.blogspot.com

Sunday, October 10, 2010


दक्षिण भारत में हिंदी 
पत्रकारिता का उदय 
-डॉ. सी. जय शंकर बाबु
दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता का उदय विगत शताब्दी के आरंभिक दशकों में हुआ । हिंदी प्रचार आंदोलन के आरंभ हो जाने से हिंदी पत्रकारिता की वृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त हो गया । दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता के उदय एवं विकास संबंधी तथ्यों का आकलन स्वातंत्र्यपूर्व तथा स्वातंत्र्योत्तर युगों के परिप्रेक्ष्य में किया जा सकता है । दक्षिण भारत में स्वातंत्र्यपूर्व युग में हिंदी पत्रकारिता का समग्र अध्ययन आगे प्रस्तुत है ।
दक्षिण भारत में स्वातंत्र्यपूर्व हिंदी पत्रकारिता
भारत में जब औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा गया और स्वाधीनता हासिल करने हेतु आंदोलन का सूत्रपात हुआ, उन्हीं दिनों में जन जागृति पैदा करने की दृष्टि से अनेक देश-भक्तों ने देश के विभिन्न प्रांतों से भारतीय भाषाओं में समाचारपत्रों के प्रकाशन आरंभ किए । इसी दौर में दक्षिण भारत में भी आज़ादी आंदोलन की गतिविधियों में तेजी लाने के लिए जहाँ एक ओर स्थानीय भाषाओं में समाचारपत्रों का प्रकाशन आरंभ हुआ, वहीं दूसरी ओर आंदोलन की सफलता हेतु भारत की जनता में भावात्मक एकता जगाने की अनिवार्यता को महसूस करते हुए दक्षिण में हिंदी भाषा प्रचार की आवश्यकता भी महसूस की गई तथा तत्परता से इस कार्य की रूप-रेखा भी बनाई गई । दक्षिण में हिंदी प्रचार की गतिविधियों के परिणामस्वरूप हिंदी पत्रकारिता का उद्भव एवं कालांतर में विकास भी संभव हो पाया ।
स्वाधीनता पूर्व युग में भारतीय पत्रकारिता का उदय शासकों द्वारा प्रशासन की सुविधा हेतु स्थापित प्रेसिडेंसी केंद्रों में हुआ था । दक्षिण भारत में मद्रास महानगर भी ऐसा एक प्रेसिडेंसी केंद्र था, जहाँ अंग्रेज़ी के अलावा तमिल, तेलुगु आदि भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ था । स्वाधीनता आंदोलन के तिलक तथा गांधी युगों के दौर में मद्रास को केंद्र बनाकर हिंदी प्रचार की गतिविधियाँ आरंभ होने के साथ ही दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ ।
सर्वप्रथम तमिल के सुप्रसिद्ध कवि सुब्रह्मण्य भारती ने अपनी तमिल पत्रिका ‘इंडिया’ के माध्यम से तमिलभाषियों से अपील की थी कि वे राष्ट्रीयता के हित में हिंदी सीखें । इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपनी पत्रिका में हिंदी की सामग्री के प्रकाशन के लिए भी कुछ पृष्ठ सुरक्षित रखना सुनिश्चित किया था । महाकवि भारती ने अपने तमिल पत्र के माध्यम से हिंदी भाषाई प्रेम एवं हिंदी पत्रकारिता की नींव डाली थी । मद्रास (चेन्नई) से ही दक्षिण भारत के प्रथम हिंदी पत्र का प्रकाशन हुआ सन् 1921 में । इस पत्र के उदय के समय तक हिंदी प्रचार का व्यवस्थित आंदोलन भी शुरू हो चुका था और आंदोलन के कार्यकर्त्ता के रूप में उत्तर भारत से आगत श्री क्षेमानंद राहत के प्रयासों से साप्ताहिक ‘भारत तिलक’ के प्रकाशन के साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ । पूर्णतः हिंदी में प्रकाशित दक्षिण भारत का पहला पत्र होने कारण ‘भारत तिलक’ को ही दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में दक्षिण भारत की प्रथम हिंदी पत्र के रूप में स्थान मिलना समीचीन होगा । लगभग उन्हीं दिनों में हिंदुस्तानी सेवा दल के मद्रास केंद्र की ओर से डॉ. एस.एन. हार्डिंकर के संपादन में ‘स्वयं सेवक’ के नाम से एक अंग्रेजी-हिंदी द्विभाषी पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ भी हुआ था । 1923 में हिंदी प्रचार आंदोलन की मुखपत्रिका के रूप में ‘हिंदी प्रचारक’ का प्रकाशन दक्षिण में हिंदी प्रचार आंदोलन की गति सुनिश्चित करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ । हिंदी प्रचार आंदोलन की पत्रकारिता का उदय भी ‘हिंदी प्रचारक’ से ही माना जा सकता है ।
मद्रास प्रेसिडेंसी केंद्र से हिंदी पत्रकारिता के उदय के लगभग एक दशक के बाद क्रमशः आंध्र, पांडिच्चेरी तथा केरल से हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ । कर्नाटक प्रांत में हिंदी पत्रकारिता का उदय स्वाधीनता प्राप्ति के बाद ही संभह हो पाया । इन प्रदेशों में हिंदी पत्रकारिता के उदय के कारण तथा उदय के दिनों की परिस्थितियों में विविधता व भिन्नता भी नज़र आती है । आंध्र में मुख्यतः हैदराबाद व उसके आस-पास के प्रांत निज़ाम रियासत के रूप में मुसलमान शासकों के अधीन था । आरंभ से हैदराबाद का शासन विवादों से मुक्त आदर्श प्रदेश के रूप में ख्यात् था । किंतु निज़ाम नवाब स्वभावतः अंग्रेज़ों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखते हुए उनकी अधीनता को स्वीकृति दे चुके थे । इसी दौर में हैदराबाद रियासत में सांप्रदायिक विद्वेश की भावनाएँ फैल गईं । निज़ाम शासकों के आशीर्वाद प्राप्त कट्टर इस्लामी उग्रपंथियों ने हिंदुओं को यातनाएँ देते हुए धर्म परिवर्तन के लिए उन पर जोर-जबरदस्ती भी शूरू कर दी थी, इतिहास के पन्नों से हमें इन घटनाओं की जानकारी मिलती है । सनातन धर्मियों के समक्ष उपस्थित खतरे को दूर करने, धर्म प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से 1931 में श्री अर्जुन प्रसाद मिश्र कंटक के प्रयासों से मासिक हिंदी पत्रिका ‘भाग्योदय’ के प्रकाशन से आंध्र प्रांत में हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ । आंध्र प्रांत से आरंभिक दिनों में प्रकाशित लगभग सभी हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ धार्मिक - राष्ट्रीय चेतना के परिणामस्वरूप ही प्रकाशित हुई थीं । आर्य समाजीय हिंदी पत्रकारिता का उद्देश्य भी राष्ट्रीय चेतना का प्रसारण ही रहा है ।
पांडिच्चेरी (पुदुच्चेरी) प्रदेश में स्वाधीनता आंदोलन के आध्यात्मिक नेता महात्मा श्री अरविंद के आश्रम से चौथे दशक में हिंदी पत्रिका ‘अदिति’ के प्रकाशन के साथ ही हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ । राष्ट्रीयता के आराधक श्री अरविंद की विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार हेतु ‘अदिति’ का प्रकाशन हुआ था । राष्ट्रीय विचारधारा को बल प्रदान करने में ‘अदिति’ की अग्रणी भूमिका रही ।
केरल की हिंदी पत्रकारिता के उदय का मूल कारण हिंदी प्रचार आंदोलन ही रहा । हिंदी प्रचार की गतिविधियों में संलग्न मलयालम भाषी हिंदी प्रेमी एवं हिंदी प्रचार आंदोलन के कर्मठ कार्यकर्त्ता श्री नीलकंठन नायर के प्रयासों से प्रकाशित ‘हिंदी मित्र’ से केरल की हिंदी पत्रकारिता का उदय माना जा सकता है । ‘हिंदी मित्र’ के प्रकाशन के बाद ही केरल से अन्य हिंदी पत्रकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ । हिंदी प्रचार संबंधी राष्ट्रीय महत्व के कार्य में हाथ बंटाने के उद्देश्य से केरल की मलयालम पत्रकारिता ने भी साप्ताहिक हिंदी परिशिष्ट प्रकाशित करके सद्भाना दर्शायी थी । कर्नाटक में भले ही हिंदी प्रचार आंदोलन का सूत्रपात स्वाधीनतापूर्व युग में ही हुआ था, किंतु कोई पत्र-पत्रिकाएँ उक्त अवधि में वहाँ से हिंदी में प्रकाशित नहीं हो पाईं । हिंदी प्रचारार्थ स्थापित एक संस्था की मुखपत्रिका के रूप में 1954 में प्रकाशित ‘हिंदी वाणी’ से कर्नाटक में हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ था ।
दक्षिण के सभी प्रदेशों में हिंदी पत्रकारिता के उदय के कारणों एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं के उद्देश्यों के अध्ययन से यह तथ्य उजागर हो जाता है कि राष्ट्रीयता की प्रबल भावनाओं से ही दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ था । स्वाधीनता आंदोलन को अपेक्षित संबल प्रदान करने की दिशा में दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता ने भी अग्रणी भूमिका निभाई थी । हिंदी प्रचार आंदोलन, धार्मिक जागरण जैसी जो भी घटनाएँ आज़ादी आंदोलन के युग में दक्षिण में घटीं, उनका प्रमुख उद्देश्य यहाँ की जनता की सोच को उचित दिशा देकर राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति मनसा-वाचा-कर्मणा समर्पित होने के लिए अपेक्षित भावभूमि तैयार करने में तत्पर होने के लिए विवश करने का ही रहा है, इसमें दो राय नहीं हैं । राष्ट्रीय आंदोलन के एक अभिन्न अंग के रूप में हिंदी प्रचार एवं खादी प्रचार को अपना दैनिक कार्यक्रम मानते हुए अनुशासनबद्ध कार्यकर्त्ताओं ने गाँव-गाँव में पहुँचकर राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ फैलाई थीं । इन आंदोलनों को हिंदी पत्रकारिता से अपेक्षित प्रेरणा एवं संबल भी मिला था ।
दक्षिण भारत में स्वातंत्र्यपूर्व हिंदी पत्रकारिता की चेतना
दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता के उदय से संबंधित अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि राष्ट्रीयता के भावबोध एवं राष्ट्रीय आंदोलन के अंग के रूप में हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ था । हिंदी पत्रकारिता की मूल चेतना राष्ट्रीयता की भावना ही रही है । स्वाधीनतापूर्व युग में हिंदी पत्रकारिता के उदय के दिनों से लेकर स्वाधीनता की प्राप्ति तक प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं के उद्देश्य, उनमें प्रकाशित सामग्री तथा उन पत्र-पत्रिकाओं की देन को ध्यान में रखते हुए दक्षिण भारत की स्वातंत्र्यपूर्व हिंदी पत्रकारिता की मूलचेतना को आंकने का प्रयास अगले अनुच्छेदों में किया जा रहा है ।
दक्षिण भारत से विभिन्न केंद्रों से 1921 से 1947 तक प्रकाशित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं को समग्र रूप में स्वाधीनतापूर्व की हिंदी पत्रकारिता के रूप में मानकर यदि हम मूल्यांकन करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दक्षिण भारत की स्वाधीनतापूर्व हिंदी पत्रकारिता की चेतना के मूल में किस प्रकार की भावनाएँ थीं ।
स्वाधीनतापूर्व युग में दक्षिण भारत से लगभग डेढ़ दर्जन पत्र-पत्रिकाएँ हिंदी में प्रकाशित हुई थीं । आधे दर्जन अन्य भाषा (तमिल एवं मलयालम) के समाचारपत्रों ने कुछ समय तक हिंदी की समग्री को स्थान देकर भाषाई सद्भावना का उदाहरण उपस्थित किया था । तमिलनाडु से प्रकाशित हिंदी पत्रिकाओं की मूल चेतना की ओर यदि हम दृष्टिपात करेंगे तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तमिलनाडु में राष्ट्रीय भावनाओं के पोषणार्थ हिंदी पत्रकारिता ने कार्य किया । तमिल की पत्र-पत्रिकाओं ने भी हिंदी की सामग्री के प्रकाशन के साथ भाषाई सद्भावना दर्शायी थी । समाचार प्रकाशनार्थ प्रकाशित पत्रों के माध्यम से राजनीतिक चेतना जगाने की कोशिशें की गई थीं । हिंदी प्रचार आंदोलन को गति देने के उद्देश्य से दो-चार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ जिन की मूल चेतना भावात्मक एकता की प्राप्ति की दिशा में योग देने में निहित थी । साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गरिमा को रेखांकित करने की दृष्टि से जहाँ एक ओर साहित्यिक पत्रकारिता का योग रहा जबकि सांप्रदायिक सिद्धांतों के प्रचारार्थ धार्मिक चेतना को जगाने की दृष्टि से भी दो पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई थीं । इस विश्लेषण से यह तथ्य उद्घाटित होता है कि स्वाधीनतापूर्व युग में तमिलनाडु से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं की समग्र चेतना से राष्ट्रीय आंदोलन को बल मिला था । स्वाधीनता के परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा एवं निष्ठा भरने में इन पत्र-पत्रिकाओं ने अवश्य ही तत्परता दर्शायी थी ।
आंध्र प्रदेश की हिंदी पत्रकारिता की पृष्ठभमि तमिलनाडु की स्थितियों से भिन्नता रखती है । यहाँ धार्मिक चेतना जगाने, सनातन धर्म प्रचारार्थ, आर्य समाजीय वैचारिक मूल्यों के प्रसारार्थ पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई थीं । आर्य समाजीय पत्र-पत्रकाओं का लक्ष्य जन-जागृति भी था । इन्हीं दिनों में व्यापार की रीति-नीतियों पर केंद्रित एक पत्रिका भी हैदराबाद से प्रकाशित हुई थी । हैदराबाद रियासत में इस्लाम धर्मी शासकों के दौर में जब अल्प संख्यक कट्टरपंथियों द्वारा अधिसंख्य हिंदू धर्मियों पर खतरा के बादल मंडराने लगे, तब व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयासों से धार्मिक चेतना जगाकर जन जागृति लाने, तद्वारा राष्ट्रीयता की भावनाओं को सींचने का प्रयास किया गया । आरंभिक दिनों में जहाँ वैयक्तिक प्रयासों से सनातन धर्म प्रचारार्थ पत्रिकाएँ निकाली गईं, वहीं दूसरी ओर आर्य समाज की ओर से जन जागृति एवं जातीय चेतना को लक्ष्य में रखते हुए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया गया । निज़ाम शासकों के विरुद्ध जनमत तैयार करने में संलग्न इन पत्र-पत्रिकाओं पर शासक पक्ष द्वारा रोक लगाए जाने के बावजूद इधर-उधर से प्रकाशित होते हुए अपने अस्तित्व को बरक़रार रखते हुए इन पत्रों ने नवचेतना को सींचकर जागृति पैदा की थी । आंध्र के इन सभी प्रयासों की समग्र चेतना भी अखंड राष्ट्र की संकल्पना हेतु धार्मिक चेतना जगाकर राष्ट्रीय चेतना में प्रवृत्त करने की थी ।
केरल की हिंदी पत्रकारिता का आदर्श हिंदी प्रचार आंदोलन को गति देने का रहा । व्यक्तिगत प्रयासों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भाषाई प्रेम, राष्ट्रीय एकता की भावनाओं का प्रचार किया गया था । मलयालम की पत्र-पत्रिकाओं ने भी कुछ समय तक हिंदी के परिशिष्ट छापकर भाषाई सद्भवाना का श्रेष्ठ उदाहरण उपस्थित किया था ।
पांडिच्चेरी कि पत्रकारिता की मूल-प्रेरणा भी राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत विराट व्यक्तित्व महात्मा अरविंद की रही है । दक्षिण भारत से स्वाधीनतापूर्व प्रकाशित समस्त हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की मूल चेतना राष्ट्रीय आंदोलन को बल देने की ही थी । राष्ट्रवादियों के चिंतन को बौद्धिक एवं हृदयगत संबल देने की दिशा में अपने स्तर पर संभव योगदान इन पत्र-पत्रिकाओं ने सुनिश्चित किया था ।
दक्षिण भारत में स्वातंत्र्यपूर्व हिंदी पत्रकारिता का स्वरूप एवं प्रमुख प्रवृत्तियाँ
दक्षिण भारत में स्वातंत्र्यपूर्व युग में प्रकाशित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं को मुख्यतः निम्नांकित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –
1. हिंदी प्रचार के उद्देश्य से प्रकाशित हिंदी समाचारपत्र ।
2. हिंदी प्रचार आंदोलन में संलग्न संस्थाओं की मुख-पत्रिकाएँ ।
3. हिंदी साहित्यिक पत्रिकाएँ ।
4. धार्मिक आंदोलन के अंग के रूप में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ (विभिन्न सांप्रदायिक सिद्धांतों के प्रचार हेतु प्रकाशित पत्रिकाएँ, आर्य समाज द्वारा वैदिक धर्म के प्रचार एवं जनजागृति हेतु प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ भी इस वर्ग में शामिल मानी जाएंगी ।)
5. अन्य पत्र-पत्रिकाएँ ।
सर्वप्रथम मद्रास से प्रकाशित ‘भारत तिलक’ वास्तव में एक समाचारपत्र का रूप लिया हुआ था और इसमें स्थानीय समाचार प्रकाशित होते थे । हिंदी प्रचार आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्त्ता द्वारा संपादित होने के कारण हिंदी प्रचार-प्रचार भी इस पत्र का अभिन्न उद्देश्य बन गया था । हिंदी प्रचार आंदोलन को गति देने के उद्देश्य से हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न संस्थाओं की ओर से प्रकाशित मुख-पत्रिकाओं में हिंदी प्रचार आंदोलन की गतिविधियों की खबरें, अन्य महत्वपूर्ण सूचनाएँ, लेख आदि प्रकाशित होती थीं । ऐसी पत्रिकाओं में ‘हिंदी प्रचारक’ प्रथम पत्र है जो कालांतर में ‘हिंदी प्रचार समाचार’ के नाम से प्रकाशित होने लगी थी और आज भी उसी नाम से प्रकाशित हो रही है । ‘हिंदी पत्रिका’ के नाम से एक पत्रिका भी तमिलनाडु के तिरुच्चिरापल्ली से प्रकाशित हुई थी, जो अब भी प्रकाशित हो रही है । इन पत्रिकाओं की प्रमुख प्रवृत्तियाँ हिंदी प्रचार आंदोलन के कार्यकर्त्ताओं के लिए प्रेरक एवं उपयोगी लेख, हिंदी प्रचार की गतिविधियों से संबंधित खबरें व अन्य सामग्री प्रकाशित करने की रही हैं ।
उक्त पत्रिकाओं के अलावा हिंदी साहित्यिक पत्रिकाएँ ‘दक्षिण भारत’ और ‘दक्खिनी हिंद’ मद्रास से प्रकाशित हुई थीं । इनमें मौलिक एवं अनूदित रचनाओं के अलावा आलोचनात्मक लेख, तुलनात्मक आलेख आदि को स्थान दिया जा रहा था । हिंदी प्रचार आंदोलन में दीक्षित कार्यकर्त्ताओं द्वारा व्यक्तिगत प्रयासों से केरल में ‘हिंदी मित्र’ तथा ‘विश्वभारती’ पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई थीं जिनके माध्यम से हिंदी में मौलिक सर्जना को संबल देने का प्रयास किया गया था ।
एक ओर जब हिंदी प्रचार की गतिविधियों में तेजी थी, उन्हीं दिनों में दक्षिण भारत में धार्मिक जागृति हेतु भी कई प्रयास किए गए । मध्व संप्रदाय के प्रचारार्थ ‘पूर्णबोध’, द्वैत सिद्धांतों के प्रचारार्थ ‘नृसिंहप्रिय’, सनातनधर्म के प्रचारार्थ ‘भाग्योदय’, दशनाम गोस्वामियों की परंपरा की पत्रिका के रूप में ‘गोस्वामी पत्रिका’, वैदिक सिद्धांतों, आर्य समाजीय मूल्यों के प्रचारार्थ आर्य समाज की ओर से कुछ पत्र-पत्रिकाएँ स्वाधीनतापूर्व युग में प्रकाशित हुई थीं । संबद्ध धर्म, संप्रदाय के सिद्धांतों पर केंद्रित सामग्री प्रकाशित करना इन पत्रिकाओं की मूल-प्रवृत्ति थी । आर्य समाज की पत्रकारिता ने राजनीतिक क्रांति की आवाज़ भी दी थी ।
स्वातंत्र्यपूर्व युग में हिंदुस्तानी सेवा दल की ओर से एक मुख-पत्र अंग्रेज़ी में प्रकाशित होती थी, जिसमें हिंदी में भी कुछ सामग्री प्रकाशित की जाती थी, जो मुख्यतः राजनीतिक चेतना के प्रसारण के लक्ष्य से प्रकाशित होती थी । निज़ाम रियासत में व्यापार विषयक एक पत्रिका भी प्रकाशित हुई थी जो स्वातंत्र्यपूर्व युग में दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता की विविधता को उजागर करती है ।
दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता के उदगम के दिनों में प्रकाशित सभी पत्र-पत्रिकाओं के समग्र मूल्यांकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आरंभिक दशाब्दियों में ही पत्रकारिता के विविध आयामों का विकास हो पाया था ।
युग मानस से साभार 
http://yugmanas.blogspot.com

Tuesday, October 5, 2010

हिंदी गौरव के प्रथम प्रिंट संस्करण का विमोचन

हिंदी गौरव के विमोचन  कार्यक्रम का एक दृश्य  
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  आस्ट्रेलिया में "हिंदी गौरव" के
पहले मुद्रित संस्करण का लोकार्पण 
सिडनी2 अक्टूबर को गाँधी जयंती एवं लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिवस के शुभ अवसर पर सिडनी में हिंदी के क्षेत्र में एक नया स्वर्णिम अध्याय जुड़ गया| हिंदी गौरव ऑनलाइन समाचार-पत्र की सफलता के पश्चात सिडनी गुजरात भवन, सिडनी में करीब 250 लोगों की उपस्थिति में हिंदी गौरव के प्रथम प्रिंट संस्करण का विमोचन भारत के कौंसुल जनरल सिडनी माननीय अमित दास गुप्ता के कर कमलों से हुआ| इस अवसर पर विशिष्ट अतिथियों में पेरामेटा से सांसद माननीया तान्या गेडियल डिप्टी स्पीकर एन एस डब्लू संसद, माननीय सांसद फिलिप रुड़क(पूर्व मंत्री), माननीय सांसद लौरी फर्गुसन आदि थे|
कार्यक्रम का शुभारम्भ सिडनी की प्रतिष्ठित रंगमच अभिनेत्री ऐश्वर्या निधि ने सभी उपस्थित गणमान्य अतिथियों का स्वागत करते हुए किया| 2 अक्टूबर को गाँधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिवस पर दोनों को याद करते हुए उनके जीवन एवं उनके द्वारा किये गए योगदान पर प्रकाश डाला| ऐश्वर्या निधि इस कार्यक्रम की संचालिका थी जिन्होंने इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक संपन्न कराया|
सबसे पहले हिंदी गौरव की सरंक्षक डॉ शैलजा चतुर्वेदी ने बोलते हुए हिंदी गौरव की ओर से सभी उपस्थितजनों को स्वागत किया एवं इस शुभ अवसर पर सभी के द्वारा अपना अमूल्य सहयोग देने के लिए सभी का कोटि-कोटि धन्यवाद दिया| आपने सिडनी में किये जा रहे विभिन्न संस्थाओं एवं व्यक्तियों का उल्लेख करते हुए सिडनी में हिंदी की यात्रा पर प्रकाश डाला| आपने हिंदी समाज के द्वारा हिंदी के क्षेत्र में किये गए कार्यों का उल्लेख किया| डॉ शैलजा चतुर्वेदी जी ने हिंदी गौरव ऑनलाइन समाचार-पत्र की सफलता का उल्लेख करते हुए इसको प्रिंट मीडिया में लाने के लिए सभी के सहयोग के लिए आभार व्यक्त किया| आपने हिंदी गौरव को हर आदमी तक पहुँचने के लक्ष्य को बताते हुए सिडनी में भारतीय समुदाय में हिंदी के महत्व को भी उजागार किया| आपने कुछ बेहद उम्दा कवितायें लोगों को सुनाई|
विशिष्ट अतिथि तान्या गेडियल ने वक्ता के रूप में महात्मा गाँधी जी के द्वारा किये गए कार्यों की सराहना की एवं उनके अहिंसा के सिद्धांत के आज के परिवेश में उल्लेख किया| आपने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी का भी उल्लेख किया| आपने हिंदी गौरव की बढ़ती लोकप्रियता को सराहा, एवं हिंदी गौरव की टीम को विमोचन के अवसर पर हार्दिक बधाई दी|
सांसद फिलिप रुड़क(पूर्व मंत्री) एवं सांसद लौरी फर्गुसन ने इस कार्यक्रम में दो अक्तूबर के महत्व पर प्रकाश डालते हुए गाँधी एवं लाल बहादुर शास्त्री के जीवन का उल्लेख किया| हिंदी गौरव के शुभारम्भ पर बधाई दी|
मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए भारत के कौंसुल जनरल सिडनी माननीय अमित दास गुप्ता ने अपने संबोधन में कहा कि बापू सारी दुनिया में शांति चाहते थे। उन्होंने महात्माजी के संदेशों को विस्तार से समझाया और कहा कि उनकी मृत्यु के इतने लंबे समय बाद भी उनके विचार सारी दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं। आपने लाल बहादुर शास्त्री के जीवन पर भी प्रकाश डाला| आपने हिंदी गौरव की टीम को हिंदी को ऑस्ट्रेलिया में लोकप्रिय बनाने के लिए प्रेरित किया एवं समाज में समाचार पत्र के महत्व को बताया की समाचार-पत्र समाज का आईना होता है| आपने हिंदी गौरव की टीम को सहयोग देने का आश्वासन दिया|
माननीय अमित दास गुप्ता ने अपने संबोधन के बाद हिंदी गौरव के प्रथम प्रिंट संस्करण का विमोचन किया जिसमें सांसद माननीया तान्या गेडियल डिप्टी स्पीकर एन एस डब्लू संसद, माननीय सांसद फिलिप रुड़क(पूर्व मंत्री), माननीय सांसद लौरी फर्गुसन एवं डॉ शैलजा चतुर्वेदी ने सहयोग किया|
हिंदी गौरव के विमोचन के बाद कई रंगारंग कार्यक्रम अभिनय स्कूल ऑफ़ फरफोर्मिंग आर्ट्स के सौजन्य से प्रस्तुत किये गए| इन रंगारंग कार्यक्रमों में मनमोहक नृत्य, भांगड़ा एवं देशभक्ति एवं उम्दा गायन सम्मिलित थे| इस अवसर पर दो बच्चियों तान्या एवं पेरिस द्वारा जय हो पर किया गया नृत्य ने सभी का मन मोह लिया, इसके बाद निष्ठा कुलश्रेष्ठ ने एक मिश्रित गाने पर नृत्य किया| जैसा की अधिकतर भांगड़ा के बिना कार्यक्रम अधूरा होता हैं इसमें भी एक बेहद आर्कषक भांगड़ा जसदेव भाटिया द्वारा प्रस्तुत किया| लता, राजेंद्र बालस्कर एवं भैरव वर्मा द्वारा मनमोहक गायन प्रस्तुत किये गए| नेहा दबे ने बहुत खूबसूरत नृत्य पेश किया आप सिडनी की एक होनहार डांसर है|
सिडनी में हिंदी के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले कवि एवं लेखक अब्बास रज़ा अल्वी ने हिंदी गौरव के ओर से सभी अतिथियों एवं गणमान्य व्यक्तियों का आभार व्यक्त किया|
कार्यक्रम के समापन पर हिंदी गौरव के मुख्य संपादक अनुज कुलश्रेष्ठ ने हिंदी गौरव को सफल बनाने के लिए सभी का धन्यबाद दिया ओर इस अवसर पर हिंदी गौरव से जुड़े हुए सभी सदस्यों का उपस्थितजनों से परिचय कराया| हिंदी गौरव के तकनीकी प्रमुख हेमेन्द्र नेगी हैं| यह कार्यक्रम सिडनी गुजरात भवन में प्रथम कार्यक्रम था, इस भवन का शुभारम्भ भी हिंदी गौरव के विमोचन के साथ हुआ| यह भवन ऑस्ट्रेलिया में भारतीय समुदाय का पहला भवन हैं|
साभार :हिंद युग्म
  


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इंदूर हिंदी सम्मान से सम्मानित डॉ शेख,श्री संतोष कुमार एवम श्रीमती हरबंस कौर के साथ बाएं से दायें सर्व श्री पवन पाण्डे,मुख्य अतिथि उपायुक्त पी.ऍफ़ निज़ामाबाद,समिति के मंत्री राजकुमार सूबेदार ,अध्यक्ष राजीव दुआ एवम स्वतंत्र वार्ता निज़ामाबाद संस्करण के स्थानीय संपादक प्रदीप श्रीवास्तव.
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डॉ शेख,संतोष कुमार एवम हरबंस कौर 
इंदूर हिंदी सम्मान -2010 से सम्मानित
निज़ामाबाद. शनिवार दो अक्तूबर  की रात निज़ामाबाद के राजस्थान भवन में इंदूर हिंदी समिति द्वारा आयोजित एक समारोह में आदर्श हिंदी महा विद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ ओ. एम. शेख ,नव्यभारती ग्लोबल स्कुल के प्रबंध निदेशक के.संतोष कुमार एवम सरकारी जूनियर कालेज की वरिष्ठ प्राध्यापिका श्रीमती हरबंस कौर को इंदूर हिंदी समिति के तत्वावधान में वर्ष 2009 -2010 के लिए "इंदूर हिंदी सम्मान -2010 " से सम्मानित किया गया.यह सम्मान उन्हें भविष्य निधि कार्यालय के आयुक्त मोहम्मद एच .वारसी ने प्रदान किया.सम्मान के रूप में सभी सम्मान ग्राहिताओं को शाल,श्रीफल ,स्मृतिचिन्ह एवम सम्मान पत्र प्रदान किये गए .श्रीमती हरबंस को इनरव्हील क्लब ऑफ़ निज़ामाबाद की सिक्रेटरी श्रीमती अनुपमा सूबेदार,समिति की सदस्याएं श्रीमती ज्योतस्ना शर्मा,श्रीमती रंजू दुआ एवम श्रीमती कुसुम श्रीवास्तव ने प्रदान किये.डॉ शेख को हाल में ही मद्रास यूनिवर्सिटी द्वारा उनके शोध निबन्ध "निज़ामाबाद के बाज़ार एवम मार्केटिग "पर डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की है.जबकि के. संतोष कुमार को अपने विद्यालय में हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए दिया गया है. वहीँ पांच सितम्बर 2010 को आन्ध्र प्रदेश सरकार ने हरबंस कौर को उत्तम शिक्षिका के सम्मान से नवाजा था,इस लिए दिया गया है.उल्लेखनीय है कि अस्वस्थता के कारण डॉ हरीश  चन्द्र विद्यार्थी उपस्थित नहीं हो सके,जिन्हें समिति के सदस्य हैदराबाद में जा कर प्रदान करेंगे . दूसरी तरफ डॉ किसोरी लाल व्यास कि तबियत मंच पर बोलते वक्त ख़राब हो गई ,जिन्हें बाद में दिया गया.इस कार्य क्रम में समिति के अध्यक्ष राजीव दुआ,मंत्री राज कुमार सूबेदार,कोषाध्यक्ष घनश्याम पाण्डे ,हिंदी दैनिक स्वतंत्र वार्ता के स्थानीय संपादक प्रदीप श्रीवास्तव एवम तेलंगाना विश्व विद्यालय के हिंदी के प्राध्यापक पवन कुमार पाण्डे भी उपस्थित थे.पता हो कि यह प्सम्मान हर वर्ष हिंदी सेवियों को समिति प्रदान करेगी .
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Thursday, September 30, 2010

                            
   " हिंदी पत्रकारिता और उसकी चुनौतिया "
    पर संगोष्ठी दो अक्तूबर को निज़ामाबाद में
निज़ामाबाद ,इंदूर हिंदी समिति ,निज़ामाबाद (आन्ध्र प्रदेश)एवम तेलंगाना का हिंदी समाचार पोर्टल आप की न्यूज ( www.apkinews.blogspot.com ) के सयुंक्त तत्वावधान में शनिवार  दो अक्टूबर की शाम स्थानीय राजस्थान भवन में "हिंदी पत्रकारिता एवम उसकी चुनोतियाँ "विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन कर रही है.जिसमें मुख्य वक्ता हैदराबाद के वरिष्ठ  पत्रकार डॉ हरीश चन्द्र विद्यार्थी .उस्मानिया विश्व विधालय के पूर्व हिंदी विभागध्यक्ष डॉ किशोरी लाल व्यास के अलावा  हिंदी दैनिक स्वतंत्र वार्ता के स्थानीय संपादक प्रदीप श्रीवास्तव होंगे.इस अवसर पर डॉ  विद्यार्थी ,डॉ लाल के साथ-साथ डॉ ओ.ऍम.शेख,संतोष कुमार तथा श्रीमती हरबंस कोर को "इदूर हिंदी सम्मान-2010 "से सम्मानित भी किया जायेगा.यह जानकारी देते हुवे समिति के अध्यक्ष राजीव दुआ एवम मंत्री एडवोकेट राज कुमार सूबेदार ने बताया की समिति हर साल दक्षिण भारत में हिंदी की विशेष सेवा करने वालों को सम्मानित करेगी अधिक जानकारी के लिए समिति के मेल indurhindisamiti@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता हे.           
   प्रायोजक    

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी अब भी दासी है,

 दोषी हिंदी भाषी हैं

राजेश त्रिपाठी

अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते हैं हिन्‍दीपट्टी के लोग : हिंदी की अपने ही घर में दुर्दशा पर चिंता जाहिर करने के पहले एक घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूं, जो हिंदी दिवस नामक रस्मअदायगी या प्रहसन को तार-तार करने के लिए काफी है। घटना एक अखबार के कार्यालय की है, जहां किसी विद्यालय की एक युवती आती है और संपादक से कहती है-‘हम हिंदी डे सिलबरेट कर रहे हैं, सर आप जरूर आइएगा।’ अब सर हक्का-बक्का शायद उन्होंने कभी अपनी जिंदगी में हिंदी का हैप्पी बर्थडे तो नहीं मनाया होगा। वे अपने को न रोक सके और उस युवती से बोले-‘आप हिंदी दिवस को हिंदी डे क्यों कह रही हैं?’ अपनी गलती पकड़े जाने पर वह युवती कुछ झेंप सी गयी और बोली- ‘क्या करें सर! आदत पड़ गयी है।’
बस अपनी चिंता व्यक्त करने के लिए यही सूत्र पकड़ कर आगे बढ़ते हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में हमें अंग्रेजी के समक्ष दंडवत होने, उसे ही अपनी जीवनशैली और बोलचाल में ढालने की आदत पड़ गयी है। हमने यह भ्रम पाल रखा है कि हिंदी तो अनपढ़ों, पिछड़े हुए दबे-कुचलों की भाषा है और अंग्रेजी बाबुओं, करोड़पतियों, संभ्रात, कुलीन और अग्रणी वर्ग की भाषा है। वह वर्ग जो अपने बच्चे को होश संभालते ही-‘टि्वंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’ पढ़ाना पसंद करता है। कोई मेहमान आया तो उसे हिंदी की कविता नहीं अंग्रेजी पोयम सुनाने को कहता है और जब लड़का अपनी तोतली जुबान में वह पोयम सुनाता है तो माता-पिता धन्य हो जाते हैं। उनकी आंखों में उस वक्त टि्वंकल देखते ही बनते हैं। यह श्रीमंतों या अगड़े वर्ग की बात नहीं है, आज मध्यम वर्ग का व्यक्ति भी अंग्रेजी भाषा का गुलाम है। उसे भी यह भ्रम है कि आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी है।
वैसे सच यह है कि हिंदी के माध्यम से पढ़ने-लिखने वाले भी आज सम्मानजनक स्थिति में हैं और अच्छी नौकरियों में हैं। लेकिन आज वैश्वीकरण की होड़ में अपनी भाषा अपने ही घर में तिरस्कृत हो रही है और अंग्रेजी सारी भाषाओं को धता बता सिर चढ़ कर नाच रही है। यह उस देश पर एक लानत है जिसकी हिंदी समेत अनेक समृद्ध भाषाएं हैं। हमने हिंदी को साल भर में एक बार याद करने के लिए एक हिंदी दिवस बना रखा है उस दिन हम रस्मअदायगी करते हैं। सरकारी कार्यालयों, विद्यालयों में हिंदी दिवस मना लेते हैं, कुछ पुरस्कार बांट देते हैं, हिंदी में काम करने की शपथ ले लेते हैं और यह समझने का भ्रम पाल लेते हैं कि हमने हिंदी का बहुत भला कर दिया और अब इसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ये कार्यक्रम अक्सर पिकनिक जैसे होते हैं। हम चाय-पानी और मिठाई-समोसों का आनंद लेते हैं और हिंदी को धन्यवाद देते हैं कि उसके चलते कार्यालय या विद्यालय का एक दिन इतना रसीला और मजेदार हो गया। सरकारी कार्यालयों में हम हिंदी में काम करने को प्रोत्साहित करने वाले पट्ट तो लगा लेते हैं लेकिन बदस्तूर काम धड़ल्ले से अंग्रेजी में होता रहता है।
वैसे सरकारी कार्यालयों में अक्सर उनके केंद्रीय कार्यालयों से यह आदेश आते रहते हैं कि कार्यालयीय पत्रव्यवहार हिंदी में किया जाये, लेकिन इस आदेश का पालन कितने प्रतिशत कार्यालय करते हैं यह अपने आप में शोध का विषय है। आज अगर हिंदी अपने ही देश में दासी है तो इसके लिए हिंदीवाले, हिंदीभाषी दोषी हैं। आज हिंदी की उपेक्षा की शोकांतिका रोने का समय नहीं है, हमें आगे बढ़ कर यह साबित करना होगा कि हिंदी किसी भी मायने में किसी भाषा से कमतर नहीं है, बल्कि कहीं-कहीं तो वह उनसे बीस ही साबित होगी। आज इंटरनेट के जमाने में हिंदी ने देश की सीमाएं लांघ ली हैं और विश्वपटल पर शान से विराज रही है। जबसे ब्लागिंग यानी चिट्ठागीरी की शुरुआत हुई है इस क्षेत्र में काफी सराहनीय कार्य हो रहा है, वैसे इसमें कुछ लोग कचड़ा और कुत्सा भी उगल रहे हैं, जो निंदनीय है। किसी भी विधा का प्रयोग सार्थक दिशा में होगा तभी वह समादृत होगी और ज्यादा दिनों तक टिकी रह सकेगी।
हिंदी की उपयोगी वेबसाइट्स की भी भरमार हो गयी है, जो देश की सीमाओं से बाहर हिंदी को ले गयी हैं और वहां वह समादृत हो रही है। आज आपको निश्चित ही उस समय सुखद रोमांच का अनुभव होता होगा जब आपको यह पता चले कि आपके ब्लाग या वेबसाइट को विदेश में भी पढ़ा जा रहा है। वेब के माध्यम की बांह थाम हिंदी आज विदेशों में भी अपनी कामायाबी के झंडे गाड़ रही है। वैसे तो पहले से भी कई विदेशी विद्यालयों में हिंदी पढ़ायी जा रही है और विदेशी छात्र भी इस भाषा में गहरी रुचि दिखा रहे हैं। देश आजाद हुआ लेकिन हमारी भाषा को आजादी कहां मिली। यह आज भी अंग्रेजी के दबदबे के चलते अपने ही घर में बंदी-सी बन कर रह गयी है। सरकारी कार्यालयों में यों तो हिंदी के प्रयोग को प्रोत्साहन देने के लिए कई तरह के पुरस्कार व प्रोन्नतियां तक देने का प्रावधान है लेकिन वहां भी यह सिर्फ और सिर्फ अनुवाद की भाषा बन कर रह गयी है। इन कार्यालयों में हिंदी दिवस मनाने के लिए उस दिन हिंदी शिक्षकों, लेखकों या कवियों की जरूरत पड़ जाती है, जो हिंदी दिवस समारोह की अध्यक्षता कर हिंदी में काम करने वालों को पुरस्कार बांट सकें। ऐसे आयोजनों में जाने वालों को कभी-कभी पत्रम-पुष्पम् मिलता है तो कभी सिर्फ चाय पर निपटा दिया जाता है।
कार्यालय वाले खुश कि उन्होंने हिंदी के प्रति अपना दायित्व निभा लिया और उसकी रपट केंद्रीय कार्यालय को भेज कर वे यह जता देंगे कि उनकी शाखा में सारा काम हिंदी में हो रहा है। केंद्रीय कार्यालय से हिंदी दिवस के लिए मिलने वाला बजट भी काम आ गया, जलसा हुआ, मनोरंजन हुआ और इस तामझाम के बीच हिंदी बेचारी कहीं एक कोने में खड़ी अपने भाग्य को कोसती रही कि क्यों अपने ही घर में वह इतनी उपेक्षा झेल रही है। साल का एक दिन उसका बाकी दिन अंग्रेजी की वाहवाह, उसका गुणगान? यह उसका सम्मान है या घोर अपमान? इन शिगूफों इन तमाशों से हिंदी आगे नहीं बढ़ेगी। हिंदी को उसके सम्मानजनक सिंहासन में बैठाना है तो उसे हृदय से अपनाना होगा और यह सोचना होगा कि यह भाषा हमारी मां है, इसे हमें अंग्रेजी के वर्चस्व से बचाना और हर हाल में आगे बढ़ाना है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक राष्ट्र की भाषा उसकी पहचान होती है। वह संवाद का माध्यम होती है, अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। ऐसे में यह नितांत आवश्यक है कि हम उससे प्रेम करें, उसे वह श्रद्धा दें जिसकी वह अधिकारी है। इसके लिए किसी कार्यक्रम या ढकोसले की कतई जरूरत नहीं।
अंग्रेजी आज हम पर इसलिए राज कर रही है कि हमने उसे अपने सिर पर बैठा रखा है, अपना मानस ऐसा बना रखा है कि अगर हमने हिंदी पढ़ी तो पीछे रह जायेंगे। आगे बढ़ने, अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी है। हमने अपने गिर्द अंग्रेजी के व्यामोह का वह जाल बुन रखा है, जिसमें हम खुद बंदी बन कर रह गये हैं और अपने सशक्त हिंदी भाषा की अपार शक्ति को भूल गये हैं। वह भाषा जिसमें सशक्त साहित्य का भंडार है और न सिर्फ देश बल्कि विदेश में भी समादृत है, प्रशंसित है। दरअसल वैश्वीकरण के इस दौर में लोगों को न तो राष्ट्र की चिंता है और न ही राष्ट्रभाषा की। हमारे यहां ज्यादातर लोग पैसा कमाने की अंधी दौड़ में शामिल हो गये हैं। इस दौड़ में शामिल लोग अपने घर-परिवार तक को भूल जाते हैं फिर उनके पास भाषा की चिंता करने की फुरसत कहां। बच्चे या तो कन्वेंट में डाल दिये है या फिर विदेश में पड़ रहे हैं, उनके मुंह से तो बस अंग्रेजी जुमले ही फूटते हैं और माता-पिता खुश कि उनका बेटा या बेटी सालाना करोड़ों रुपयों की नौकरी पा लेगी। व्यवसायी घराने के हुए तो फिर यह उम्मीद कि उनके व्यवसाय को सात समुंदर पार फैलाने में उनके कुलदीपक सफल होंगे। उन्हें क्या फिक्र हिंदी की उसके बारे में सोचें तो गरीब तबके या या मध्यम वर्ग के लोग सोचें जो अपने बच्चों को खर्चीले अंग्रेजी स्कूलों मे भेज नहीं सकते और विदेश में उनको पढ़ने भेजने का सपना तो वे देख ही नहीं सकते।
आज समाज में अंग्रेजी बोलना या अंग्रेजी जानना साख की बात हो गयी है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अंग्रजी वाले हिंदी वालों को हिकारत की नजर से देखते हैं और अपने से कमतर मानते हैं। हालांकि यह उनका भ्रम है। हम उन अंग्रेजी वालों से अगर कहें कि वे हिंदी का शुद्ध बोल दें तो वे बगलें झांकने लगते हैं। ऐसे में हमें उन पर तरस आता है कि भाषा कि दृष्टि से वे कितने गरीब हैं। अपने देश की भाषा जानते नहीं और विदेशी भाषा को गले में हार की तरह डाले फिरते हैं। लेकिन यह गर्व का नहीं अफसोस का विषय है कि वे विदेशी भाषा को शान से ढो रहे हैं और अपनी भाषा से नितांत गरीब हैं। हम किसी भी भाषा के विरोधी नहीं। अगर अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी जानना जरूरी है तो इसे अवश्य जानिए, बखूबी जानिए ताकि विश्वपटल पर आप भारत का नाम रोशन कर सकें, लेकिन कृपया यह काम हिंदी की कीमत पर तो मत कीजिए। हिंदी को अपने देश में उसका उचित सम्मान दीजिए। अंग्रेजी को साथ रखिए लेकिन हिंदी के लिए निश्चित सिंहासन पर तो उसे मत बैठाइए।हमें आजादी मिली तो हिंदी को भारतीय संघ की राजभाषा का सम्मान मिला। भारतीय संविधान के 343 अनुच्छेद में बाकायदा यह  व्यवस्था की गयी कि भारतीय संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। इस अनुच्छेद में राज्यों की विधायिकाओं को यह अधिकार दिया गया कि वे अपने राज्यों में बोली जाने वाली भाषा या फिर हिंदी को राजभाषा बना सकते हैं। आज उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड व बिहार आदि राज्यों ने हिंदी को अपनी राजभाषा घोषित किया है। अन्य राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं में काम होता है। इस तरह देखा जाये तो हिंदी का उपयोग हमारा सांविधानिक अधिकार है। हिंदी की महत्ता और राष्ट्रभाषा के रूप में इसे अपनाये जाने का समर्थन महान नेताओं, लेखकों और विचारकों तक ने किया है।
आजादी के आंदोलन में अविस्मरणीय योगदान से पूरे राष्ट्र में ‘बापू’ के नाम से श्रद्धा पाने वाले महात्मा गांधी ने कहा था-‘राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।’ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कहा था-‘ राजनीति, वाणिज्य तथा कला के क्षेत्र में देश की अखंडता के लिए हिंदी की महत्ता की ओर सभी भारतीयों को ध्यान देना चाहिए। चाहे वे किसी भी क्षेत्र के रहनेवाले और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाएं बोलनेवाले हों।’ बाबा साहेब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने हिंदी के बारे में अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये थे-‘भाषा के माध्यम से संस्कृति सुरक्षित रहती है। चूंकि भारतीय एक होकर सामान्य सांस्कृतिक विकास करने के आकांक्षी हैं, इसलिए सभी भारतीयों का अनिवार्य कर्तव्य है कि वे हिंदी को अपनी भाषा के रूप में अपनाएं।’ कविगुरु रवींद्र नाथ ठाकुर ने कहा था-‘वास्तव में भारत में अप्रांतीय व्यवहार के लिए उपयुक्त राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही है।’ इन मनीषियों के ये पुनीत विचार हिंदी की महत्ता और उसकी उपयोगिता को प्रतिपादित करते हैं। एक अनुमान के अनुसार देश में 43 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग हिंदी बोलते और उसका उपयोग करते हैं। उन मुल्कों में भी जहां भारत से जाकर लोग बसे हैं हिंदी का प्रयोग हो रहा है। ऐसे में इसे वैश्विक भाषा कहना भी अतियुक्ति नहीं होगी।
यह हम पर है कि हम अपनी भाषा को कहां देखना चाहते हैं। दरअसल, जो जहां है उसे वहीं अपने सामर्थ्य पर हिंदी के प्रयोग और इसे आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। हिंदी को अगर अहिंदीभाषी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित करना है तो यह काम इस कदर से होना चाहिए कि क्षेत्र विशेष के लोगों को यह न लगे कि यह उन पर जायेगी। वैसे यह भ्रम पालना गलत है कोई भी भाषा इतनी गयी-गुजरी नहीं होती की दूसरी भाषा उसका अस्तित्व ही खत्म कर दे। अगर ऐसा होता है तो इसका मतलब है उस क्षेत्रीय भाषा में ही दम नहीं। हिंदी और सारी क्षेत्रीय भाषाएं आपस में सहचरी हैं। सह अस्तित्व में ये एक-दूसरे की श्री वृद्धि ही करेंगी। हर हिंदुस्तानी का यह पावन कर्तव्य है कि वह अपनी भाषा हिंदी को सही सम्मान दे। हम हिंदीवालों को भी इसके लिए शोकगीतिका गाने से परहेज कर इसकी प्रशस्ति में मुखर होना चाहिए और गर्व से कहना चाहिए-भारत मां के माथे की बिंदी हिंदी अपनी शान है। सच पूछो तो इस देश की यह एक पहचान है।
(राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं। पिछले तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में हैं। संप्रति कोलकाता के सन्मार्ग हिंदी दैनिक से संबद्ध हैं।)
भड़ास 4 मिडिया डट काम से आभार सहित