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Friday, August 12, 2011

इस्तीफा

  इस्तीफा                           
 - मुंशी प्रेमचंद/कहानी
दफ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मजदूरों को आंखें दिखाओ, तो वह त्योरियां बदल कर खड़ा हो जायेगा। कुली को एक डांट बताओ, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगाह से देख कर चला जायेगा। यहां तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दोलत्तियां झाड़ने लगता है, मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे आंखें दिखायें, डांट बतायें, दुत्कारें या ठोकरें मारों, उसके माथे पर बल न आयेगा। उसे अपने विकारों पर जो अधिपत्य होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरजउसमें तमाम मानवी अच्छाइयां मौजूद होती हैं। खंडहर के भी एक दिन भाग्य जागते हैं। दीवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अंधेरी तकदीर में रोशनी का जलावा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन है, कभी हरा भादो नहीं।
लाला फतहचंद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे। कहते हैं, मनुष्य पर उसके नाम का भी असर पड़ता है। फतहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिध्द न हो सकी। यदि उन्हें हारचंदकहा जाय तो कदाचित यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, जिंदगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर निराशाएं ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियां तीन। भाई एक भी नहीं, भौजाइयां दो। गांठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में आया और मुरव्वत। सच्चा मित्र एक भी नहीं-जिससे मित्रता हुई, उसने धोखा दिया। इस पर तंदुरूस्ती भी अच्छी नहीं-बत्ताीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गये थे। आंखों में ज्योति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल चिपके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छ: बजे शाम को लौट कर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें बिल्कुल खबर न थी। उनकी दुनिया, लोक-परलोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिंदगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुजर गयी थी।
जाड़ो के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फतहचंद साढ़े पांच बजे दफ्तर से लौटै तो चिराग जल गये थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते, चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते। तब कहीं जाकर उनके मुंह से आवाज निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुंह-हाथ धोने के लिए लोटा-गिलास मांज रही थी। बोली-उससे कह दे, क्या काम है। अभी तो दफ्तर से आये ही हैं, और बुलावा आ गया है? चपरासी ने कहा है, अभी फिर बुला लाओ। कोई बड़ा जरूरी काम है। फतहचंद की खामोशी टूट गयी। उन्होंने सिर उठा कर पूछा-क्या बात है? शारदा-कोई नहीं, दफ्तर का चपरासी है। फतहचंद ने सहम कर कहा-दफ्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है? शारदा-हां, कहता है, साहब बुला रहे हैं। यह कैसा साहब है तुम्हारा, जब देखो बुलाया करता है? सबेरे के गए-गए अभी लौटे हो, फिर भी बुलाया आ गया!
फतहचंद न संभल कर कहा-जरा सुन लूं, किसलिए बुलाया है। मैंने सब काम खत्म कर दिया था, अभी आता हूं। शारदा-जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेगी। यह कह कर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट और सेब लायी। फतहचंद उठ कर खड़े हो गये, किन्तु खाने की चीजें देख कर चारपाई पर बैठ गये और प्याली की ओर चाव से देख कर डरते हुए बोले-लड़कियों को दे दिया है न? शारदा ने आंखें चढ़ाकर कहा-हां, हां, दे दिया है, तुम तो खाओ। इतने में चपरासी ने फिर पुकार-बाबू जी, हमें बड़ी देर हो रही है। शारदा-कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आयेंगे। फतहचंद ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकियां लगायी, एक गिलास पानी पिया और बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गयी।
चपरासी ने कहा-बाबू जी! आपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपके चलिए, नहीं तो जाते ही डांट बतायेगा। फतहचंद ने दो कदम दौड़ कर कहा-चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह, चाहे डांट लगायें या दांत दिखायें। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बंगले ही पर हैं न? चपरासी-भला वह दफ्तर क्यों आने लगा। बादशाह है कि दिल्लगी? चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फतहचंद धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चल कर हांफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके कदम उठाते जाते थे। यहां तक कि जांघों में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खत्म होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया। सारा शरीर पसीने से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आंखों के सामने तितलियां उड़ने लगीं। चपरासी ने ललकारा-जरा कदम बढ़ाये चलो, बाबू! फतहचंद बड़ी मुश्किल से बोले-तुम जाओ, मैं आता हूं। वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये और सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने लगे। चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फतहचंद डरे कि यह शैतान जाकर न जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जायेगा। जमीन पर हाथ टेक कर उठे और फिर चले, मगर कमजोरी से शरीर हांफ रहा था। इस समय कोई बच्चा भी उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब के बंगले पर पहुंचे। साहब बंगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को आता न देख कर मन में झल्लाते थे। चपरासी को देखते ही आंखें निकाल कर बोले-इतनी देर कहां था? चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा-हुजूर! जब वह आयें तब तो मै दौड़ा चला आ रहा हूं। साहब ने पैर पटक कर कहा-बाबू क्या बोला? चपरासी-आ रहे है हुजूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले। इतने में फतहचंद अहाते के तार के अंदर से निकल कर वहां आ पहुंचे और साहब को सिर झुका कर सलाम किया। साहब ने कड़कर कहा-अब तक कहां था? फतहचंद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका खून सूख गया। बोले-हुजूर, अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूं, ज्यों ही चपरासी ने आवाज दी, हाजिर हुआ। साहब-झूठ बोलता है, झूठ बोलता है। हम घंटे-भर से खड़ा है। फतहचंद-हुजूर, मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गयी हो, मगर घर से चलने में मुझे बिल्कुल देर नहीं हुई। साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा-चुप रह सूअर, हम घण्टा-भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो! फतहचंद ने खून की घूंट पीकर कहा-हुजूर, मुझे दस साल काम करते हो गए, कभी…! साहब-चुप रह सूअर, हम कहता है कि अपना कान पकड़ो। फतहचंद-जब मैंने कोई कुसूर किया हो? साहब-चपरासी, इस सूअर का कान पकड़ो। चपरासी ने दबी जबान से कहा-हुजूर, यह भी मेरे अफसर हैं। मैं इनका कान कैसे पकडूं? साहब-हम कहता है, इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा। चपरासी-हुजूर, मैं यहां नौकरी करने आया हूं, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूं। हुजूर, अपनी नौकरी ले लें! आप जो हुक्म दें, वह बजा लाने को हाजिर हूं, लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें। साहब अब क्रोध को न बर्दाश्त कर सके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा, यहां खड़े रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फतहचंद अभी तक चुपचाप खड़े थे। चपरासी को न पाकर साहब उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़कर हिला दिये। बोला-तुम सूअर गुस्ताखी करता है? जाकर आफिस से फाइल लाओ। फतहचंद ने कान हिलाते हुए कहा-कौन-सा फाइल? तुम बहरा है, सुनता नहीं। हम फाइल मांगता है। फतहचंद ने किसी तरह दिलेर होकर कहा-आप कौन-सा फाइल मांगते हैं? साहब-वही फाइल जो हम मांगता है। वही फाइल लाओ। अभी लाओ। बेचारे फतहचंद को अब और कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। साहब बहादुर एक तो यों ही तेज-मिजाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड और सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचारे क्या कर लेते? चुपके से दफ्तर की तरफ चल पड़े। साहब ने कहा-दौड़ कर जाओ-दौड़ो। फतहचंद ने कहा-हुजूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता। साहब-ओ, तुम बहुत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर), तुम अब भी नहीं दौड़ेगा? यह कह कर साहब हंटर लेने चले। फतहचंद दफ्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान होते, तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते, लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाशा भागे और फाटक से बाहर निकल कर सड़क पर आ गये।
फतहचंद दफ्तर न गये। जाकर करते ही क्या? साहब ने फाइल का नाम तक न बताया। शायद नशे में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले, मगर इस बेइज्जती ने पैरों में बेड़ियां-सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज भी न थी, लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरो में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे? फिर क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की? मगर इलाज ही क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जाता। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते? यदि उनके पास इतने रुपये होते, जिससे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का उन्हें डर न था। जिन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था, सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का। आज फतहचंद को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दुख हुआ, उतना और कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तन्दुरूस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता। उसकी आंखें निकला लेते। कम से कम इन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था। और न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही-पीछे देखा जाता, जेल जाना ही तो होता या और कुछ? वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर और भी झल्लाती थी। अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता-यही न कि साहब के खानसामे, बैरे सब उन पर पिल पड़ते और मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती-पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि गरीब को बेगुनाह जलील करना आसान नहीं। आखिर आज मैं मर जाऊं, तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेगा? तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था। इस अन्तिम विचार ने फतहचंद के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट पड़े और साहब से जिल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार कदम चले, मगर फिर ख्याल आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी, वह तो हो ही ली। कौन जाने, बंगले पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी और बच्चों का बिना बाप के जाने का ख्याल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले।
घर में जाते ही शारदा ने पूछा-किसलिए बुलाया था, बड़ी देर हो गयी? फतहचंद ने चारपाई पर लेटते हुए कहा-नशे की सनक थी, और क्या? शैतान ने मुझे गालियां दी, जलील किया। बस, यही रट लगाए हुए था कि देर क्यों की? निर्दयी ने चपरासी से मेरा कान पकड़ने को कहा। शारदा ने गुस्से में आकर कहा-तुमने एक जूता उतार कर दिया नहीं सूआर को? फतहचंद-चपरासी बहुत शरीफ है। उसने साफ कह दिया-हुजूर, मुझसे यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्जत उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। वह उसी वक्त सलाम करके चला गया। शारदा-यही बहादुरी है। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा? फतहचंद-फटकारा क्यों नहीं, मैंने भी खूब सुनायी। वह छड़ी लेकर दौड़ा, मैंने भी जूता संभाला। उसने मुझे छड़ियां जमायीं, मैंने भी कई जूते लगाये! शारदा ने खुश होकर कहा-सच? इतना-सा मुंह हो गया होगा उसका! फतहचंद-चेहरे पर झाडू-सी फिरी हुई थी। शारदा-बड़ा अच्छा किया तुमने, और मारना चाहिए था। मैं होती तो बिना जान लिए न छोड़ती। फतहचंद-मार तो आया हूं, लेकिन अब खैरियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है? नौकरी तो जायगी ही, शायद सजा भी काटनी पड़े। शारदा-सजा क्यों काटनी पड़ेगी? क्या कोई इंसाफ करने वाला नहीं है? उसने क्यों गालियां दीं? क्यों छड़ी जमायी? फतहचंद-उसके सामने मेरी कौन सुनेगा? अदालत भी उसी की तरफ हो जायगी। शारदा-हो जायगी हो जाय, मगर देख लेना, अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियां दे बैठे। तुम्हें चाहिए था कि ज्यों ही उसके मुंह से गालियां निकली, लपक कर एक जूता रसीद कर देते। फतहचंद-तो फिर इस वक्त जिंदा लौट भी न सकता। जरूर मुझे गोली मार देता। शारदा-देखी जाती। फतहचंद ने मुस्करा कर कहा-फिर तुम लोग कहां जाते? शारदा-जहां ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज इज्जत है। इज्जत गंवा कर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मार का आये होते तो मैं गरूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर उठते, तो शायद मैं तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्जत जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आयेगी, खुशी से झेल लूंगी। कहां जाते हो, सुनो-सुनो, कहां जाते हो? फतहचंद दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गयी।
वह फिर साहब के बंगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं, बल्कि गरूर से गर्दन उठाये हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमजोरी, आंखों में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट सी हो गयी थी। वह कमजोर बदन, पीला मुखड़ा, दुर्बल बदन वाला, दफ्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत भरा हुआ, मजबूत गठा और जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसके डंडा लिया और अकड़ते हुए साहब के बंगले पर जा पहुंचे। इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे। मगर फतहचंद ने आज उनके मेज पर से उठ जाने का इंतजार न किया, खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठा कर अंदर गए। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा था। जमीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी, जैसी फतहचंद की शादी में भी नहीं बिछी होगी। साहब बहादुर ने उनकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देख कर कहा-तुम क्यों आया? बाहर जाओ, क्यों अन्दर चला आया? फतहचंद ने खड़े-खड़े डंडा संभाल कर कहा-तुमने मुझसे अभी फाइल मांगा था, वही फाइल लेकर आया हूं। खाना खा लो, तो दिखाऊं। तब तक मैं बैठा हूं। इत्मीनान से खाओ, शायद यह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो। साहब सन्नाटे में आ गये। फतहचंद की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से देख कर कांप उठे। फतहचंद के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गये, यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आया है। ताकत में फतहचंद उनसे पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईंट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि वह फतहचंद को बुरा-भला कहते हैं, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बैठाये डंडे खाना भी तो कोई बुध्दिमानी नहीं है। कुत्तो को आप डंडे से मारिये, ठुकराइये, जो चाहे कीजिए, मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्रा कर दौड़ पड़े, तो फिर देखें, आप की हिम्मत कहां जाती है? यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का था। जब तक यकीन था कि फतहचंद घुड़की, गाली, हंटर, ठोकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा, तब तक आप शेर थे, अब वह त्योरियां बदले, डंडा संभाले, बिल्ली की तरह घात लगाये खड़ा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने डंडा चलाया। वह अधिक से अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर है। उस पर फौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का अंदेशा-माना कि वह अपने प्रभाव और ताकत से जेल में डलवा देंगे, परन्तु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुध्दिमान और दूरंदेश आदमी की तरह उन्होंने यह कहा-ओहो, हम समझ गया, आप हमसे नाराज हैं। हमने क्या आपको कुछ कहा है? आप क्यों हमसे नाराज हैं? फतहचंद ने तन कर कहा-तुमने अभी आधा घंटा पहले मेरे कान पकड़े थे, और मुझसे सैकड़ों ऊल-जलूल बातें कही थीं। क्या इतनी जल्दी भूल गये? साहब-मैंने आपका कान पकड़ा, आ-हा-हा-हा-हा! क्या मजाक है? क्या मैं पागल हूं या दीवाना? फतहचंद-तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं? चपरासी गवाह है। आपके नौकर-चाकर भी देख रहे थे। साहब-कब की बात है?
फतहचंद-अभी-अभी, कोई आधा घंटा हुआ, आपने मुझे बुलवाया था और बिना कारण मेरे कान पकड़े और धक्के दिये थे। साहब-ओ बाबू जी, उस वक्त हम नशा में था। बेहरा ने हमको बहुत दे दिया था। हमको कुछ खबर नहीं, क्या हुआ। माई गाड़! हमको कुछ खबर नहीं। फतहचंद-नशा में अगर तुमने गोली मार दी होती, तो क्या मैं मर न जाता? अगर तुम्हें नशा था और नशा में सब कुछ मुआफ है, तो मैं भी नशे में हूं। सुनो मेरा फैसला, या तो अपने कान पकड़ो कि फिर कभी किसी भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे, या मैं आकर तुम्हारे कान पकडूंगा। समझ गये कि नहीं! इधर-उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाय, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूं, वह करते चलो, पकड़ो कान! साहब ने बनावटी हंसी हंसकर कहा-वेल बाबू जी, आप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहता है, तो हम आपसे माफी मांगता है। फतहचंद-(डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो! साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि फतहचंद के हाथ से लकड़ी छीन लें, लेकिन फतहचंद गाफिल न थे। साहब मेज पर से उठने न पाये थे कि उन्होंने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही, चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गयी। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले-हम तुमको बरखास्त कर देगा। फतहचंद-इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊंगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसी बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ना ही चाहता है! यह कहकर फतहचंद ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाय। कान पर हाथ रखकर बोले-अब आप खुश हुआ? फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे? कभी नहीं। अगर फिर कभी ऐसा किया, तो समझ लेना, मैं कहीं बहुत दूर नहीं हूं। अब किसी को गाली न देगा। अच्छी बात है, अब मैं जाता हूं, आज से मेरा इस्तीफा है। मैं कल इस्तीफा में यह लिखकर भेजूंगा कि तुमने मुझे गालियां दीं, इसलिए मैं नौकरी नहीं करना चाहता, समझ गये? साहब-आप इस्तीफा क्यों देता है? हम तोहम तो बरखास्त नहीं करता। फतहचंद-अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूंगा। यह कहते हुए फतहचंद कमरे से बाहर निकले और बड़े इत्मीनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीवन की पहली जीत थी।
साभार :भारतीय पक्ष से 

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