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Wednesday, July 27, 2011


प्रेमचंद के अमर पात्र ने मूंद ली आंखें

वाराणसी में  पाण्डेयपुर स्थित नयी बस्ती की कुम्हार पट्टी में सोमवार की सुबह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी मैकू के नायक मैकू ने अंतिम सांस ली। वह करीब 104 साल के थे। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम तो करीब दो साल ही किया किंतु इसी दौरान उनकी एक चर्चित कहानी का नायक बनने का मौका पाने वाले सौभाग्यशाली बन गये। मुंशी जी के निधन के बाद करीब तीन दशक तक मैकू ने इलाहाबाद स्थानांतरित हो चुके सरस्वती प्रेस और हंस प्रकाशन में काम किया। इसके बाद वह पाण्डेयपुर में अपने चार बेटों के संयुक्त परिवार के साथ रह रहे थे। बेटों का परिवार अपने पारंपरिक धंधे में है। सभी मिट्टी के कुल्हड़ और घड़ा आदि बनाने के काम करते हैं। उनके बड़े बेटे का निधन हो चुका है। मैकू के पुत्र कैलाश प्रजापति ने बताया कि वह लंबे समय से देख पाने में असमर्थ थे किंतु हमेशा मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताते रहते थे। उन्हें उनकी अधिकतर कहानियां याद थीं। मैकू की प्रेमचंद से पहली मुलाकात 1934 में लमही गांव में तब हुई थी जब वह बेरोजगार युवक थे और उसी गांव में स्थित अपनी बहन की ससुराल गये थे। प्रेमचंद ने उन्हें अपने छापेखाने में काम दिया था। पाण्डेयपुर से रामकटोरा डयूटी करने आने के क्रम में ही एक बार मैकू का चौकाघाट स्थित ताड़ीखाने के पास एक नशेड़ी से झगड़ा हो गया। लठैत मैकू ने उसे धूल चटा दी। छापेखाने में आकर उन्होंने प्रेमचंद से इसकी चर्चा की। इसके कुछ समय बाद अचानक उन्हें हंस पत्रिका में अपने नाम के ही शीर्षक वाली मैकू कहानी दिख गयी। यह नशा-मुक्ति पर लिखी प्रेमचंद की एक अमर कथा-कृति है।

 मैकू  (मूल कहानी)

कादिर और मैकू ताड़ीखाने के सामने पहूँचे;तो वहॉँ कॉँग्रेस के वालंटियर झंडा लिए खड़े नजर आये। दरवाजे के इधर-उधर हजारों दर्शक खड़े थे। शाम का वक्त था। इस वक्त गली में पियक्कड़ों के सिवा और कोई न आता था। भले आदमी इधर से निकलते झिझकते। पियक्कड़ों की छोटी-छोटी टोलियॉँ आती-जाती रहती थीं। दो-चार वेश्याऍं दूकान के सामने खड़ी नजर आती थीं। आज यह भीड़-भाड़ देख कर मैकू ने कहाबड़ी भीड़ है बे, कोई दो-तीन सौ आदमी होंगे।
कादिर ने मुस्करा कर कहाभीड़ देख कर डर गये क्या? यह सब हुर्र हो जायँगे, एक भी न टिकेगा। यह लोग तमाशा देखने आये हैं, लाठियॉँ खाने नहीं आये हैं।
मैकू ने संदेह के स्वर में कहापुलिस के सिपाही भी बैठे हैं। ठीकेदार ने तो कहा था, पुलिस न बोलेगी।
कादिरहॉँ बे , पुलिस न बोलेगी, तेरी नानी क्यों मरी जा रही है । पुलिस वहॉँ बोलती है, जहॉँ चार पैसे मिलते है या जहॉँ कोई औरत का मामला होता है। ऐसी बेफजूल बातों में पुलिस नहीं पड़ती। पुलिस तो और शह दे रही है। ठीकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं। पुलिस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी?
मैकूचलो, आज दस हमारे भी सीधे हुए। मुफ्त में पियेंगे वह अलग, मगर हम सुनते हैं, कॉँग्रेसवालों में बड़े-बड़े मालदार लोग शरीक है। वह कहीं हम लोगों से कसर निकालें तो बुरा होगा।
कादिरअबे, कोई कसर-वसर नहीं निकालेगा, तेरी जान क्यों निकल रही है? कॉँग्रेसवाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले। नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीट कर रख देते। चार तो वही ठंडे हो गये थे, मगर एक ने हाथ नहीं उठाया। इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फकीर है ! उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो।
यों बातें करते-करते दोनों ताड़ीखाने के द्वार पर पहुँच गये। एक स्वयंसेवक हाथ जोड़कर सामने आ गया और बोला भाई साहब, आपके मजहब में ताड़ी हराम है।
मैकू ने बात का जवाब चॉँटे से दिया । ऐसा तमाचा मारा कि स्वयंसेवक की ऑंखों में  खून आ गया। ऐसा मालूम होता था, गिरा चाहता है। दूसरे स्वयंसेवक ने दौड़कर उसे सँभाला। पॉँचों उँगलियो का रक्तमय प्रतिबिम्ब झलक रहा था।
मगर वालंटियर तमाचा खाकर भी अपने स्थान पर खड़ा रहा। मैकू ने कहाअब हटता है कि और लेगा?
स्वयंसेवक ने नम्रता से कहाअगर आपकी यही इच्छा है, तो सिर सामने किये हुए हूँ। जितना चाहिए, मार लीजिए। मगर अंदर न जाइए।
यह कहता हुआ वह मैकू के सामने बैठ गया ।
मैकू ने स्वयंसेवक के चेहरे पर निगाह डाली। उसकी पॉचों उँगलियों के निशान झलक रहे थे। मैकू ने इसके पहले अपनी लाठी से टूटे हुए कितने ही सिर देखे थे, पर आज की-सी ग्लानी उसे कभी न हुई थी। वह पाँचों उँगलियों के निशान किसी पंचशूल की  भॉति उसके ह्रदय में चुभ रहे थे।
कादिर चौकीदारों के पास खड़ा सिगरेट पीने लगा। वहीं खड़े-खड़े बोलाअब, खड़ा क्या देखता है, लगा कसके एक हाथ।
मैकू ने स्वयंसेवक से कहातुम उठ जाओ, मुझे अन्दर जाने दो।
आप मेरी छाती पर पॉँव रख कर चले जा सकते हैं।
मैं कहता हूँ, उठ जाओ, मै अन्दर ताड़ी न पीउँगा , एक दूसरा ही काम है।
उसने यह बात कुछ इस दृढ़ता से कही कि स्वयंसेवक उठकर रास्ते से हट गया। मैकू ने मुस्करा कर उसकी ओर ताका । स्वयंसेवक ने फिर हाथ जोड़कर कहाअपना वादा भूल न जाना।
एक चौकीदार बोलालात के आगे भूत भागता है, एक ही तमाचे में ठीक हो गया !
कादिर ने कहायह तमाचा बच्चा को जन्म-भर याद रहेगा। मैकू के तमाचे सह लेना मामूली काम नहीं है।
चौकीदारआज ऐसा ठोंको इन सबों को कि फिर इधर आने को नाम न लें ।
कादिरखुदा ने चाहा, तो फिर इधर आयेंगे भी नहीं। मगर हैं सब बड़े हिम्मती। जान को हथेली पर लिए फिरते हैं।
मैकू भीतर पहुँचा, तो ठीकेदार ने स्वागत किया आओ मैकू मियॉँ ! एक ही तमाचा लगा कर क्यो रह गये? एक तमाचे का भला इन पर क्या असर होगा? बड़े लतखोर हैं सब। कितना ही पीटो, असर ही नहीं होता। बस आज सबों के हाथ-पॉँव तोड़ दो; फिर इधर न आयें ।
मैकूतो क्या और न आयेंगें?
ठीकेदारफिर आते सबों की नानी मरेगी।
मैकूऔर जो कहीं इन तमाशा देखनेवालों ने मेरे ऊपर डंडे चलाये तो!
ठीकेदारतो पुलिस उनको मार भगायेगी। एक झड़प में मैदान साफ हो जाएगा। लो, जब तक एकाध बोतल पी लो। मैं तो आज मुफ्त की पिला रहा हूँ।
मैकूक्या इन ग्राहकों को भी मुफ्त ?
ठीकेदार क्या करता , कोई आता ही न था। सुना कि मुफ्त मिलेगी तो सब धँस पड़े।
मैकूमैं तो आज न पीऊँगा।
ठीकेदारक्यों? तुम्हारे लिए तो आज ताजी ताड़ी मँगवायी है।
मैकूयों ही , आज पीने की इच्छा नहीं है। लाओ, कोई लकड़ी निकालो, हाथ से मारते नहीं बनता ।
ठीकेदार ने लपक कर एक मोटा सोंटा मैकू के हाथ में दे दिया, और डंडेबाजी का तमाशा देखने के लिए द्वार पर खड़ा हो गया ।
मैकू ने एक क्षण डंडे को तौला, तब उछलकर ठीकेदार को ऐसा डंडा रसीद किया कि वहीं दोहरा होकर द्वार में गिर पड़ा। इसके बाद मैकू ने पियक्कड़ों की ओर रुख किया और लगा डंडों की वर्षा करने। न आगे देखता था, पीछे, बस डंडे चलाये जाता था।
ताड़ीबाजों के नशे हिरन हुए । घबड़ा-घबड़ा कर भागने लगे, पर किवाड़ों के बीच में ठीकेदार की देह बिंधी पड़ी थी। उधर से फिर भीतर की ओर लपके। मैकू ने फिर डंडों से आवाहन किया । आखिर सब ठीकेदार की देह को रौद-रौद कर भागे। किसी का हाथ टूटा, किसी का सिर फूटा, किसी की कमर टूटी। ऐसी भगदड़ मची कि एक मिनट के  अन्दर ताड़ीखाने में एक चिड़िये का पूत भी न रह गया।
एकाएक मटकों के टूटने की आवाज आयी। स्वयंसेवक ने भीतर झाँक कर देखा, तो मैकू मटकों को विध्वंस करने में जुटा हुआ था। बोलाभाई साहब, अजी भाई साहब, यह आप गजब कर रहे हैं। इससे तो कहीं अच्छा कि आपने हमारे ही ऊपर अपना गुस्सा उतारा होता।
मैंकू ने दो-तीन हाथ चलाकर बाकी बची हुई बोतलों और मटकों का सफाया कर दिया और तब चलते-चलते ठीकेदार को एक लात जमा कर बाहर निकल आया।
कादिर ने उसको रोक कर पूछा तू पागल तो नहीं हो गया है बे?
क्या करने आया था, और क्या कर रहा है।
मैकू ने लाल-लाल ऑंखों से उसकी ओर देख कर कहहॉँ अल्लाह का शुक्र है कि मैं जो करने आया था, वह न करके कुछ और ही कर बैठा। तुममें कूवत हो, तो वालंटरों को मारो, मुझमें कूवत नहीं है। मैंने तो जो एक थप्पड़ लगाया। उसका रंज अभी तक है और हमेशा रहेगा ! तमाचे के निशान मेरे कलेजे पर बन गये हैं। जो लोग दूसरों को गुनाह से बचाने के लिए अपनी जान देने को खड़े हैं, उन पर वही हाथ उठायेगा, जो पाजी है, कमीना है, नामर्द है। मैकू फिसादी है, लठैत ,गुंडा है, पर कमीना और नामर्द नहीं हैं। कह दो पुलिसवालों से , चाहें तो मुझे गिरफ्तार कर लें।
कई ताड़ीबाज खड़े सिर सहलाते हुए, उसकी ओर सहमी हुई ऑंखो से ताक रहै थे। कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ती थी। मैकू ने  उनकी ओर देख कर कहामैं कल फिर आऊँगा। अगर तुममें से किसी को यहॉँ देखा तो खून ही पी जाऊँगा ! जेल और फॉँसी से नहीं डरता। तुम्हारी भलमनसी इसी में है कि अब भूल कर भी इधर न आना । यह कॉँग्रेसवाले तुम्हारे दुश्मन नहीं है। तुम्हारे और तुम्हारे बाल-बच्चों की भलाई के लिए ही तुम्हें पीने से रोकते हैं। इन पैसों से अपने बाल-बच्चो की परवरिश करो, घी-दूध खाओ। घर में तो फाके हो रहै हैं, घरवाली तुम्हारे नाम को रो रही है, और तुम यहॉँ बैठे पी रहै हो? लानत है इस  नशेबाजी पर ।  मैकू ने वहीं डंडा फेंक दिया और कदम बढ़ाता हुआ घर चला। इस वक्त तक हजारों आदमियों का हुजूम हो गया था। सभी श्रद्धा, प्रेम और गर्व की ऑंखो से मैकू को देख रहे थे।
(वाराणसी से रजनीश त्रिपाठी क़ी रपट )

Thursday, July 7, 2011

           जर्मन रेडियो डायचे वेले : खामोश
       हुई हिंदी की एक और आवाज

इस महीने की पहली तारीख से बेहद गुमनाम तरीके से विदेशों में हिंदी की एक और आवाज खामोश हो गई. यह आवाज थी जर्मन रेडियो डायचे वेले की हिंदी सेवा की. 15 अगस्त 1964 को शुरू हुई यह सेवा बरसों से ठिठक-थमक कर चलते हुए आखिर पहली जुलाई को हमेशा के लिए बंद हो गई. लेकिन बीबीसी की तरह इसके बंद होने पर कोई शोर-शराबा तो दूर, अब तक बहुतों को इसके बंद होने तक की जानकारी नहीं है.

वैसे, इसके अंत की शुरुआत तो बीते साल अक्तूबर में उसी समय हो गई थी जब प्रबंधन ने शार्टवेब पर हिंदी रेडियो बंद करने का फैसला किया था. लेकिन तब यह तय हुआ था कि रोजाना समाचार और फीचर को मिला कर पंद्रह मिनट के कार्यक्रम इंटरनेट रेडियो पर उपलब्ध रहेंगे और हिंदी की वेबसाइट को और समृद्ध किया जाएगा. लेकिन प्रबंधन ने व्वायस आफ अमेरिका और फिर बीबीसी हिंदी की तर्ज पर इससे भी पल्ला झाड़ने का फैसला कर लिया. डायचे वेले ने 15 अगस्त, 1964 को हिंदी कार्यक्रम की शुरुआत की थी. भारत के बाहर यह अकेला ऐसा रेडियो स्टेशन था जहां से संस्कृत में भी कार्यक्रम प्रसारित किए गए. महज 15 मिनट के कार्यक्रम से शुरू हुई हिंदी सेवा बाद में दिन में दो बार 30-30 मिनट के दो कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगी.
डायचे वेले का मुख्यालय जर्मनी के कोलोन से बान स्थानांतरित होने के बाद इसकी वेबसाइट भी शुरू की गई. तब इस सेवा की बेहतरी की उम्मीद जगी थी. जाने-माने प्रसारक राम यादव शुरू से ही इस रेडियो का चेहरा बने हुए थे. यह रेडियो सेवा बीबीसी की तरह लोकप्रिय कभी नहीं रही. लेकिन अब जब इसकी लोकप्रियता का ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ने लगा, प्रबंधन इसमें कतरब्योंत करने लगा. बीते साल पहले हिंदी कार्यक्रम के सुबह का प्रसारण बंद किया गया और फिर अक्तूबर में शाम का भी बंद हो गया. तब प्रबंधन की ओर से कहा गया कि बेवसाइट को मजबूत किया जाएगा. लेकिन अब उसका भविष्य भी अधर में है. हालात बिगड़ते देख कर राम यादव को बीते साल समय से पहले ही रिटायर हो गए. एक और पुराने साथी उज्ज्‍वल भट्टाचार्य भी पहली जुलाई से रिटायर हो गए. अब वहां सात स्थाई कर्मचारी बचे हैं. प्रबंधन उनमें से आधे से पल्ला झाड़ने की तैयारी में है. रात की पाली बंद हो चुकी है.
दरअसल, इस मामले में विदेशी प्रसारकों को राह दिखाई अमेरिका ने. उसके बाद बीबीसी भी इसी राह पर चल पड़ा. और अब जर्मनी भी उसी की नकल कर रहा है. विडंबना यह है कि जर्मन चांसलर एंजेसा मर्केल हाल में भारत यात्रा पर आई थी. उन्होंने दोनों देशों के आपसी संबंधों को मजबूत करने पर जोर दिया था. यह साल भारत-जर्मन मैत्री वर्ष के तौर पर मनाया जा रहा है. लेकिन जर्मन सरकार की सहायता से चलने वाली डायचे वेले की हिंदी सेवा इसी महीने असमय ही काल के गाल में समा गई. ऊर्दू और बांग्ला सेवाएं तो जस की तस चल रही हैं. लेकिन हिंदी बंद है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बांग्ला रेडियो के श्रोता हिंदी से ज्यादा हैं? लेकिन प्रबंधन को इस या ऐसे सवालों के जवाब तलाशने में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब अचानक हुए इस फैसले से कई उभरते प्रतिभावान पत्रकारों का करियर मझधार में है. एक युवा पत्रकार को तो अमेरिका से एमबीए करने के लिए स्कालरशिप मिल गई है. लेकिन बाकियों का क्या होगा. करियर के बीच में अचानक जर्मनी से भारत आकर नए सिरे से नौकरी की तलाश बेहद कठिन है.
वैसे भी हिंदी का बाजार भाव ठीक नहीं है. गिने-चुने लोगों को तो संपर्कों व जुगाड़ के बल पर नौकरियां और पैसे ठीक-ठाक मिल जाते हैं. लेकिन बाकी लोग जैसे-तैसे ही काम चलाते रहते हैं. जर्मनी में तो हिंदी पत्रकारिता के लिए डायचे वेले ही पहला और आखिरी मुकाम था. किसी जमाने में आलोक मेहता और मधुसूदन आनंद जैसे कई दिग्गज संपादक-पत्रकार इस सेवा के लिए काम कर चुके हैं. फिलहाल जो लोग अब बान में हिंदी सेवा की वेबसाइट को चला रहे हैं वे भी असमंजस में हैं. प्रबंधन ने उनको यह तक नहीं बताया है कि उनका भविष्य क्या होगा. यह वेबसाइट भी महज एजेंसी की खबरों के अनुवाद से ही चल रही है. ऐसे में पाठक इसे भला क्यों पढ़ेंगे. तो क्या जर्मनी से हिंदी सेवा का नामोनिशान मिट जाएगा. इस सवाल का जवाब तो शायद प्रबंधकों के पास भी नहीं है. तीस भाषाओं में सेवा चला रहे डायचे वेले प्रबंधन की दुनिया की सबसे बड़ी भाषा हिंदी के प्रति यह सौतेलापन रवैया समझ से बाहर है.
साभार : www.bhadas4media.com

Tuesday, June 7, 2011


मैं हूँ पेड़।
नीम,बबुल,आम,बड़,पीपल,
सागवान,सीसम और चन्दन का पेड़।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
फूल देता,फल देता।
सूखने के बाद लकडी देता।
और जो है सबसे आवष्यक कहलाती है
जो प्राणवायु,ऐसी ऑक्सीजन वो भी मैं ही तुम्हें देता।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
बदले में तुमसे क्या लेता,कुछ भी तो नहीं लेता।
और तुम मुझे क्या देते ? बताओ तो जरा
हाँ लेकिन तुम
काटते हो मेरी टहनियाँ,मेरी शाखाएँ,मेरा तना
मुझे लंगडा व लूला बनाते हो।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
तुम रूठ जाओ तो क्या होगा नुकसान ?
कुछ भी नहीं फिर भी तुम्हें मनाती हैं माँ और बहन
मैं रूठ जाऊँ तो क्या होगा ? कौन मनाएगा मुझे
और मैं नहीं माना तो !
आक्सीजन कौन देगा तुम्हें
वर्षा भी नहीं होगी,पानी नहीं मिलेगा
सूर्य के प्रकोप से कौन बचाएगा
पथिक को विश्राम कहा मिलेगा।
तुम्हें फल,फूल,दवा और लकड़ी कौन देगा।
सोचा है तुमने कभी ?
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
मैने देखा है आप मुझे लगाने के नाम पर रेकार्ड बनाते है।
लगाते दस और बताते सौ है 
और चल पाते है उनमें से भी मात्र कुछ पेड़
बताओ मुझे 
तुमने जो पेड़-पौधे लगाए
उनको पानी कितनी बार दिया।
कितनों की सुरक्षा की और पेड़ बनाया।
हॉ मैं स्वयं जब अपनी संतति फैलाने की कोशिश करता हूँ ।


अपने बीजों को हवा से दूर-दूर फेंककर उगाना चाहता हूॅ।
तो तुम उसमें भी डाल रहे हो रूकावट 
बताऊं  कैसे ?
तुमने जमीन को पौलिथीन की थैलियों से बंजर बना दिया है
इन थैलियों ने जमीन में फेला रखा है अपना साम्राज्य
ये थैलियॉं मेरे  बीज को,
मेरी जड़ों को जमीन में जाने नहीं देती
मुझे उगने को पनपने को,जगह नहीं देती
अगर यह स्थिति रही तो, 
एक दिन धरा हो जाएगी मुझसे विरान
मिट जाएगा धरा से मेरा नामो-निषाँ
भला मेरा तो इससे क्या जाएगा
पर बताओ मानव ऑक्सीजन कहां से पाएगा।
मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।
मुझे लगाकर ऐसे ही छोड देने वाले
मेरे नाम पर रेकार्ड बनाने वाले
मेरी परवरिष नहीं करने वाले
तुम्हें तो सजा मिलनी चाहिए
सजा भी ऐसी वैसी नहीं बल्कि
भ्रूण हत्या करने वाले को मिलती है जैसी।
वोही सजा ऐसे लोगो को मिलनी चाहिए
क्योंकि पौधों को लगाकर उनकी रक्षा न करना
उसे मरने के लिए छोड़ देना भ्रूण हत्या के समान है।
मुझे यह सब कहना पड़ा।
अपनी पीड़ा को व्यक्त करना पड़ा
क्योंकि मैं चाहता हूँ आपका भला
आप भी चाहो मेरा भला।


मैं हूँ पेड़।
मैं तुम्हें सब कुछ देता।


युवा सामाजिक कार्यकर्त्री 
                                                                 दिव्या संजय जैन
गाँधीनगर चित्तौडगढ़ (राज.)
पिन नं.-312001

Thursday, April 28, 2011

साहित्य का सच वास्तविक सच से भिन्न होता है : संजीव 
 
        "जबानें दिलों को जोड़ने के लिए होती हैं तोड़ने के लिए नहीं"  ये उदगार पूर्व अध्यक्ष महाराष्ट्र राज्य उर्दू  अकादमी के डा. अब्दुल सत्तार दलवी ने २३ अप्रैल २०११ को बेंक्वेट हाल, गोरेगांव [पूर्व] मुम्बई में हेमंत फ़ाउंडेशन द्वारा आयोजित विजय वर्मा कथा सम्मान समारोह में व्यक्त किये। उन्होंने आगे कहा- 'नौजवनों की हौसला अफ़जाई वक्त की अहम जरूरत है और यह काम हेमंत फ़ाउंडेशन बखूबी कर रहा है।' हिन्दी उर्दू के साहित्यकारों, टी.वी. कलाकारों, साहित्यप्रेमियों , मीडिया प्रेस से संलग्न तथा बाहर से आये हुए साहित्यप्रेमियों की उपस्थिति में तालियों की गड़गड़ाहट तथा संगीत की सुमधुर ध्वनि के बीच वर्ष २०११ का 'विजय वर्मा कथा सम्मान' मनोज कुमार पांडे [लखनऊ] को उनके कथा संग्रह 'शहतूत' के लिए तथा ' हेमंत स्मृति कविता सम्मान' वाजदा खान [दिल्ली] को उनके कविता संग्रह 'जिस तरह घुलती है काया' के लिए प्रमुख अतिथि श्री संजीव [कार्यकारी संपादक हंस] एवं अध्यक्ष श्री अब्दुल सत्तार दलवी ने प्रदान किया। पुरस्कार के अंतर्गत ग्यारह हजार की धनराशि,शाल,पुष्पगुच्छ, एवं स्मृति चिह्न प्रदान किया गया।
कार्यक्रम का आरंभ दीप प्रज्वलन एवं सरस्वती वंदना से हुआ। संस्था के निदेशक श्री विनोद टीबड़ेवाला एवं श्री जे.जे.टी. विश्वविद्यालय झुंझनू के कुलपति ने इस समारोह पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा- उन्हें गर्व है कि उनका विश्वविद्यालय ऐसे साहित्यिक समारोह से जुड़ा है। उन्होंने दोनों पुरस्कृत रचनाकारों का सम्मान करते हुए उन्हें युवा पीढ़ी का मील का पत्थर बताया।
संस्था की अध्यक्ष व प्रबन्धन्यासी साहित्यकार संतोष श्रीवास्तव ने ट्रस्ट का परिचय देते हुए उसकी गतिविधियों के बारे में बताते हुए कहा कि ट्रस्ट शीघ्र ही हिन्दी-उर्दू मंच तैयार करेगा ताकि दो जबानें मिलकर नए पथ का निर्माण करें।
समारोह में पुरस्कृत कविता संग्रह पर डा. करुणाशंकर उपाध्याय ने अपने वक्तव्य में कहा- वाजदाखान की कविताएं चित्र से परिपूर्ण हैं और कविताएं बिम्ब पूर्णता को दर्शाती हैं। 
लेखिका डा. प्रमिला वर्मा ने संयोजक श्री भारत भारद्वाज द्वारा भेजी गई संस्तुति प्रस्तुत की। सम्मानित रचनाकार  वाजदाखान ने अपनी रचनाओं का पाठ किया एवं अपने वक्तव्य पर बोलते हुए कहा - चित्रकला मेरा क्षेत्र रहा, मगर कविताओं को लिखना पढ़ना हमेशा आकर्षित करता रहा। कविताएं अन्तश्चेतना के किसी हिस्से को बड़ी ही आहिस्ता से स्पर्श करती हैं। यह जादुई स्पर्श कई-कई दिनों तक वजूद पर छाया रहता है।
मनोज कुमार पांडे ने अपने वक्तव्य में कहा कि मैं विजय वर्मा कथा सम्मान मिलने पर खुश हूं। और सचमुच सम्मानित महसूस कर रहा हूं। इसलिए भी क्योंकि यह सम्मान अपनी शुरूआत से ही विश्वसनीय रहा है और कई ऐसे कथाकारों को मिल चुका है जिनकी रचनाएं मैं गहरे लगाव के साथ पढ़ता रहा हूं। 
प्रमुख अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्री संजीव ने अपने रोचक वक्तव्य में कहा- साहित्य का सच वास्तविक सच से भिन्न होता है। प्रगटत: मिथ्या सा लगता है लेकिन वह उस वास्तविक सत्य से ज्यादा बड़ा सत्य होता है। उदाहरण स्वरूप उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की काबुलीवाला का जिक्र किया जिसमें रहमत नायक जेल में १२ वर्ष गुजार कर जब घर लौटता है तो अपनी ५ वर्ष की बेटी के लिए चूड़ियां ले जाता है । उसके लिए बेटी आज भी पांच वर्ष की है। रहमत के लिए वक्त वहीं ठहर गया है। उन्होंने कहा कि ''अपने यहां किसी भी ऐतिहासिक सच से रामायण-महाभारत का सच समाज को ज्यादा प्रभावित करता रहा है।''
मनोज कुमार पांडे की कहानी 'पत्नी का चेहरा' आवाज तथा रंगमंच की दुनिया के प्रखर कलाकार सोनू पाहूजा ने अपने रोचक अंदाज में प्रस्तुत की।
कार्यक्रम का संचालन कवि आलोक भट्टाचार्य ने किया एवं समारोह का समापन लेखिका सुमीता केशवा के आभार से हुआ।                                                                             सुमीता केशवा

Monday, April 4, 2011




चित्तोड़गढ़ में 'नव संवत्सर:आज़ के वैश्विक 
परिप्रेक्ष्य में' विषयक संगोष्ठी की रपट

''.समय सभी के साथ एक सा रहता है.हम ही अनुकूल-प्रतिकूल बन पड़ते हैं.बीते बीस सालों में हमारा भारत देश ही समय के प्रतिकूल स्तिथि में रहा है.विचार गोष्ठी के बहाने आज़ हमें देश को अनुकूल बनाने की बात करनी है. वैश्वीकरण ने हमारा सोच,विचार और विरासत सबकुछ बदल कर रख दिया है.कई देशों का आत्मविश्वास तक तोड़ दिया है.इन सालों में हमारे दिमाग पर सोचा समझा हमला किया गया हैं.हमारे देश के वैविध्य को कौन नहीं जानता है.कई तरह के आक्रमणों के बावजूद बनी रही हमारी संस्कृति ही हमारे लिए अकूत खज़ाना है.भारत की वैदिक संस्कृति के प्रति नतमस्तक नोबल विजेताओं को देखकर अब तो कुछ सीखना चाहिए.दूजी और हम हैं कि इस बात पर ही मरे जा रहे हैं कि विदेश से क्या आया.सार रूप में कहे तो आज़ हमारा नज़रिया बदलने की बहूत बड़ी ज़रूरत हैं.हम वैचारिक और नैतिक रूप से निर्धन और निर्बल हो चुके हैं.असल में हमने हिन्दुस्तानियों की मानसिक ताकत को ही सबकुछ मान लिया है.जबकी भारतीय मेधा की विश्वा स्तर पट नई पहचान स्थापित हुई वहीं नैतिकता के निम्नतम स्तर भी सामने आए''|
ये विचार विज़न कोलेज ऑफ़ मेनेजमेंट के सहयोग से रेलवे स्टेशन रोड़ स्थित जैन धर्मशाला में नव संवत्सर:आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में' विषयक संगोष्ठी के आधार कथन के रूप में गोष्ठी संयोजक डॉ. ए.एल.जैन ने कहे.अपनी बात को आधार देने हेतु जैन ने अपने सम्पादन में बनी तीन लघु फ़िल्में भी प्रदर्शित की,जिनमें 'देश की पुकार','भारत क्या है?' और 'भारत का सोर्ड विश्लेषण' शामिल हैं.ये फिल्म मेवाड़ विश्वविध्यालय के प्राध्यापक विभोर पालीवाल,जे.रेड्डी और विज़न स्कूल के प्राध्यापक राहुल जैन ने निर्मित की.अंत में डॉ. जैन ने अपनी बात में वक्ताओं का भरापूरा परिचय दिया.इससे पूर्व नगर के गीतकार अब्दुल ज़ब्बार ने एक सरस गीत पढ़ा,जिसे सभी उपस्थित प्रबुद्धजनों ने बहुत सराहा.साथ ही डॉ. योगेश व्यास ने इस गोष्ठी से जुड़े और भी कड़ीवार आयोजनों की रूपरेखा सभी के बीच रखी.|
युवा और बुज़ुर्ग वक्ताओं के पांच सदस्यीय दल में से शुरुआत रामधारी सिंह दिनकर पर शोधरत रेणु व्यास ने की.उन्होंने काल जैसे शब्द के कई अर्थ ज़ाहिर करते हुए अपने ढंग से गोष्ठी को दिशा दी.उन्होंने अपने वक्तव्य में कई रचनाकारों को शामिल करते हुए तथ्यात्मक बातें की गयी.उन्होंने कहा की सभ्यताओं को संघर्ष से नहीं जीता जा सकता ,न ही शक्ति के बल बूते.ये भारत ही हो सकता है जहां कई सारे संवत और कलेंडर प्रचलित हैं.इस बहुविध परम्पराओं वाले इस देश में एक भी कलेंडरअपने आप में पूरा नहीं है.उन्होंने भारतीय नव वर्ष को हिन्दू नव वर्ष जैसी उपमा देना बहुत चिंताजनक बताया.साथ ही वे कहती ही कि भौतिकता के साथ ही मानसिक रूप से भी भारत ने प्रगति की है.हमारे देश में भौतिकता के साथ अध्यात्म का समन्वय बेहद बेजोड़ है.ये ही हमारे भारतीय नवजागरण का सबसे बड़ा मूल्य साबित हुआ है|
दूजे वक्ता के रूप में जिला कोषाधिकारी हरीश लढ़ढ़ा ने कहा कि हमारे राष्ट्र में भांत-भांत के जाति और व्यावसायिक वर्ग है उनके लिए इस वर्ष का अलग अलग अर्थ रहा है.मगर वैश्विक रूप से चिंतन करें तो बात शक्तिशाले होने से जुडी है जो आर्थिक,सांस्कृतिक रूप से बड़ा है सभी उसकी ही बात मानते हैं. उसके ही रंग में सभी डूब रहे हैं.ज़रूरत इस बात की है कि हम भी अपनी सांस्कृतिक परम्परा को ठीक ढंग से अपनी संतानों में उंडेल पाएं.बड़ी अजीब बात है सब कुछ अब अर्थ के हिसाब से लगने लगा हैं.वे अपनी पूरी बात में देश के प्रति किसी भी प्रकार के हमले जैसी हालत से बेचिंता नज़र आए|
तीजे वक्ता के रूप में वरिष्ठ अधिवक्ता कैलाश झंवर ने देश के लिए इन अवनति की पराकाष्ठा वाले हालातों में भी निराश नहीं होकर फिर से कुछ गुज़रने के लिए चिंतन का आव्हान किया.उन्होंने सत्ता,धन और देश की दशा के बीच के समीकरण को सपाट गति से विश्लेषित किया.अपने भाषण में झंवर ने कहा कि आज के आदमी का चिंतन जाता रहा.अब एक बार फिर से स्वतन्त्रता आन्दोलन की ज़रूरत हैं.भौतिक प्रगति के समान्तर हमें वैचारिक दरिद्रता भी मिटानी होगी.वे कहते हैं कि नेतृत्वकर्ता ही दिशाहीन है,ये बेहद चिंताजनक हालात को इंगित करता है|
इस अवसर पर जे.के.सीमेंट के वरिष्ठ सलाहकार ए.बी.सिंह ने आम बोलचाल की भाषा में हमारे ही बीच के लोगों की मानसकिता के उदाहरण देते हुए देश के बारे में कई ज़रूरी मुद्दे उठाए एवं समूह और कर्म की ताकत को आवश्यक बताया.और अंत में सेवानिवृत कोलेज प्राचार्य प्रो. डी.सी.भाणावत ने अपनी अंग्रेज़ी और हिंदी कविता के सहारे रसीला उद्बोधन दिया.युवा पीढी के गलत हाथों में दोहन और टी.वी. प्रोग्राम में नारी पर छींटाकसी के साथ ही कई विलग मुद्दों पर भी उन्होंने अपनी बातें कही.
गोष्ठी के अंतिम भाग में भारतीय नववर्ष आयोजन समिति के सह सचिव और सी.ए. सुशील शर्मा ने आभार जताया.राष्ट्रगान के साथ ही आयोजन पूरा हुआ.इस सम्पूर्ण गोष्ठी का संचालन 'अपनी माटी' वेबपत्रिका के सम्पादक और संस्कृतिकर्मी माणिक ने किया.दो घन्टे तक चली गोष्ठी में नगर के लगभग सभी वर्गों और संस्थाओं के शीर्षस्थ पदाधिकारी,कई शैक्षणिक संथाओं के प्रधान और साहित्यकार सहित दो सौ प्रतिभागी मौजूद थे.
चित्तोड़गढ़ से माणिक की रिपोर्ट    

Friday, March 25, 2011

हाईकमीशन लन्दन में विश्व हिन्दी दिवस 
पर साहित्यकार सम्मानित


ब्रिटेन में २१ मार्च को विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में भारतीय उच्चायोग, भारत भवन, ऑल्डविच लन्दन में एक समारोह का आयोजन किया गया. इस समारोह में भारतीय उच्चायोग ,लन्दन द्वारा घोषित हिंदी सेवा सम्मान योजना के अंतर्गत भारतीय उच्चायुक्त महामहिम नलिन सूरी ने वर्ष २०१० के हिंदी साहित्य सेवा सम्मान प्रदान किये.
कार्यक्रम में ख्यातिप्राप्त साहित्यकार उषाराजे सक्सेना को हरिवंशराय बच्च्न सम्मान, प्रसिद्द साहित्यकार स्वर्गीय महावीर शर्मा जी को हजारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (पत्रकारिता- मरणोपरांत) एवं ऐश्वर्या कुमार को जॉन गिलक्रिस्ट सम्मान (अध्यापक), कथा यू के को फ्रेड्रिक पिन्कॉट सम्मान तथा अरुण सब्बरवाल(कविता) एवं शिखा वार्ष्णेय (संस्मरण) को डॉ लक्ष्मी मल्ल सिंघवी हिंदी साहित्य प्रकाशन अनुदान ससम्मान प्रदान किए गए.
आयोजन में लन्दन में भारतीय उच्चायुक्त श्री नलिन सूरी सहित उप-उच्चायुक्त श्री प्रसाद, संस्कृति मंत्री श्रीमती मोनिका मोहता उपस्थित रहे. उच्चायुक्त श्री नलिन सूरी ने पुरस्कार वितरण किये और अपने बहुमूल्य शब्दों से संबोधित किया. आयोजन का सञ्चालन उच्चायोग के हिंदी अताशे श्री आनंद कुमार ने किया, तदुपरांत श्रीमती पद्मजा जी ने धन्यवाद ज्ञापन के साथ समारोह का समापन किया .
विशिष्ट व्यक्तियों में मेयर लन्दन, काउंसलर जे एस ग्रेवाल, काउंसलर जाकिया जुबेरी, काउंसलर सुनील चोपड़ा, पूर्व अंजना पटेल, तेजेंद्र शर्मा और गौतम सचदेव के अतिरिक्त लन्दन में हिंदी साहित्य के कई गणमान्य व्यक्ति एवं मीडिया कर्मी उपस्थित थे.

Thursday, March 10, 2011

सन 2011 का "रामनाथ गोईन्का पत्रकार
शिरोमणी पुरस्कार "डॉ राधेश्याम शुक्ल को
निज़ामाबाद| हैदराबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक श्रंखला " स्वतंत्र वार्ता " के समूह संपादक डॉ राधेश्याम शुक्ल को सन 2011का  "रामनाथ गोईन्का पत्रकार शिरोमणी पुरस्कार " से नवाजा जाएगा | पुरस्कार के रूप में डॉ शुक्ल को 51 हजार रुपये नकद के साथ साथ शाल,श्रीफल एवम प्रशस्तिपत्र प्रदान किया जाएगा.यह जानकारी कमला गोइन्का फाउन्डेशन द्वारा जारी
एक प्रेस विज्ञाप्ति श्याम सुन्दर गोइन्का ने दी है. इससे पूर्व सन 2009 मे श्रीकांत पराशर एवम 2010 में नवभारत टाईम्स के पूर्वसंपादक विश्च्नाथ सचदेव जी को दिया गया है.उन्हों ने बताया है कि यह पुरस्कार ईलेक्ट्रोनिक्स एवम प्रिंट मीडिया के पत्रकारोंको दिया जाता है.पता हो कि एक वर्ष ईलेक्ट्रोनिक्स एवम दूसरे वर्ष प्रिंट मीडिया के लोगों को दिया जा रहा है.विज्ञप्ति के मुताबिक
हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के हिंदी पत्रकारों एवम दूसरे वर्ष हिंदी भाषी क्षेत्रों के हिंदी पत्रकारों को जाता है.जिसके तहत डॉ राधेश्याम शुक्ल को सन 2011 का यह पुरस्कार दिया जा रहा है| मूलतः अयोध्या के रहने वाले डॉ शुक्ल पिछले 41 वर्षों से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हैं| जिन्हों ने  फैजाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक "जनमोर्चा "से पत्रकारिता की शुरुवात की .बाद में डॉ शुक्ल ने वहीँ से प्रकाशित हिंदी दैनिक"हमलोग" में संपादक बने.उसके बाद मेरठ से प्रकाशित "अमरउजाला " एवम दैनिक जागरण को अपनी महत्त्वपूर्ण दीं | जनवरी 1998 सेहैदराबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक "स्वतंत्र वार्ता "में समूह संपादक बने.विदित हो कि "स्वतंत्र वार्ता" का प्रकाशन हैदराबाद के आलावानिज़ामाबाद एवम विशखापतानम से भी होता है.डॉ शुक्ल द्वारा लिखित पुस्तक "रामजन्म भूमि का प्रमाणिक इतिहास " काफी लोकप्रियरही है|श्री गोइन्का के मुताबिक केरल के वरिस्थ साहित्यकार डॉ एन .ई .विश्वनाथ अय्यर को"गोइन्का हिंदी साहित्य सारस्वत " सम्मान तथा इसी  तरह "बाबूलाल गोइन्का हिंदी साहित्य पुरस्कार "चेन्नई के डॉ एम्.शेषन को उनकी लोकप्रिय कृति "तमिल संगम "केलिए दिया गायेगा| जिन्हें पुरस्कार के रूप में 21000 रुपये नकद के साथ -साथ शाल,श्रीफल एवम प्रशस्ति पात्र प्रदान किया जाएगा |