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Tuesday, September 14, 2010

हिंदी अब भी दासी है,

 दोषी हिंदी भाषी हैं

राजेश त्रिपाठी

अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते हैं हिन्‍दीपट्टी के लोग : हिंदी की अपने ही घर में दुर्दशा पर चिंता जाहिर करने के पहले एक घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूं, जो हिंदी दिवस नामक रस्मअदायगी या प्रहसन को तार-तार करने के लिए काफी है। घटना एक अखबार के कार्यालय की है, जहां किसी विद्यालय की एक युवती आती है और संपादक से कहती है-‘हम हिंदी डे सिलबरेट कर रहे हैं, सर आप जरूर आइएगा।’ अब सर हक्का-बक्का शायद उन्होंने कभी अपनी जिंदगी में हिंदी का हैप्पी बर्थडे तो नहीं मनाया होगा। वे अपने को न रोक सके और उस युवती से बोले-‘आप हिंदी दिवस को हिंदी डे क्यों कह रही हैं?’ अपनी गलती पकड़े जाने पर वह युवती कुछ झेंप सी गयी और बोली- ‘क्या करें सर! आदत पड़ गयी है।’
बस अपनी चिंता व्यक्त करने के लिए यही सूत्र पकड़ कर आगे बढ़ते हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में हमें अंग्रेजी के समक्ष दंडवत होने, उसे ही अपनी जीवनशैली और बोलचाल में ढालने की आदत पड़ गयी है। हमने यह भ्रम पाल रखा है कि हिंदी तो अनपढ़ों, पिछड़े हुए दबे-कुचलों की भाषा है और अंग्रेजी बाबुओं, करोड़पतियों, संभ्रात, कुलीन और अग्रणी वर्ग की भाषा है। वह वर्ग जो अपने बच्चे को होश संभालते ही-‘टि्वंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’ पढ़ाना पसंद करता है। कोई मेहमान आया तो उसे हिंदी की कविता नहीं अंग्रेजी पोयम सुनाने को कहता है और जब लड़का अपनी तोतली जुबान में वह पोयम सुनाता है तो माता-पिता धन्य हो जाते हैं। उनकी आंखों में उस वक्त टि्वंकल देखते ही बनते हैं। यह श्रीमंतों या अगड़े वर्ग की बात नहीं है, आज मध्यम वर्ग का व्यक्ति भी अंग्रेजी भाषा का गुलाम है। उसे भी यह भ्रम है कि आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी है।
वैसे सच यह है कि हिंदी के माध्यम से पढ़ने-लिखने वाले भी आज सम्मानजनक स्थिति में हैं और अच्छी नौकरियों में हैं। लेकिन आज वैश्वीकरण की होड़ में अपनी भाषा अपने ही घर में तिरस्कृत हो रही है और अंग्रेजी सारी भाषाओं को धता बता सिर चढ़ कर नाच रही है। यह उस देश पर एक लानत है जिसकी हिंदी समेत अनेक समृद्ध भाषाएं हैं। हमने हिंदी को साल भर में एक बार याद करने के लिए एक हिंदी दिवस बना रखा है उस दिन हम रस्मअदायगी करते हैं। सरकारी कार्यालयों, विद्यालयों में हिंदी दिवस मना लेते हैं, कुछ पुरस्कार बांट देते हैं, हिंदी में काम करने की शपथ ले लेते हैं और यह समझने का भ्रम पाल लेते हैं कि हमने हिंदी का बहुत भला कर दिया और अब इसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ये कार्यक्रम अक्सर पिकनिक जैसे होते हैं। हम चाय-पानी और मिठाई-समोसों का आनंद लेते हैं और हिंदी को धन्यवाद देते हैं कि उसके चलते कार्यालय या विद्यालय का एक दिन इतना रसीला और मजेदार हो गया। सरकारी कार्यालयों में हम हिंदी में काम करने को प्रोत्साहित करने वाले पट्ट तो लगा लेते हैं लेकिन बदस्तूर काम धड़ल्ले से अंग्रेजी में होता रहता है।
वैसे सरकारी कार्यालयों में अक्सर उनके केंद्रीय कार्यालयों से यह आदेश आते रहते हैं कि कार्यालयीय पत्रव्यवहार हिंदी में किया जाये, लेकिन इस आदेश का पालन कितने प्रतिशत कार्यालय करते हैं यह अपने आप में शोध का विषय है। आज अगर हिंदी अपने ही देश में दासी है तो इसके लिए हिंदीवाले, हिंदीभाषी दोषी हैं। आज हिंदी की उपेक्षा की शोकांतिका रोने का समय नहीं है, हमें आगे बढ़ कर यह साबित करना होगा कि हिंदी किसी भी मायने में किसी भाषा से कमतर नहीं है, बल्कि कहीं-कहीं तो वह उनसे बीस ही साबित होगी। आज इंटरनेट के जमाने में हिंदी ने देश की सीमाएं लांघ ली हैं और विश्वपटल पर शान से विराज रही है। जबसे ब्लागिंग यानी चिट्ठागीरी की शुरुआत हुई है इस क्षेत्र में काफी सराहनीय कार्य हो रहा है, वैसे इसमें कुछ लोग कचड़ा और कुत्सा भी उगल रहे हैं, जो निंदनीय है। किसी भी विधा का प्रयोग सार्थक दिशा में होगा तभी वह समादृत होगी और ज्यादा दिनों तक टिकी रह सकेगी।
हिंदी की उपयोगी वेबसाइट्स की भी भरमार हो गयी है, जो देश की सीमाओं से बाहर हिंदी को ले गयी हैं और वहां वह समादृत हो रही है। आज आपको निश्चित ही उस समय सुखद रोमांच का अनुभव होता होगा जब आपको यह पता चले कि आपके ब्लाग या वेबसाइट को विदेश में भी पढ़ा जा रहा है। वेब के माध्यम की बांह थाम हिंदी आज विदेशों में भी अपनी कामायाबी के झंडे गाड़ रही है। वैसे तो पहले से भी कई विदेशी विद्यालयों में हिंदी पढ़ायी जा रही है और विदेशी छात्र भी इस भाषा में गहरी रुचि दिखा रहे हैं। देश आजाद हुआ लेकिन हमारी भाषा को आजादी कहां मिली। यह आज भी अंग्रेजी के दबदबे के चलते अपने ही घर में बंदी-सी बन कर रह गयी है। सरकारी कार्यालयों में यों तो हिंदी के प्रयोग को प्रोत्साहन देने के लिए कई तरह के पुरस्कार व प्रोन्नतियां तक देने का प्रावधान है लेकिन वहां भी यह सिर्फ और सिर्फ अनुवाद की भाषा बन कर रह गयी है। इन कार्यालयों में हिंदी दिवस मनाने के लिए उस दिन हिंदी शिक्षकों, लेखकों या कवियों की जरूरत पड़ जाती है, जो हिंदी दिवस समारोह की अध्यक्षता कर हिंदी में काम करने वालों को पुरस्कार बांट सकें। ऐसे आयोजनों में जाने वालों को कभी-कभी पत्रम-पुष्पम् मिलता है तो कभी सिर्फ चाय पर निपटा दिया जाता है।
कार्यालय वाले खुश कि उन्होंने हिंदी के प्रति अपना दायित्व निभा लिया और उसकी रपट केंद्रीय कार्यालय को भेज कर वे यह जता देंगे कि उनकी शाखा में सारा काम हिंदी में हो रहा है। केंद्रीय कार्यालय से हिंदी दिवस के लिए मिलने वाला बजट भी काम आ गया, जलसा हुआ, मनोरंजन हुआ और इस तामझाम के बीच हिंदी बेचारी कहीं एक कोने में खड़ी अपने भाग्य को कोसती रही कि क्यों अपने ही घर में वह इतनी उपेक्षा झेल रही है। साल का एक दिन उसका बाकी दिन अंग्रेजी की वाहवाह, उसका गुणगान? यह उसका सम्मान है या घोर अपमान? इन शिगूफों इन तमाशों से हिंदी आगे नहीं बढ़ेगी। हिंदी को उसके सम्मानजनक सिंहासन में बैठाना है तो उसे हृदय से अपनाना होगा और यह सोचना होगा कि यह भाषा हमारी मां है, इसे हमें अंग्रेजी के वर्चस्व से बचाना और हर हाल में आगे बढ़ाना है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक राष्ट्र की भाषा उसकी पहचान होती है। वह संवाद का माध्यम होती है, अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। ऐसे में यह नितांत आवश्यक है कि हम उससे प्रेम करें, उसे वह श्रद्धा दें जिसकी वह अधिकारी है। इसके लिए किसी कार्यक्रम या ढकोसले की कतई जरूरत नहीं।
अंग्रेजी आज हम पर इसलिए राज कर रही है कि हमने उसे अपने सिर पर बैठा रखा है, अपना मानस ऐसा बना रखा है कि अगर हमने हिंदी पढ़ी तो पीछे रह जायेंगे। आगे बढ़ने, अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी है। हमने अपने गिर्द अंग्रेजी के व्यामोह का वह जाल बुन रखा है, जिसमें हम खुद बंदी बन कर रह गये हैं और अपने सशक्त हिंदी भाषा की अपार शक्ति को भूल गये हैं। वह भाषा जिसमें सशक्त साहित्य का भंडार है और न सिर्फ देश बल्कि विदेश में भी समादृत है, प्रशंसित है। दरअसल वैश्वीकरण के इस दौर में लोगों को न तो राष्ट्र की चिंता है और न ही राष्ट्रभाषा की। हमारे यहां ज्यादातर लोग पैसा कमाने की अंधी दौड़ में शामिल हो गये हैं। इस दौड़ में शामिल लोग अपने घर-परिवार तक को भूल जाते हैं फिर उनके पास भाषा की चिंता करने की फुरसत कहां। बच्चे या तो कन्वेंट में डाल दिये है या फिर विदेश में पड़ रहे हैं, उनके मुंह से तो बस अंग्रेजी जुमले ही फूटते हैं और माता-पिता खुश कि उनका बेटा या बेटी सालाना करोड़ों रुपयों की नौकरी पा लेगी। व्यवसायी घराने के हुए तो फिर यह उम्मीद कि उनके व्यवसाय को सात समुंदर पार फैलाने में उनके कुलदीपक सफल होंगे। उन्हें क्या फिक्र हिंदी की उसके बारे में सोचें तो गरीब तबके या या मध्यम वर्ग के लोग सोचें जो अपने बच्चों को खर्चीले अंग्रेजी स्कूलों मे भेज नहीं सकते और विदेश में उनको पढ़ने भेजने का सपना तो वे देख ही नहीं सकते।
आज समाज में अंग्रेजी बोलना या अंग्रेजी जानना साख की बात हो गयी है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अंग्रजी वाले हिंदी वालों को हिकारत की नजर से देखते हैं और अपने से कमतर मानते हैं। हालांकि यह उनका भ्रम है। हम उन अंग्रेजी वालों से अगर कहें कि वे हिंदी का शुद्ध बोल दें तो वे बगलें झांकने लगते हैं। ऐसे में हमें उन पर तरस आता है कि भाषा कि दृष्टि से वे कितने गरीब हैं। अपने देश की भाषा जानते नहीं और विदेशी भाषा को गले में हार की तरह डाले फिरते हैं। लेकिन यह गर्व का नहीं अफसोस का विषय है कि वे विदेशी भाषा को शान से ढो रहे हैं और अपनी भाषा से नितांत गरीब हैं। हम किसी भी भाषा के विरोधी नहीं। अगर अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी जानना जरूरी है तो इसे अवश्य जानिए, बखूबी जानिए ताकि विश्वपटल पर आप भारत का नाम रोशन कर सकें, लेकिन कृपया यह काम हिंदी की कीमत पर तो मत कीजिए। हिंदी को अपने देश में उसका उचित सम्मान दीजिए। अंग्रेजी को साथ रखिए लेकिन हिंदी के लिए निश्चित सिंहासन पर तो उसे मत बैठाइए।हमें आजादी मिली तो हिंदी को भारतीय संघ की राजभाषा का सम्मान मिला। भारतीय संविधान के 343 अनुच्छेद में बाकायदा यह  व्यवस्था की गयी कि भारतीय संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। इस अनुच्छेद में राज्यों की विधायिकाओं को यह अधिकार दिया गया कि वे अपने राज्यों में बोली जाने वाली भाषा या फिर हिंदी को राजभाषा बना सकते हैं। आज उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड व बिहार आदि राज्यों ने हिंदी को अपनी राजभाषा घोषित किया है। अन्य राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं में काम होता है। इस तरह देखा जाये तो हिंदी का उपयोग हमारा सांविधानिक अधिकार है। हिंदी की महत्ता और राष्ट्रभाषा के रूप में इसे अपनाये जाने का समर्थन महान नेताओं, लेखकों और विचारकों तक ने किया है।
आजादी के आंदोलन में अविस्मरणीय योगदान से पूरे राष्ट्र में ‘बापू’ के नाम से श्रद्धा पाने वाले महात्मा गांधी ने कहा था-‘राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।’ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कहा था-‘ राजनीति, वाणिज्य तथा कला के क्षेत्र में देश की अखंडता के लिए हिंदी की महत्ता की ओर सभी भारतीयों को ध्यान देना चाहिए। चाहे वे किसी भी क्षेत्र के रहनेवाले और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाएं बोलनेवाले हों।’ बाबा साहेब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने हिंदी के बारे में अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये थे-‘भाषा के माध्यम से संस्कृति सुरक्षित रहती है। चूंकि भारतीय एक होकर सामान्य सांस्कृतिक विकास करने के आकांक्षी हैं, इसलिए सभी भारतीयों का अनिवार्य कर्तव्य है कि वे हिंदी को अपनी भाषा के रूप में अपनाएं।’ कविगुरु रवींद्र नाथ ठाकुर ने कहा था-‘वास्तव में भारत में अप्रांतीय व्यवहार के लिए उपयुक्त राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही है।’ इन मनीषियों के ये पुनीत विचार हिंदी की महत्ता और उसकी उपयोगिता को प्रतिपादित करते हैं। एक अनुमान के अनुसार देश में 43 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग हिंदी बोलते और उसका उपयोग करते हैं। उन मुल्कों में भी जहां भारत से जाकर लोग बसे हैं हिंदी का प्रयोग हो रहा है। ऐसे में इसे वैश्विक भाषा कहना भी अतियुक्ति नहीं होगी।
यह हम पर है कि हम अपनी भाषा को कहां देखना चाहते हैं। दरअसल, जो जहां है उसे वहीं अपने सामर्थ्य पर हिंदी के प्रयोग और इसे आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। हिंदी को अगर अहिंदीभाषी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित करना है तो यह काम इस कदर से होना चाहिए कि क्षेत्र विशेष के लोगों को यह न लगे कि यह उन पर जायेगी। वैसे यह भ्रम पालना गलत है कोई भी भाषा इतनी गयी-गुजरी नहीं होती की दूसरी भाषा उसका अस्तित्व ही खत्म कर दे। अगर ऐसा होता है तो इसका मतलब है उस क्षेत्रीय भाषा में ही दम नहीं। हिंदी और सारी क्षेत्रीय भाषाएं आपस में सहचरी हैं। सह अस्तित्व में ये एक-दूसरे की श्री वृद्धि ही करेंगी। हर हिंदुस्तानी का यह पावन कर्तव्य है कि वह अपनी भाषा हिंदी को सही सम्मान दे। हम हिंदीवालों को भी इसके लिए शोकगीतिका गाने से परहेज कर इसकी प्रशस्ति में मुखर होना चाहिए और गर्व से कहना चाहिए-भारत मां के माथे की बिंदी हिंदी अपनी शान है। सच पूछो तो इस देश की यह एक पहचान है।
(राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं। पिछले तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में हैं। संप्रति कोलकाता के सन्मार्ग हिंदी दैनिक से संबद्ध हैं।)
भड़ास 4 मिडिया डट काम से आभार सहित 

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