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Tuesday, June 7, 2011


मैं हूँ पेड़।
नीम,बबुल,आम,बड़,पीपल,
सागवान,सीसम और चन्दन का पेड़।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
फूल देता,फल देता।
सूखने के बाद लकडी देता।
और जो है सबसे आवष्यक कहलाती है
जो प्राणवायु,ऐसी ऑक्सीजन वो भी मैं ही तुम्हें देता।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
बदले में तुमसे क्या लेता,कुछ भी तो नहीं लेता।
और तुम मुझे क्या देते ? बताओ तो जरा
हाँ लेकिन तुम
काटते हो मेरी टहनियाँ,मेरी शाखाएँ,मेरा तना
मुझे लंगडा व लूला बनाते हो।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
तुम रूठ जाओ तो क्या होगा नुकसान ?
कुछ भी नहीं फिर भी तुम्हें मनाती हैं माँ और बहन
मैं रूठ जाऊँ तो क्या होगा ? कौन मनाएगा मुझे
और मैं नहीं माना तो !
आक्सीजन कौन देगा तुम्हें
वर्षा भी नहीं होगी,पानी नहीं मिलेगा
सूर्य के प्रकोप से कौन बचाएगा
पथिक को विश्राम कहा मिलेगा।
तुम्हें फल,फूल,दवा और लकड़ी कौन देगा।
सोचा है तुमने कभी ?
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
मैने देखा है आप मुझे लगाने के नाम पर रेकार्ड बनाते है।
लगाते दस और बताते सौ है 
और चल पाते है उनमें से भी मात्र कुछ पेड़
बताओ मुझे 
तुमने जो पेड़-पौधे लगाए
उनको पानी कितनी बार दिया।
कितनों की सुरक्षा की और पेड़ बनाया।
हॉ मैं स्वयं जब अपनी संतति फैलाने की कोशिश करता हूँ ।


अपने बीजों को हवा से दूर-दूर फेंककर उगाना चाहता हूॅ।
तो तुम उसमें भी डाल रहे हो रूकावट 
बताऊं  कैसे ?
तुमने जमीन को पौलिथीन की थैलियों से बंजर बना दिया है
इन थैलियों ने जमीन में फेला रखा है अपना साम्राज्य
ये थैलियॉं मेरे  बीज को,
मेरी जड़ों को जमीन में जाने नहीं देती
मुझे उगने को पनपने को,जगह नहीं देती
अगर यह स्थिति रही तो, 
एक दिन धरा हो जाएगी मुझसे विरान
मिट जाएगा धरा से मेरा नामो-निषाँ
भला मेरा तो इससे क्या जाएगा
पर बताओ मानव ऑक्सीजन कहां से पाएगा।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
मुझे लगाकर ऐसे ही छोड देने वाले
मेरे नाम पर रेकार्ड बनाने वाले
मेरी परवरिष नहीं करने वाले
तुम्हें तो सजा मिलनी चाहिए
सजा भी ऐसी वैसी नहीं बल्कि
भ्रूण हत्या करने वाले को मिलती है जैसी।
वोही सजा ऐसे लोगो को मिलनी चाहिए
क्योंकि पौधों को लगाकर उनकी रक्षा न करना
उसे मरने के लिए छोड़ देना भ्रूण हत्या के समान है।
मुझे यह सब कहना पड़ा।
अपनी पीड़ा को व्यक्त करना पड़ा
क्योंकि मैं चाहता हूँ आपका भला
आप भी चाहो मेरा भला।


मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।


युवा सामाजिक कार्यकर्त्री 
                                                                 दिव्या संजय जैन
गाँधीनगर चित्तौडगढ़ (राज.)
पिन नं.-312001

Thursday, April 28, 2011

साहित्य का सच वास्तविक सच से भिन्न होता है : संजीव 
 
        "जबानें दिलों को जोड़ने के लिए होती हैं तोड़ने के लिए नहीं"  ये उदगार पूर्व अध्यक्ष महाराष्ट्र राज्य उर्दू  अकादमी के डा. अब्दुल सत्तार दलवी ने २३ अप्रैल २०११ को बेंक्वेट हाल, गोरेगांव [पूर्व] मुम्बई में हेमंत फ़ाउंडेशन द्वारा आयोजित विजय वर्मा कथा सम्मान समारोह में व्यक्त किये। उन्होंने आगे कहा- 'नौजवनों की हौसला अफ़जाई वक्त की अहम जरूरत है और यह काम हेमंत फ़ाउंडेशन बखूबी कर रहा है।' हिन्दी उर्दू के साहित्यकारों, टी.वी. कलाकारों, साहित्यप्रेमियों , मीडिया प्रेस से संलग्न तथा बाहर से आये हुए साहित्यप्रेमियों की उपस्थिति में तालियों की गड़गड़ाहट तथा संगीत की सुमधुर ध्वनि के बीच वर्ष २०११ का 'विजय वर्मा कथा सम्मान' मनोज कुमार पांडे [लखनऊ] को उनके कथा संग्रह 'शहतूत' के लिए तथा ' हेमंत स्मृति कविता सम्मान' वाजदा खान [दिल्ली] को उनके कविता संग्रह 'जिस तरह घुलती है काया' के लिए प्रमुख अतिथि श्री संजीव [कार्यकारी संपादक हंस] एवं अध्यक्ष श्री अब्दुल सत्तार दलवी ने प्रदान किया। पुरस्कार के अंतर्गत ग्यारह हजार की धनराशि,शाल,पुष्पगुच्छ, एवं स्मृति चिह्न प्रदान किया गया।
कार्यक्रम का आरंभ दीप प्रज्वलन एवं सरस्वती वंदना से हुआ। संस्था के निदेशक श्री विनोद टीबड़ेवाला एवं श्री जे.जे.टी. विश्वविद्यालय झुंझनू के कुलपति ने इस समारोह पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा- उन्हें गर्व है कि उनका विश्वविद्यालय ऐसे साहित्यिक समारोह से जुड़ा है। उन्होंने दोनों पुरस्कृत रचनाकारों का सम्मान करते हुए उन्हें युवा पीढ़ी का मील का पत्थर बताया।
संस्था की अध्यक्ष व प्रबन्धन्यासी साहित्यकार संतोष श्रीवास्तव ने ट्रस्ट का परिचय देते हुए उसकी गतिविधियों के बारे में बताते हुए कहा कि ट्रस्ट शीघ्र ही हिन्दी-उर्दू मंच तैयार करेगा ताकि दो जबानें मिलकर नए पथ का निर्माण करें।
समारोह में पुरस्कृत कविता संग्रह पर डा. करुणाशंकर उपाध्याय ने अपने वक्तव्य में कहा- वाजदाखान की कविताएं चित्र से परिपूर्ण हैं और कविताएं बिम्ब पूर्णता को दर्शाती हैं। 
लेखिका डा. प्रमिला वर्मा ने संयोजक श्री भारत भारद्वाज द्वारा भेजी गई संस्तुति प्रस्तुत की। सम्मानित रचनाकार  वाजदाखान ने अपनी रचनाओं का पाठ किया एवं अपने वक्तव्य पर बोलते हुए कहा - चित्रकला मेरा क्षेत्र रहा, मगर कविताओं को लिखना पढ़ना हमेशा आकर्षित करता रहा। कविताएं अन्तश्चेतना के किसी हिस्से को बड़ी ही आहिस्ता से स्पर्श करती हैं। यह जादुई स्पर्श कई-कई दिनों तक वजूद पर छाया रहता है।
मनोज कुमार पांडे ने अपने वक्तव्य में कहा कि मैं विजय वर्मा कथा सम्मान मिलने पर खुश हूं। और सचमुच सम्मानित महसूस कर रहा हूं। इसलिए भी क्योंकि यह सम्मान अपनी शुरूआत से ही विश्वसनीय रहा है और कई ऐसे कथाकारों को मिल चुका है जिनकी रचनाएं मैं गहरे लगाव के साथ पढ़ता रहा हूं। 
प्रमुख अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्री संजीव ने अपने रोचक वक्तव्य में कहा- साहित्य का सच वास्तविक सच से भिन्न होता है। प्रगटत: मिथ्या सा लगता है लेकिन वह उस वास्तविक सत्य से ज्यादा बड़ा सत्य होता है। उदाहरण स्वरूप उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की काबुलीवाला का जिक्र किया जिसमें रहमत नायक जेल में १२ वर्ष गुजार कर जब घर लौटता है तो अपनी ५ वर्ष की बेटी के लिए चूड़ियां ले जाता है । उसके लिए बेटी आज भी पांच वर्ष की है। रहमत के लिए वक्त वहीं ठहर गया है। उन्होंने कहा कि ''अपने यहां किसी भी ऐतिहासिक सच से रामायण-महाभारत का सच समाज को ज्यादा प्रभावित करता रहा है।''
मनोज कुमार पांडे की कहानी 'पत्नी का चेहरा' आवाज तथा रंगमंच की दुनिया के प्रखर कलाकार सोनू पाहूजा ने अपने रोचक अंदाज में प्रस्तुत की।
कार्यक्रम का संचालन कवि आलोक भट्टाचार्य ने किया एवं समारोह का समापन लेखिका सुमीता केशवा के आभार से हुआ।                                                                             सुमीता केशवा

Monday, April 4, 2011




चित्तोड़गढ़ में 'नव संवत्सर:आज़ के वैश्विक 
परिप्रेक्ष्य में' विषयक संगोष्ठी की रपट

''.समय सभी के साथ एक सा रहता है.हम ही अनुकूल-प्रतिकूल बन पड़ते हैं.बीते बीस सालों में हमारा भारत देश ही समय के प्रतिकूल स्तिथि में रहा है.विचार गोष्ठी के बहाने आज़ हमें देश को अनुकूल बनाने की बात करनी है. वैश्वीकरण ने हमारा सोच,विचार और विरासत सबकुछ बदल कर रख दिया है.कई देशों का आत्मविश्वास तक तोड़ दिया है.इन सालों में हमारे दिमाग पर सोचा समझा हमला किया गया हैं.हमारे देश के वैविध्य को कौन नहीं जानता है.कई तरह के आक्रमणों के बावजूद बनी रही हमारी संस्कृति ही हमारे लिए अकूत खज़ाना है.भारत की वैदिक संस्कृति के प्रति नतमस्तक नोबल विजेताओं को देखकर अब तो कुछ सीखना चाहिए.दूजी और हम हैं कि इस बात पर ही मरे जा रहे हैं कि विदेश से क्या आया.सार रूप में कहे तो आज़ हमारा नज़रिया बदलने की बहूत बड़ी ज़रूरत हैं.हम वैचारिक और नैतिक रूप से निर्धन और निर्बल हो चुके हैं.असल में हमने हिन्दुस्तानियों की मानसिक ताकत को ही सबकुछ मान लिया है.जबकी भारतीय मेधा की विश्वा स्तर पट नई पहचान स्थापित हुई वहीं नैतिकता के निम्नतम स्तर भी सामने आए''|
ये विचार विज़न कोलेज ऑफ़ मेनेजमेंट के सहयोग से रेलवे स्टेशन रोड़ स्थित जैन धर्मशाला में नव संवत्सर:आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में' विषयक संगोष्ठी के आधार कथन के रूप में गोष्ठी संयोजक डॉ. ए.एल.जैन ने कहे.अपनी बात को आधार देने हेतु जैन ने अपने सम्पादन में बनी तीन लघु फ़िल्में भी प्रदर्शित की,जिनमें 'देश की पुकार','भारत क्या है?' और 'भारत का सोर्ड विश्लेषण' शामिल हैं.ये फिल्म मेवाड़ विश्वविध्यालय के प्राध्यापक विभोर पालीवाल,जे.रेड्डी और विज़न स्कूल के प्राध्यापक राहुल जैन ने निर्मित की.अंत में डॉ. जैन ने अपनी बात में वक्ताओं का भरापूरा परिचय दिया.इससे पूर्व नगर के गीतकार अब्दुल ज़ब्बार ने एक सरस गीत पढ़ा,जिसे सभी उपस्थित प्रबुद्धजनों ने बहुत सराहा.साथ ही डॉ. योगेश व्यास ने इस गोष्ठी से जुड़े और भी कड़ीवार आयोजनों की रूपरेखा सभी के बीच रखी.|
युवा और बुज़ुर्ग वक्ताओं के पांच सदस्यीय दल में से शुरुआत रामधारी सिंह दिनकर पर शोधरत रेणु व्यास ने की.उन्होंने काल जैसे शब्द के कई अर्थ ज़ाहिर करते हुए अपने ढंग से गोष्ठी को दिशा दी.उन्होंने अपने वक्तव्य में कई रचनाकारों को शामिल करते हुए तथ्यात्मक बातें की गयी.उन्होंने कहा की सभ्यताओं को संघर्ष से नहीं जीता जा सकता ,न ही शक्ति के बल बूते.ये भारत ही हो सकता है जहां कई सारे संवत और कलेंडर प्रचलित हैं.इस बहुविध परम्पराओं वाले इस देश में एक भी कलेंडरअपने आप में पूरा नहीं है.उन्होंने भारतीय नव वर्ष को हिन्दू नव वर्ष जैसी उपमा देना बहुत चिंताजनक बताया.साथ ही वे कहती ही कि भौतिकता के साथ ही मानसिक रूप से भी भारत ने प्रगति की है.हमारे देश में भौतिकता के साथ अध्यात्म का समन्वय बेहद बेजोड़ है.ये ही हमारे भारतीय नवजागरण का सबसे बड़ा मूल्य साबित हुआ है|
दूजे वक्ता के रूप में जिला कोषाधिकारी हरीश लढ़ढ़ा ने कहा कि हमारे राष्ट्र में भांत-भांत के जाति और व्यावसायिक वर्ग है उनके लिए इस वर्ष का अलग अलग अर्थ रहा है.मगर वैश्विक रूप से चिंतन करें तो बात शक्तिशाले होने से जुडी है जो आर्थिक,सांस्कृतिक रूप से बड़ा है सभी उसकी ही बात मानते हैं. उसके ही रंग में सभी डूब रहे हैं.ज़रूरत इस बात की है कि हम भी अपनी सांस्कृतिक परम्परा को ठीक ढंग से अपनी संतानों में उंडेल पाएं.बड़ी अजीब बात है सब कुछ अब अर्थ के हिसाब से लगने लगा हैं.वे अपनी पूरी बात में देश के प्रति किसी भी प्रकार के हमले जैसी हालत से बेचिंता नज़र आए|
तीजे वक्ता के रूप में वरिष्ठ अधिवक्ता कैलाश झंवर ने देश के लिए इन अवनति की पराकाष्ठा वाले हालातों में भी निराश नहीं होकर फिर से कुछ गुज़रने के लिए चिंतन का आव्हान किया.उन्होंने सत्ता,धन और देश की दशा के बीच के समीकरण को सपाट गति से विश्लेषित किया.अपने भाषण में झंवर ने कहा कि आज के आदमी का चिंतन जाता रहा.अब एक बार फिर से स्वतन्त्रता आन्दोलन की ज़रूरत हैं.भौतिक प्रगति के समान्तर हमें वैचारिक दरिद्रता भी मिटानी होगी.वे कहते हैं कि नेतृत्वकर्ता ही दिशाहीन है,ये बेहद चिंताजनक हालात को इंगित करता है|
इस अवसर पर जे.के.सीमेंट के वरिष्ठ सलाहकार ए.बी.सिंह ने आम बोलचाल की भाषा में हमारे ही बीच के लोगों की मानसकिता के उदाहरण देते हुए देश के बारे में कई ज़रूरी मुद्दे उठाए एवं समूह और कर्म की ताकत को आवश्यक बताया.और अंत में सेवानिवृत कोलेज प्राचार्य प्रो. डी.सी.भाणावत ने अपनी अंग्रेज़ी और हिंदी कविता के सहारे रसीला उद्बोधन दिया.युवा पीढी के गलत हाथों में दोहन और टी.वी. प्रोग्राम में नारी पर छींटाकसी के साथ ही कई विलग मुद्दों पर भी उन्होंने अपनी बातें कही.
गोष्ठी के अंतिम भाग में भारतीय नववर्ष आयोजन समिति के सह सचिव और सी.ए. सुशील शर्मा ने आभार जताया.राष्ट्रगान के साथ ही आयोजन पूरा हुआ.इस सम्पूर्ण गोष्ठी का संचालन 'अपनी माटी' वेबपत्रिका के सम्पादक और संस्कृतिकर्मी माणिक ने किया.दो घन्टे तक चली गोष्ठी में नगर के लगभग सभी वर्गों और संस्थाओं के शीर्षस्थ पदाधिकारी,कई शैक्षणिक संथाओं के प्रधान और साहित्यकार सहित दो सौ प्रतिभागी मौजूद थे.
चित्तोड़गढ़ से माणिक की रिपोर्ट    

Friday, March 25, 2011

हाईकमीशन लन्दन में विश्व हिन्दी दिवस 
पर साहित्यकार सम्मानित


ब्रिटेन में २१ मार्च को विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में भारतीय उच्चायोग, भारत भवन, ऑल्डविच लन्दन में एक समारोह का आयोजन किया गया. इस समारोह में भारतीय उच्चायोग ,लन्दन द्वारा घोषित हिंदी सेवा सम्मान योजना के अंतर्गत भारतीय उच्चायुक्त महामहिम नलिन सूरी ने वर्ष २०१० के हिंदी साहित्य सेवा सम्मान प्रदान किये.
कार्यक्रम में ख्यातिप्राप्त साहित्यकार उषाराजे सक्सेना को हरिवंशराय बच्च्न सम्मान, प्रसिद्द साहित्यकार स्वर्गीय महावीर शर्मा जी को हजारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (पत्रकारिता- मरणोपरांत) एवं ऐश्वर्या कुमार को जॉन गिलक्रिस्ट सम्मान (अध्यापक), कथा यू के को फ्रेड्रिक पिन्कॉट सम्मान तथा अरुण सब्बरवाल(कविता) एवं शिखा वार्ष्णेय (संस्मरण) को डॉ लक्ष्मी मल्ल सिंघवी हिंदी साहित्य प्रकाशन अनुदान ससम्मान प्रदान किए गए.
आयोजन में लन्दन में भारतीय उच्चायुक्त श्री नलिन सूरी सहित उप-उच्चायुक्त श्री प्रसाद, संस्कृति मंत्री श्रीमती मोनिका मोहता उपस्थित रहे. उच्चायुक्त श्री नलिन सूरी ने पुरस्कार वितरण किये और अपने बहुमूल्य शब्दों से संबोधित किया. आयोजन का सञ्चालन उच्चायोग के हिंदी अताशे श्री आनंद कुमार ने किया, तदुपरांत श्रीमती पद्मजा जी ने धन्यवाद ज्ञापन के साथ समारोह का समापन किया .
विशिष्ट व्यक्तियों में मेयर लन्दन, काउंसलर जे एस ग्रेवाल, काउंसलर जाकिया जुबेरी, काउंसलर सुनील चोपड़ा, पूर्व अंजना पटेल, तेजेंद्र शर्मा और गौतम सचदेव के अतिरिक्त लन्दन में हिंदी साहित्य के कई गणमान्य व्यक्ति एवं मीडिया कर्मी उपस्थित थे.

Thursday, March 10, 2011

सन 2011 का "रामनाथ गोईन्का पत्रकार
शिरोमणी पुरस्कार "डॉ राधेश्याम शुक्ल को
निज़ामाबाद| हैदराबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक श्रंखला " स्वतंत्र वार्ता " के समूह संपादक डॉ राधेश्याम शुक्ल को सन 2011का  "रामनाथ गोईन्का पत्रकार शिरोमणी पुरस्कार " से नवाजा जाएगा | पुरस्कार के रूप में डॉ शुक्ल को 51 हजार रुपये नकद के साथ साथ शाल,श्रीफल एवम प्रशस्तिपत्र प्रदान किया जाएगा.यह जानकारी कमला गोइन्का फाउन्डेशन द्वारा जारी
एक प्रेस विज्ञाप्ति श्याम सुन्दर गोइन्का ने दी है. इससे पूर्व सन 2009 मे श्रीकांत पराशर एवम 2010 में नवभारत टाईम्स के पूर्वसंपादक विश्च्नाथ सचदेव जी को दिया गया है.उन्हों ने बताया है कि यह पुरस्कार ईलेक्ट्रोनिक्स एवम प्रिंट मीडिया के पत्रकारोंको दिया जाता है.पता हो कि एक वर्ष ईलेक्ट्रोनिक्स एवम दूसरे वर्ष प्रिंट मीडिया के लोगों को दिया जा रहा है.विज्ञप्ति के मुताबिक
हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के हिंदी पत्रकारों एवम दूसरे वर्ष हिंदी भाषी क्षेत्रों के हिंदी पत्रकारों को जाता है.जिसके तहत डॉ राधेश्याम शुक्ल को सन 2011 का यह पुरस्कार दिया जा रहा है| मूलतः अयोध्या के रहने वाले डॉ शुक्ल पिछले 41 वर्षों से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हैं| जिन्हों ने  फैजाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक "जनमोर्चा "से पत्रकारिता की शुरुवात की .बाद में डॉ शुक्ल ने वहीँ से प्रकाशित हिंदी दैनिक"हमलोग" में संपादक बने.उसके बाद मेरठ से प्रकाशित "अमरउजाला " एवम दैनिक जागरण को अपनी महत्त्वपूर्ण दीं | जनवरी 1998 सेहैदराबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक "स्वतंत्र वार्ता "में समूह संपादक बने.विदित हो कि "स्वतंत्र वार्ता" का प्रकाशन हैदराबाद के आलावानिज़ामाबाद एवम विशखापतानम से भी होता है.डॉ शुक्ल द्वारा लिखित पुस्तक "रामजन्म भूमि का प्रमाणिक इतिहास " काफी लोकप्रियरही है|श्री गोइन्का के मुताबिक केरल के वरिस्थ साहित्यकार डॉ एन .ई .विश्वनाथ अय्यर को"गोइन्का हिंदी साहित्य सारस्वत " सम्मान तथा इसी  तरह "बाबूलाल गोइन्का हिंदी साहित्य पुरस्कार "चेन्नई के डॉ एम्.शेषन को उनकी लोकप्रिय कृति "तमिल संगम "केलिए दिया गायेगा| जिन्हें पुरस्कार के रूप में 21000 रुपये नकद के साथ -साथ शाल,श्रीफल एवम प्रशस्ति पात्र प्रदान किया जाएगा |

Sunday, February 13, 2011

पुस्तक समीक्षा


    अशोक जमनानी की पुस्तक

  छपाक-छपाक


होशंगाबाद के अशोक जमनानी जिन्हें उनकी कविताओं के साथ ही संस्कृतिकर्म के ज़रिए तो जाना जाता भी है,मगर साथ ही पिछले कुछ सालों में उनके तीन उपन्यास भी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए हैं.उनकी सबसे प्रखर कृति व्यास गादी में उन्होंने आज कल के बाबा-तुम्बाओं की आश्रम बनाओ प्रतियोगिता के सच को अपनी गूंथी हुई शैली में पूरी बेबाकी से लिखा था.मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी के दुष्यंत कुमार सम्मान से पिछले साल ही नवाजे गए जमनानी के अन्य उपन्यासों में बूढी डायरी और को अहम् भी खासे चर्चित रहे.इस बार भाषा के स्तर पर नया प्रयोग का असर देने वाला उपन्यास छपाक-छपाक पाठक के हाथों में आया जनवरी के अंत तक आया.पांच भागों में बंटा हुआ अशोक जमनानी का नया उपन्यास एक सौ साठ पेज है,जिसे एक बार फिर दिल्ली के तेज़ प्रकाशन ने छापा है. मैंने एक ही बैठक में साठ पेज पढ़ते हुए पार कर गया. एक भाग पढ़ा. इसी बीच पांच बार रोया. अशोक भाई को अपनी टिप्पणी देते हुए भी रो पढ़ा.बातों में पता लगा कि अशोक खुद भी लिखते वक्त इस कहानी में घंटों रोए हैं.समाज के जीवंत चित्रण को शब्दों में ढालता ये उपन्यास बहुत शुरुआत में तो इमोशनल किस्म का जान पड़ता है,मगर अंत तक जाते जाते बहुत हद तक पिछड़े परिवारों की मानसिकता की परतें पाठक के सामने खोलता है.इसके केन्द्रीय भाव में समाज के मुख्य हिस्से कहे जाने वाले मगर गुरूजीब्रांड  लोगों के बैनर तले शिष्यों से ली जाने वाली बेगार प्रथा जमी हुई नज़र आई.
भारतीय लोकतंत्र में साक्षरता के आंकड़े भले ही ऊँचे उठ गए हो मगर आज भी संवाद पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि ऐसी कई परम्पराए मौजूद हैं जो पैरों की नीचे की ज़मीन ढहाती लगती है.रचना का मुख्य पात्र नंदी बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से पाठक के मानसपटल पर अपनी तस्वीर बनाता है.शुरुआत से लेकर अंत तक भले आदमी के माफिक अपने दायित्व के इर्दगिर्द चलता है.न बहुत दूर,न ही बहुत सटा हुआ .

अशोक जमना
सामाजिक और धार्मिक जीवन में ऊँचे स्थान पर मानी जाने वाली नर्मदा नदी के साथ ही वहाँ के आलम को इस उपन्यास में प्रयाप्त रूप से मान मिला है.हर थोड़ी देर में नदी के बहाव को देखता हुआ लेखक अपने पात्रों के बहाने असल जीवन दर्शन को कागज़ में छापता है.शाम-सवेरे और सूरज जैसी उपमाओं के ज़रिए भी बहुत गहरी बातें संवादों में रूक रूक कर समाहित की गई है.संवादों में बहुत से ऐसे शब्दों का समावेश मिलेगा जो उस इलाके के देशज लगते हैं.समय के साथ अपने में बदलाव करता नंदी उम्र के साथ जिम्मेदारियां ओढ़ता है.मगर आसपास की समस्याएँ उसे हमेशा सालती रहती है.गलत संगत से बिगड़ते स्कूली बच्चों पर केन्द्रित ये उपन्यास बस्ती जैसे हलको की सच बयानी करता है.कथ्य भी मध्य प्रदेश में बहती नर्मदा मैंया के किनारे वाले प्रवाह-सा रूप धरता है.पढ़ते हुए कभी मुझे ये उपन्यास पाठक को सपाट गति  से समझ में आने वाली फिल्म के माफिक भी लगता है.
ये छपाक-छपाक वो आवाजें है जिसमें नंदी ने अपने पिता भोरम,अपनी माँ सोन बाई को खो दिया, ये ही वो छपाक की धम्म है जिसके चलते नंदी को स्कूल छोड़ना पड़ा ,ये ही वो आवाज़ है जहां अपने कुसंस्कारों की औलादें बीयरपार्टी सनी पिकनिक मनाती है,और बहते पानी में अपने मित्र खो देते लोगों की कहानी बनाती  है.ऊँची जात के युवक जब बहते हुए मरने वाले होते हैं तो नीची जात के कुशल तैराक उन्हें बचा लेते हैं.मगर खून तब खोलता है जब उपन्यास में वो ऊँची जात के मरते मरते बचे बेटे वीरेंद्र की माँ तैरने में उस्ताद नंदी की जात पूछकर खीर खिलाने का बरतन डिसाइड करती है.दकियानूसी परिवारों में फंसी सादे घरों की बेटियों की पीड़ा झलकाता देवांगी का चरित्र भी बहुत कम समय उपस्थित रह कर भी प्रमुखता से उभरा है.उपन्यास के बहुत बड़े हिस्से को घेर बैठे दो नबर के धन्धेबाज़ भैया जी और उनके बेटे वीरेंद्र जैसे घाघ किस्म के लोग भी इस दुनिया में बहुतेरे भरे पड़े हैं.ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज भी नंदी जैसे आदिवासी उनके बड़े दरवाजों वाले मकानों के भाव में डूब कर उनके पैर दबा रहे हैं.उपन्यास के अंत में खुद के अंत के साथ ही बाज़ आने वाला तंतर-मंतर का पोटला वो पड़िहार भी घाघ ही था.इस रचना में जहां पापी लोग भरे हैं वहीं ठीक दिल के पत्र भी हिस्सा रहे हैं.
मानवीय मूल्यों की बात करें तो सभी बातों और विचारों के बीच सोन बाई,बघनखा और भोरम के मरने पर नंदी के मन का दु:ख समझने वाले पंचा काका और बचपने की मित्र महुआ जैसे लोग कम ही सही मगर आज भी हमारे इस परिदृश्य में बचे हैं.माँ नहीं होकर भी सुखो काकी ने नंदी पर अपना वात्सल्य ऊंडेल दिया.ये भाव अब भी देहात में सरस है.वीरेंद्र ने नंदी को पुलिस से बचाने के हित अपने पिता तक से दुश्मनी कर ली.नंदी को जेल से छुडाने में गिरवी रखे खेतों पर सेठजी की खराब नज़र भी अंत तक जाते जाते भली बन पड़ी. सच ही है कि मानव-मूल्यों की याद आदमी को धीरे ही आए मगर अन्तोगत्वा उन्ही की शरण से मुक्ति संभव लगती है.वैसे भी अच्छे दिल के लोग भगवान् जल्दी ही ऊपर बुला ले रहा है,वहीं बाकी की कसर तेजी से बदलते ज़माने की इस रफ़्तार में मानव मूल्यों की चटनी बनाकर पूरी कर दी है.यहाँ भी कई भले लोग जल्दी मर गए.कुछ दह तक व्यवसाई अशोक स्पिक मैके नामक सांस्कृतिक आन्दोलन से भी जुड़े होने से अपने बहुत से गुणों के साथ उपन्यास में धुंधले से ही सही मगर दिखते हैं. उपन्यास में उनके कला और धर्म प्रेम की झलक बखूबी दिखती है.अशोक निचले तबके के लोगों के कठोर श्रम प्रधान जीवन से भलीभांती परिचित है.थोड़े-थोड़े दिनों में नर्मदा नदी के किनारे अकले में की गई उनकी लम्बी यात्राएं भी इस रचना से झांकती नज़र आई है.एक नदी के प्रति माँ का सा भाव उनकी अपनी मिट्टी के प्रति समर्पण भाव और स्वयं को उन्ही प्राकृतिक और विरासती पहचानों के हित घुला देने की उनकी प्रवृति को सलाम करता हूँ.उनकी पिछली रचनाओं की अपेक्षा ये उपन्यास आम पाठकों तक ज्य़ादा अच्छे से पहुँच बनाने में सफल हो पाएगी,ऐसा मेरा मानना है.
उपन्यास में आए पात्रों के नाम भी पूरे रूप में आदिवासी पहचान लिए हुए है.नदी,जंगल,बस्ती के इर्दगिर्द जंगली पेड़ों के नाम और वहां का अछूता जीवन आज भी शहरों की आधुनिकता के आगे थूंकता है.आज भी ऐसे गाँव हैं जहां अपने रोजी के रूप में लोग नदी में धर्म के नाम पर डाले सिक्के खंगालते हैं.आज भी अपने किसी काम के बाकी रहते लोग मर जाने पर मुक्ति के लिए भटकते रहते हैं.इसके उलट समाज की बहुत सी बीमारियाँ आज भी दबे कुचले गांवों में जड़ें पकड़ी हुई है.ये एक रूप है तो दूजा नंदी के प्यार में उसकी हर पीड़ा को समझने वाली महुआ नायिका के रूप में अपने थोड़े मगर सुगठित संवादों के साथ उभरी है.परेशानियों के हालात में नन्दी को गांवों में मिलने वाली सहज स्नेह दृष्टी के साथ कई सारे कड़ुए घुट भी पीने पड़े,जो यथासमय बदलते गांवों की कहानी कहते प्रतीत होते हैं.समग्र रूप से छपाक-छपाक जैसा उपन्यास एक बार फिर पाठकों को सोचने के हित कई सारे मुद्दे छोड़े जा रहा है जो आज फिर से हमारी आर्थिक और वैचारिक गुलामी का द्योतक साबित हुआ है.ये रचना पढ़ने के बाद एक बार फिर लगा कि पुलिस तंत्र सहित सेठ-साहूकारों,वकीलों,डॉक्टरों,और गुरुजनों तक के सहयोग से भ्रटाचार की दीमक खुल्लेआम फ़ैली है.आज भी देहाती इलाकों में हॉस्पिटल जैसी चिड़ियाँ मिलना मुश्किल है और मज़बूरन आदमी जादू-टोने के भरोसे ही सांस लेते हैं.एक बार फिर सच तो यही लगने लगा है कि जुग्गियों और बस्तियों की ज़िंदगी में पास बहते नदी-नाले  के पानी में थप-थप करने और कूदने पर छपाक-छपाक आवाजें आने मात्र ही उनके मनोरंजन के साधन बनकर उन्हें खुशियाँ देते हैं,और ये ही वो जगह है जहां वे अपना दु:ख साझा कर सकते हैं.वाकई ये उपन्यास वर्तमान को उकेरता है,तो बहुत दूर तक पढ़ा जाएगा.
समीक्षा :मणिकान्त 

Monday, January 31, 2011

गांधी,भीमसेन जोशी और 
श्रीकांत देशपांडे को श्रृद्धांजली 
एक ही दिन में देश के तीन दिग्गज जानकारों को स्पिक मैके आन्दोलन के बैनर तले आयोजित श्रृद्धांजली सभा के बहाने याद किया गया.तीस जनवरी,रविवार की शाम चित्तौड़गढ़ शहर के गांधी नगर स्थित अलख स्टडीज़ शैक्षणिक संस्थान में आपसी विचार विमर्श और ज्ञानपरक वार्ता के ज़रिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी,भारत रत्न स्व. पंडित भीमसेन जोशी के साथ ही शनिवार को ही दिवंगत हुए किराना घराना गायक श्रीकांत देशपांडे को हार्दिक श्रृद्धांजली दी गई.आयोजित सभा के सूत्रधार 'अपनी माटी' वेब पत्रिका के सम्पादक माणिक ने विषय का आधार रखते हुए महात्मा गांधी के हित रामधारी सिंह दिनकर की लिखी कुछ कविताओं का पाठ किया.बाद में  कविताओं के अर्थ भी बहुत देर तलक विमर्श का  हिस्सा रहे 
प्रमुख वक्ता के रूप में वरिष्ठ अधिवक्ता भंवर लाल सिसोदिया ने  इस अवसर पर गांधी दर्शन को आज के परिप्रेक्ष  में किस तरह से अपनाया जा सकता है पर विचार रखे.देश की आज़ादी के पहले से लेकर बाद के बरसों में गांधी दर्शन की ज़रूरत पर कई बिन्दुओं से विचार विमर्श हुआ.सिसोदिया ने कहा कि गांधी ने अपने काम के ज़रिए  वर्ण  व्यवस्था पर बहुत पहले से प्रहार करना शुरू कर दिया था. आज समाज में समानता और स्त्री अधिकारों की बातचीत का जितना भी माहौल बन पाया है, ये उसी विचारधारा की देन हैं. गांधी की  दूरदर्शिता में ग्राम स्वराज्य का सपना उनके प्रमुख और लोकप्रिय ग्रन्थ 'हिंद स्वराज' के पठन से भलीभांती समझा जा सकता है.सिसोदिया ने वर्ष में एक बार किसी आश्रम में पांच-छ; दिन का समय बिताने पर भी जोर दिया और कहा कि उन्होंने भीमसेन जोशी को भी  देवधर आश्रम,मुंगेर,बिहार में ही लगातार सात दिन तक सुना था,जो आज तक अदभुत और यादगार क्षण लगता है.
एच.आर. गुप्ता ने अपने उदबोधन  में अपने बाल जीवन से ही स्वयं सेवा के आन्दोलन  में मिले अनुभव बताते हुए गांधीवादी विचारकों के साथ की गई संगत को याद किया.उन्होंने यहाँ-वहाँ विचार-विमर्श की जुगाली करते रहने के बजाय अपने घर से विचार और कर्म में समानता लाने की पहल पर जोर दिया.

सभा के दूजे सत्र में सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी एस.के.झा ने लब्ध प्रतिष्ठित गायक भीमसेन जोशी पर अपना विस्तृत पर्चा पढ़ा.उन्होंने उनके गाए भजन,अभंग और रागों के बारे में अपने अनुभव सुनाए.साथ ही झा ने संगीत को सुनने और समझने  के लिए लगातार अच्छी संगत की ज़रूरत व्यक्त की.गुरु शिष्य परम्परा की बात पर संगीत प्राध्यापिका भानु माथुर ने भी अपने महाविद्यालयी जीवन के बहुत से अनुभव सुनाए.इस आयोजन में मुकेश माथुर.सामजसेवी नित्यानंद जिंदल और युवा फड़ चित्रकार दिलीप जोशी ने भी अपने विचार रखे.अंत में स्पिक मैके संस्था समन्वयक जे.पी.भटनागर ने आभार ज्ञापित किया. दिवंगत आत्माओं के लिए मौन रख रखने के बात सभा पूरी हुई. 
माणिक